चुनाव में जीता कौन ?

राजेन्द्र हाड़ा
राजेन्द्र हाड़ा
नगर निगम के बीस अगस्त को आए परिणाम से हारा कौन और जीता कौन ? सबके लिए इसके अलग-अलग मायने हैं। आंकड़ों में भाजपा जीत की सीमा पर आकर थम गई तो कांग्रेस भौंचक्की है, अरे इतनी सीट की तो उम्मीद ही नहीं थी। ध्यान देते तो शायद बहुमत ही ले आते। भाजपा राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर पर भले कुछ भी सोचती, कहती और मानती हो परंतु स्थानीय स्तर पर तो उत्तर की भाजपा जीती और दक्षिण की हारी। महापौर-उप महापौर कोई भी बने। स्थानीय भाजपा की सोच और समझ अलग ही काम करती है और गिनती के कुछ लोगों तक सीमित रहती है। चाल, चरित्र और चेहरे की स्थानीय स्तर पर अपनी परिभाषाएं हैं। राम नाम की इस पार्टी के स्थानीय नेताओं के मुहं पर सामने तो जी भाई साहब, जी बहन जी का संबोधन चलता है परंतु अगर कोई मन को पढ़ने या उजागर करने वाली मशीन होती तो बताती कि मुहं पर जी और मन में क्या चल रहा है ! जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई जाती है, उसी परिवार या मातृ संगठन के जिम्मेदार और निर्विवाद पदाधिकारी को टिकट से वंचित किया जाता है और निर्दलीय खडे़ होने पर उसें हराने के लिए जमकर प्रयास किए जाते हैं। निगम में भाजपा बिल्कुल कगार पर है। 31 का बहुमत चाहिए और 31 ही हैं। अगर कभी एक भी खिसका तो बोर्ड गया। इसलिए अब निर्दलीयों से संग चलने की उम्मीदें हैं। उम्मीदें कांग्रेस की भी जाग गई हैं। असली हार इसे कहते हैं। हाथ आया निगम बोर्ड अपनी हरकतों से गंवा दिया। तेरी-मेरी करने के बाद भी 22 तक संख्या पहुंच गई। अगर टिकट वितरण में जरा ध्यान दिया जाता और चुनाव मैनेजमेंट किया जाता तो नाम मात्र की मेहनत से ही निगम पर कांग्रेस परचम फहराया जा सकता था। पूरे चुनाव में कोई मुद्दा नहीं था। भाजपा की कोई लहर नहीं थी। कड़ी से कड़ी जोड़ने का रटा रटाया नारा भी नहीं लगाया जा रहा था। भाजपा कार्यकर्ता बुरी तरह हताश थे। दिल से कोई काम नहीं करना चाहता था। ऐसे कई पुराने भाजपा कार्यकर्ता परिणाम से दुखी नहीं बल्कि आश्वस्त की भूमिका में थे। उनके मन की बात जुबान पर थी। कहते फिर रहे थे। इन नेताओं को इतना घमंड आ गया था कि सीधे मुंह बात तक नहीं करते थे, जो हुआ अच्छा ही हुआ, अब आएगी अक्ल। प्रत्याशियो के साथ जो उनकी मित्र मंडली, नाते-रिश्तेदार थे और उनका जो भी सामान्य व्यवहार था। उसी ने उन्हें जीत दिलाई। इन चुनावों ने प्रत्याशियों के मन में गहरी खाई पैदा की है। ज्यादा नहीं तो अगले एक-दो साल तक पार्षदों की शिकायतों का दौर चलेगा। पार्षद भी अब कुछ को निपटाने की कोशिश करते नजर आ सकते हैं। देखा जाए तो फायदे मे ना भाजपा रही ना कांग्रेस। भाजपा को वह बहुमत नहीं मिला जिसके दम पर पूरे पांच साल निश्चित रह सके। कांग्रेस अब पछता रही है कि थोड़ा सा भी ध्यान दे देते तो बोर्ड उनका होता। घाटे में भी कोई नहीं रहा ना भाजपा ना कांग्रेस। भाजपा सोच रही है कि जीत तो जीत होती है भले एक वोट की ही हो। बोर्ड तो बन गया, एक वोट से ही सही। कांग्रेस सोच रही है कि बहुत बुरे रिजल्ट की उम्मीद थी, पर यहां तो इतने आ गए कि मजबूत विपक्ष की भूमिका में आ बैठे। – राजेन्द्र हाड़ा 9829270160

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