आखिर जसवंत सिंह का कसूर क्या है ?

Jaswant_Singh-निरंजन परिहार- जसवंत सिंह एक बार फिर अकेले हैं। पिछले चुनाव में भी निर्दलीय थे। और इस बार भी बीजेपी ने उनको अकेला कर दिया। टिकट नहीं दिया। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भले ही उन्हें पसंद ना करें। संघ परिवार को खुश रखने की कोशिश में बहुत सारे भाजपाई भी भले ही जसवंत सिंह को हमेशा अपने निशाने पर रखे रहें। और बीजेपी भले ही उनका टिकट काटकर उनकी इज्जत का मटियामेट करने की कोशिश कर ले। लेकिन समूचे देश को अपने जिन नेताओं पर गर्व होना चाहिए, उन इने-गिने सबसे बड़े नामों में जसवंत सिंह का नाम भी सबसे ऊंचे शिखर पर लिखा हुआ हैं। फिर भी बीजेपी ने उनका लोकसभा का टिकट काट दिया है। इस तथ्य और ब्रह्मसत्य के बावजूद कि बाड़मेर में जसवंत सिंह अपनी छवि की वजह से अजेय उम्मीदवार हैं। और देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र में दो – सवा दो लाख मुसलमान एकमुश्त किसी भाजपाई के साथ हैं, तो वह अकेले जसवंत सिंह ही हैं। बाडमेर का सबसे बड़ा दर्द यह है कि जसवंत सिंह का टिकट उन कांग्रेसी कर्नल सोनाराम के लिए काटा गया, जिनका इस पूरे जनम में बीजेपी से नाता ही सिर्फ अटलजी से लेकर आडवाणी और नरेंद्र मोदी तक को गालियां देने का रहा। वसुंधरा राजे चुनाव से चार दिन पहले सोनाराम को कांग्रेस से बीजेपी में लाईं और लोकसभा के लिए लड़ने भेज दिया। वसुंधरा के इस अदभुत अंदाज से राजनीति अवाक है। लोग हत्तप्रभ, और बाड़मेर बेबस।

बीजेपी ने सबसे पहले मुरली मनोहर जोशी बनारस से बेदखल किया। फिर भोपाल से लड़ने की लालकृष्ण आडवाणी की इच्छा पर उनकी इज्जत उछाली। और अब जसवंत सिंह को जोर का झटका बहुत जोर से दिया। यह नए जमाने की नई बीजेपी का नया रिवाज है। कभी संस्कारों वाली पार्टी होने का दावा करनेवाली बीजेपी का यह नया चेहरा है। माना कि राजनीति में चेहरे बदलते देर नहीं लगती। लेकिन बीजेपी जैसी बेहतर पार्टी में बुजुर्ग चेहरों को बहुत बेरहमी से बदरंग करके उनसे बदला लिया जाएगा, यह किसी को नहीं सुहा रहा है। बीजेपी के बुजुर्ग अपने जीवन के आखरी दिनों में आज सम्मान की खातिर खाक छानते दिख रहे हैं। और बाहर से आए दलबदलुओं का दिल खोलकर स्वागत किया जा रहा है। बीजेपी में बुजुर्गों के अपमान पर उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे तक को कहना पड़ा कि आडवाणी, जिन्होंने पार्टी को बनाया और उसे प्रतिष्ठा दिलाई, वे भी अपने टिकट के लिए इंतजार करते रहे। यह आडवाणी का अपमान नहीं तो और क्या है।

वैसे तो राजनीति में कोई भी नहीं भूलता। लेकिन पिछली बार 2004 में, शिमला बैठक में जसवंत सिंह को बुलाने, फिर बीच रास्ते में ही रोककर पार्टी से निकाल देने का फरमान सुनाकर बीजेपी ने उनका जो अपमान किया था, उसे जसवंत सिंह शायद भूल गए होंगे। क्योंकि वे बड़े दिलवाले आदमकद के आदमी हैं। कारण था – जसवंत ने अपनी किताब में जिन्ना की तारीफ की थी। लेकिन देश जब जब चिंतन करेगा, तो जिन्ना के मामले में ज्यादा बड़ा पाप तो लाल कृष्ण आडवाणी का था। क्योंकि जसवंत सिंह ने तो लिखा भर था। आडवाणी तो जिन्ना के देश पाकिस्तान जाकर उनकी मजार पर माथा टेकने के बाद फूल चढ़ाकर यह भी कह आए थे कि जिन्ना महान थे। फिर देर सबेर बीजेपी संघ परिवार की भी अकल ठिकाने आ ही गई। उसे भी मानना पड़ा कि आडवाणी के अपराध के मुकाबले जसवंत के जिन्ना पर विचार अपेक्षाकृत कम नुकसान देह थे। लेकिन ताजा संदर्भ में तो जसवंत सिंह सिर्फ और सिर्फ वसुंधरा राजे की त्रिया हठ वाली राज हठ के शिकार हैं।

