पहले ही दौर में फेल हो गये मोदी

modi 1-सुन्दर लोहिया- लोग नरेन्द्र मोदी के चक्रवाती चुनाव अभियान के वशीभूत होकर भाजपा सरकार में कांग्रेस से अलग और जनता के लिए शान्ति और समृद्धि सम्पन्न भविष्य का सपना देख रहे थे। नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के शासनाध्यक्षों की उपस्थिति में पाक प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ के शामिल होने से देश के साम्प्रदायिक माहौल में सुधार की उम्मीद दिख रही थी। भारतीय विदेश सचिव ने मोदी और शरीफ की मुलाकात के बाद जो बयान मीडिया पर प्रसारित किया उससे नाउम्मीदी प्रकट हुई है। जबकि नवाज़ शरीफ के उस बयान से जिसे उन्होंने मीडिया में खुद पढ़ कर जारी किया कई मामलों में उस मुल्क के अवाम की इच्छाओं को प्रतिबिम्बित करता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया की दोनों देशों को अपने झगड़ों को सुलझाने के लिए बातचीत का सिलसिला जारी रखना चाहिए। इससे यह साफ तौर पर प्रकट हो रहा था कि वे समस्याओं को इस मौके पर उठाकर इस मौके की गरिमा को ठेस नहीं पंहुचाना चाहते। इसके लिए सचिव स्तर की बातचीत का सुझाव था जो दोनों देशों के लिए मान्य होना चाहिये था। लेकिन भारतीय विदेश सचिव ने सरकार की ओर से जो बयान दिया उसमें समस्याओं का उल्लेख किया गया और उन्हें बातचीत के लिए पूर्व शर्तों के तौर पर पेश कर दिया।
भारत सरकार यानि मोदी सरकार का यह रुख संघ परिवार को अपनी दृढ़ता परिचय देने में भले ही कारगर हो लेकिन कूटनीतिक तौर पर यह दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि अवांछित माना जायेगा। नवाज़ शरीफ जिस दोस्ताना माहौल की बात कर रहे थे भारत ने उसका कूटनीतिक समुचित जवाब नहीं दिया। इससे संघ परिवार भले ही खुश हो जाये लेकिन देश की शान्तिप्रिय और विकास की उम्मीद लगाई हुई जनता को ठेस पहुंची है। इससे नवाज़ के आने से जो दोस्ताना माहौल बन रहा था उसमें दरार पड़ गईं और पाकिस्तान में शरीफ की भारत यात्रा को लेकर जो तल्ख टिप्पणियां हो रही हैं उससे भारत का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुष्प्रभाव पड़ेगा उसे संघ नहीं मोदी सरकार को देर सबेर भुगतना होगा।
यह ठीक है कि दोनों मुल्कों के बीच कई समस्यांए हैं। आतंकवाद के दो पक्ष हैं एक जिसमें पाकिस्तान की भागीदारी का शक है और दूसरी हमारी आंतरिक राजनीति का हिस्सा है। इस अवसर सब पर बातचीत की जा सकती थी लेकिन उस बातचीत का कौन सा हिस्सा सार्वजनिक करना है और कौन सी बातें भविष्य की रणनीति पर छोड़ देनी हैं, भारत ने इस तरह की कूटनीतिक समझ का परिचय नहीं दिया। नवाज़ शरीफ के साथ जो बातचीत हुई उसमें काश्मीर और उससे जुड़े मसलों पर ज़रुर बात हुई होगी लेकिन उन्होंने शपथ ग्रहण के अवसर की गरिमा और मेहमान की अस्मिता का ध्यान रखते हुए अपने बयान में सिर्फ उन बातों का उल्लेख किया जिनसे दोनों देशों के अवाम दोस्ती की आहट सुन सके। इसे भारतीय विदेश नीति की शुरुआत के तौर पर देखने से निराशा ही हाथ लगती है।
दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल के नाते कांग्रेस ने जो शुरुआत की है वह भी उसकी वर्तमान स्थिति में सजग जागरूक विपक्ष की उम्मीद पर पानी फेर देने पाली है। उन्हें नरेन्द्र मोदी की सरकार पर तत्काल कोई प्रतिक्रिया देने की उतावलेपन के कारण मानव संसाधन मन्त्री स्मृति इरानी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर सवाल उठाया और चारों तरफ से खुद अपनी पार्टी के भीतर बचे हुए विवेकशील तबके की आलोचना का शिकार होना पड़ा। लगता है कि अब कांग्रेस को भारतीय राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि इसके पास नेहरू-गान्धी की कोई विरासत नहीं है। ये भी वक्त और श्रोताओं के अनुकूल सिद्धान्त झाड़ने लगे हैं। साम्प्रदायिकता का विरोध करते हैं लेकिन मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकार को भगवा बिग्रेड के आतंक से बचाने में हिचकचाते रहे। उस समय यदि कांग्रेस अपने सिद्धान्त को बचाने के लिए आगे आती तो देश की धर्मनिरपेक्ष जनता उनका समर्थन करती। कांग्रेस एक डरी हुई पार्टी की तरह काम कर रही थी और उसका डर सही भी था क्योंकि उसकी सरकार में कई घोटाले हुए जिनमें आखिर में राबर्ट वाड्रा का नाम जुड़ा जिसे कांग्रेस मुख्यमन्त्रियों ने लाभ पंहुचाने के लिए जो कुछ किया उसका परिणाम चुनाव में प्रकट हो गया। वैसे भी यह पार्टी सबसे पुरानी होने के कारण अपने पूर्वजों की गलतियों को विरासत में ढोने के लिए अभिशप्त है। आम आदमी इतिहास की बारीकियों को तो याद नहीं रखता लेकिन इतिहास ने उससे जो छीना होता है उसे लेकर सिर धुनता रहता है। उसे इन्दिा गान्धी द्वारा आपातकाल लागू करना तो याद है मगर भूल गया कि राजाओं का प्रिवीपर्स बन्द करके उस धन को बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके देश के आर्थिक विकास में समायोजित करके राजनीति को जनोन्मुख बनाया था। लोकतन्त्र में उसे अपना गुस्सा उतारने का मौका चुनाव के रूप में मिलता है और वह भविष्य से निश्चिन्त होकर आक्रोश को वोट में बदल देता है। वैसे भी धर्मनिरपेक्षता के अलावा भाजपा और कांग्रेस में कोई अन्तर नज़र नहीं आता इसलिए जब कांग्रेस भी भाजपा की तरह साम्प्रदायिक दिखने लगी तो जनता ने दोनों मे जो सच्चा साम्प्रदायिक है उसे मौका दिया ताकि धर्मनिरपेक्ष जनता अपने विरोधी को ठीक से पहचान सके।
भाजपा जिस तरह से सरकार चलाने जा रही है। उससे पर्दा उठने लगा है और कुछ जल्दी ही उठने लग गया है। ये भी अपने आपको शक्तिशाली और निर्भीक शासक सिद्ध करने की दौड़ में छलांगें लगा रहे हैं। उसे लगता है कि चीन और अमेरिका जिस प्रकार से नरेन्द्र मोदी सरकार को बधाइयां दे रहे हैं यह केवल मोदी के व्यक्तित्व का कमाल है। सच्चाई यह है कि इस प्रकार की कूटनीतिक औपचारिताओं को चाणक्य के शिष्य आत्मसात नहीं कर पाये हैं ये वित्तीय पूंजीवाद के हथकण्डे हैं जिनके चलते जनरल मोटर्स जैसी विदेशी कम्पनी गुजरात में कौडि़यों के भाव ज़मीन खरीद कर निवेश करने जा रही है। अभी जो संकेत आ रहे हैं कि रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा शतप्रतिशत की जायेगी तो संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच का झूठ उघड़ कर सामने आ जायेगा। – www.hastakshep.com

error: Content is protected !!