राष्ट्रीय परिपेक्ष्य को छोड़कर बात अगर सिर्फ प्रदेश की दीवारों के दाय़रे की करें, तो राजस्थान की राजनीति में अब तक के सबसे बड़े नेताओं के रूप में मोहनलाल सुखाडिय़ा और भैरोंसिंह शेखावत अब इस दुनिया में न होने और खुद के सीएम रहते हुए कांग्रेस का सफाया हो जाने के बावजूद कांग्रेस में सबसे विराट हो जाने वाले अशोक गहलोत आज भी लोगों के दिलों पर छाए हुए हैं। उसी तरह, सबसे बड़े राजनयिक और राजनीतिक के रूप में जसवंत सिंह देश के सामने हैं। लेकिन इस बात का क्या किया जाए कि बीजेपी और व्यक्तिगत रूप से वसुंधरा राजे उनके इस कद का ही कबाड़ा करने पर उतारू हैं। वैसे, अपना मानना है कि जसवंत सिंह राजस्थान के नहीं, पूरे देश में आदमकद के आदमी हैं। और अपना तो यहां तक मानना है कि जसवंत सिंह जैसे नेता को जीवन के इस अआत्यंत ऊंचे और आखरी मोड़ पर आकर बीजेपी से जुड़े भी रहना चाहिए कि नहीं, यह चिंतन का विषय है।

निरंजन परिहार
निरंजन परिहार

राजस्थान में जिस तरह से वसुंधरा राजे के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आई, उसी तरह से इस चुनाव के बाद देश में भी सरकार बन गई और अगर बन पाए, तो नरेंद्र मोदी का पीएम बनना उनका निजी पराक्रम होगा। लेकिन वसुंधरा राजे और राजनाथ सिंह के बारे में देश को सिर्फ यह जरूर याद रहेगा कि उंचे कद के आला नेताओं की गरिमा को इन दोनों के काल में जितनी ठेस पहुंची और बीजेपी का संगठन के स्तर पर जितना कबाड़ा हुआ,उतना पार्टी के चौंतीस सालों के इतिहास में कभी नहीं हुआ। वसुंधरा राजे ने भी बड़े नेताओं के मानमर्दन का कोई मौका नहीं छोड़ा। स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत से लेकर, ललित किशोर चतुर्वेदी, हरिशंकर भाभड़ा, भंवरलाल शर्मा, रघुवीर सिंह कौशल जैसों को सार्वजनिक रूप से खंडहर कहने का वसुंधरा राजे ने जो राजनीतिक पाप किया था, उसका हिसाब अभी बाकी है। और यह तो गुलाबचंद कटारिया और घनश्याम तिवारी सहित ओमप्रकाश माथुर की किस्मत बहुत बुलंद है, लेकिन फिर उनको ठिकाने लगाने की वसुंधरा की कोशिशें तो अब भी जारी हैं ही। पार्टी का टिकट कटवाने और न देने का हक हासिल होने के बावजूद देश की राजनीति में आज भी वसुंधरा राजे और राजनाथ सिंह, जसवंत सिंह से बड़े नेता नहीं हैं। और अपना तो यहां तक मानना है कि राजनीति में जसवंत सिंह जैसी विश्व स्तरीय गरिमा प्राप्त करने के लिए इन दोनों को शायद कुछ जनम और लेने पड़ सकते हैं। राजनाथ सिंह ने भी कह दिया है कि बाड़मेर से उम्मीदवार को बदलना अब संभव नहीं है। लेकिन कोई भी इसका असली कारण नहीं बताता कि आखिर जसवंत सिंह को उम्मीदवारी से आउट क्यों किया गया। क्या सचमुच बीजेपी ने अपने बुजुर्गों का सम्मान करना बंद कर दिया है?

भले ही वह समूचे मंत्रिमंडल का फैसला था, फिर भी कुछ लोगों को हक है, तो वे कंधार के कसूर को हमारी विदेश नीति में नीहित कूटनीतिक मजबूरी न मानकर सिर्फ जसवंत सिंह की निजी गलती मानकर उनको कघटरे में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि उस कटघरे में खड़े होने के बावजूद जसवंतसिंह का कद उनका न्याय करनेवाले किसी भी जज से ज्यादा बड़ा है। जसवंत सिंह प्रभावशाली हैं, शक्तिशाली भी और समर्थ भी। राजनीतिक कद के मामले में उनको विराट व्यक्तित्व का राजनेता कहा जा सकता है। व्यक्तितव अगर विराट नहीं होता, तो दार्जीलिंग के जिन पहाड़ों से उनका जीवन में कभी कोई नाता नहीं रहा, वहां से भी लोगों ने निर्दलीय जिताकर उन्हें संसद में भेजकर अपने पहाड़ों से भी बड़ी उंचाई बख्श दी। दरअसल, पूरे विश्व के राजनयिक क्षेत्रों में जसवंत सिंह को एक धुरंधर कूटनीतिज्ञ के रूप में देखा जाता है। विदेशी सरकारों के सामने जसवंत सिंह की जो हैसियत है वह एसएम कृष्णा से कई लाख गुना और नटवर सिंह, प्रणव मुखर्जी आदि के मुकाबले कई गुना ज्यादा बड़ी है। भाजपा में तो क्या देश की किसी भी पार्टी में विदेश के मामलों में उनकी टक्कर का कूटनीतिक जानकार नहीं है, यह कांग्रेस भी जानती है, आप भी और हम भी। और राजनीतिक कद नापा जाए,तो वसुंधरा राजे तो खैर उनके सामने कहीं नहीं टिकतीं, राजनाथ सिंह तक राष्ट्रीय अध्यक्ष होने का बावजूद जसवंत सिंह के मुकाबले बहुत बौने हैं। लेकिन राजनीति का भी अपना अलग मायाजाल होता है। यह बीजेपी का सनातन दुर्भाग्य है या बड़े नेताओं की किस्मत का दुर्योग कि जो लोग कभी उनके दरवाजे की तरफ देखते हुए भी डरते थे, वे आज उन्हें आंख दिखा रहे हैं। लेकिन यह तो बीजेपी की किस्मत की कमजोरी का कमाल ही कहा जा सकता है कि जसवंत सिंह जैसा बहुत बड़ा नेता आज अलग थलग होकर निर्दलीय लड़ने को मजबूर हैं और उनके मुकाबले बहुत बौने लोग बहुत बड़े पदों पर बिराजमान होकर जसवंत सिंह जैसों की किस्मत लिखने के मजे ले रहे हैं। राजनीति भले ही इसी का नाम है। लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास है कि आखिर जसवंत सिंह का कसूर क्या है?

(लेखक जाने – माने राजनीति विश्लेषक हैं)

4 thoughts on “आखिर जसवंत सिंह का कसूर क्या है ?”

  1. जसवंत सिंह जी का कसूर ये हे की मोदी की लिखी किताब जसवंत का गुनाह इतना है कि उन्होंने मोदी के सरदार पटेल पर अपनी लिखी किताब में कुछ टिप्पणी कर दी थी जो मोदी को नागवार गुजरी। मोदी ने गुजरात में किताब को बैन कर दिया और भाजपा ने जिन्ना के स्तुति का आरोप लगाकर जसंवत को भाजपा से चलता कर दिया। मोदी के बैन के खिलाफ जसंवत कोर्ट गए और जीत गए। मोदी को चुनौती दे भाजपा में किसकी हिम्मत। गडकरी अध्यक्ष बने तो जसंवत को भाजपा में ले आए। न जसंवत ने अपने लिखे शब्द वापस लिए न भाजपा ने अपने आरोप। भाजपा आज तक नही बता पार्इ कि कौन से पेज पर लिखे किस पैराग्राफ से भाजपा को आपत्ति है। मोदी को चुनौती तो टिकट कैसे? पर सरे राजपूत एक हो गये हे और बीजेपी को भुत बड़ा नुकसान जेलना पड़ेगा घमंड तो रावण का भी नही चला तो बीजेपी का खा से जयहिन्द जय राजपुताना

  2. बुरा मानो तो मानो ।।।।आज जसवंत सिंह जी की आँखों में आंशु देख कर मुझे बड़ा दुःख हुआ की एक ऐसे बुजुर्ग आदमी जो जीत भी सकते थे उनकी टिकट काटी गई और वो भी उनके घर से।पर एक बात सोचने की है की इसमें भला किसका होगा।वो भाजपा कहाँ गई जो एक थी नेक थी सर्वश्रेष्ठ थी।मुझे बड़ी दया आती है उन लोगो पर जो रतन सिंह जी भगतपुरा की बात को नहीं मानते हालाँकि मैं नहीं कहता की वो एकदम सही कहते है पर उनके जैसी बात कहने की हिम्मत संघिष्ट में तो प क्का ही नही होगी।क्यूंकि वो भेड़चाल वालो को ही पसंद करते है।अब आया न गुस्सा ।।।।।अभी और सुनो ।ये भाजपा की पैदाइश जनसंघ नाम से करने वालों ने ये सोचा था की ये गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के बाद कांग्रेस नाम की पार्टी सारे फैसले एकतरफा न करे।और विशेषकर भारतीय जन मानस जो की कांग्रेस को ही सब कुछ मानती है उसमे एक सवर्ण वर्ग है जो कांग्रेस को ख़त्म कर सकता है मतलब की उसकी राज करो और फुट डालो वाली नीति को उजागर कर देगा तो इसी कारण से इस वर्ग के हितों पर कुठाराघात करो ताकि ये वर्ग चूँकि तथाकथित सामंत वर्ग से हें इसलिए कोइ विरोध नही करेगा । तो कांग्रेस ने सबके साथ ऐसा व्यवहार किया की उसकी सरकार चल पड़ी तब भाजपा नाम से अस्सी के दशक में पार्टी बनी जो जनसंघ का ही रूप था पर उसमे कुछ लोग कांग्रेस की नीतियों को लागू करके स्थायी रूप से देश पर राज करना चाहते थे इसलिए कांग्रेस से भी अधिक विभाजन भाजपा ने किया और अबके तो भाजपा चाहती है की अब हमारी बारी है और इसलिय वह सत्ता प्राप्ति के लिए हरसंभव प्रयाश कर रही है।रही बात राजपूत वोट की तो ये एक ऐसी जाती है जिसे जो चाहे जैसे चाहे उपयोग में ले सकता है पर ये खुद किसी को काम में लेना अपने स्वाभिमान के खिलाफ समझते है ।मेरी इस बात पर कई कमेंट्स आयेंगे की आप गलत हो।पर वक्त व parishthiti के हिसाब से नही बदलने वाला ये समाज एक दिन कट्टर कहलायेगा जो की अभी नही है ।एक प्रशन जिसका आप सभी जवाब दे की।जातिवाद ख़त्म कर कौन कर रहा है कोइ है नही न फिर राजपूत को क्या करना चाहिए।मेरे अच्छे जाट व अन्य जाती के लोग मुझे शक की निगाह से देख रहे है क्यूँ ?अब एक साधारण भाजपा कार्यकर्ता को समझ में नही आ रहा है की वो किसलिए काम कर रहा है।वाह लोकतंत्र तेरे रंग

  3. लेखक का प्रश्न कि ‘आख़िर जसवंत सिंह का कसूर क्या है’ का हल खोजने के लिए हमें ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखना होगा. हालाँकि जसवंत सिंह भाजपा के दिग्गज नेता रहे हैं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्त मंत्री और विदेश मंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा ने जसवंत सिंह को बहुत दर्द दिए हैं. 17 अगस्त 2009 को जिन्ना पर लिखी उनकी पुस्तक “जिन्ना भारत-विभाजन के आईने में” के हिन्दी और अंग्रे़जी दोनों संस्करण के दो दिन बाद यानी 19 अगस्त 2009 को भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष ने शालीनता से कहीं परे जसवंत सिंह से टेलिफोन पर व्यक्तिगत बातचीत करते हुए कहा था, “आप पार्टी से निष्कासित किए जाते हैं.” उस समय भी भाजपा नेताओं के वक्तव्य (जबकि अधिकतर लोगों ने उनकी पुस्तक को पढ़ा भी नहीं था), गुजरात में पुस्तक पर प्रतिबंध और पुस्तक की कुछ प्रतियों को जलाना जैसी बातें एक नकारात्मक मानसिकता का परिचायक दे रही थीं. इन दिनों भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का बयान कि “हम जसवंत सिंह को एडजस्ट नहीं कर सके, एडजस्ट कर देंगे” निश्चित ही भाजपा में नए उभर रहे शीर्ष नेताओं के अहंकार को प्रदर्शित करता है, जिसमें तानाशाही रवैये का आभास होता है. 2009 में जसवंत सिंह को निर्दलीय के रूप में भी चुनाव लड़ना पड़ा था और सम्भवतया इस बार 2014 में भी उन्हें निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ना पड़ेगा, क्योंकि वे एक बेबाक बात कहने वाले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं और यह भाजपा के नए उभरते शीर्ष नेताओं को पसंद नहीं है.
    – केशव राम सिंघल

  4. संशोधन – … हिन्दी और अंग्रे़जी दोनों संस्करण के विमोचन के दो दिन बाद यानी 19 अगस्त 2009 को …

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