सूफी संतों के मजारों तक महिलाओं का जाना कितना सही कितना गलत?

dua– मुजफ्फर अली –
इस्लाम धर्म में महिलाओं का बराबरी का अधिकार चौदह सौ साल पूर्व उस समय दिया था जब अरब देशों में घरों में बेटी पैदा होने पर नवजात को मार कर दफन कर दिया जाता था। बेटी को पिता की संपत्ति में से हिस्सा लेने का अधिकार, विवाह से पूर्व उसकी इच्छा पूछने का अधिकार, विवाह के समय मेहर लेने का अधिकार, तलाक लेने का अधिकार जैसे महत्वपूर्ण अधिकार इस्लाम धर्म में आज भी हैं। यह बात अलग है कि महिलाओं को मिले अधिकारों को मुस्लिम घरों ने कितना अपनाया है। मुबंई में अफगानिस्तान के बुखारा क्षेत्र से आए एक फकीर हाजी अली की दरगाह के आस्ताने में महिलाओं को प्रवेश दिए जाने की मांग को लेकर भूमाता ब्रिगेड की तृप्ति देसाई और भारतीय मुस्लिम महिला परिषद की जाकिया सोमन और नूरजहां सफिया नियाज ने मिलकर एक आंदोलन चलाया है और दो दिन पूर्व ही हाईकोर्ट ने दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को असवैंधानिक बताते हुए प्रतिबंध को गैरजरुरी करार दिया है। दरगाह ट्रस्ट इस फैसले के खिलाफ छह हफते के भीतर देश के उच्चतम न्यायलय में चुनौती देगा तब तक हाईकोर्ट ने अपने फैसले पर अमल होने को रोका है। सवाल यह है कि हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध क्यूं लगाया गया? क्या यह जरुरी था या ऐसा प्रतिबंध दरगाह बनने के बाद से ही लागू है। जवाब है नहीं। बताया जाता है कि कुछ साल पूर्व तक हाजी अली की दरगाह में महिलाएं आस्ताने शरीफ तक जातीं थीं और चादर वगैरह चढाकर दुआ मांगती थी। दरगाह ट्रस्ट ने कुछ सालों में महिलाओं को आस्ताने में जाने से क्यूं रोका है संभवत: जिसका खुलासा वह उच्चतम न्यायलय में पेश करेंगें। फिल्हाल दरगाह ट्रस्ट की ओर से जो बयान आया है उसके मुताबिक इस्लाम में मजारों तक जाना महिलाओं के लिए मना है इसलिए दरगाह ट्रस्ट ने महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाई है। हिन्दुस्तान में बारहवीं सदी में ईरान से आए सूफी संत ख्वाजा मोईनुददीन चिश्ती पहले संत रहे जिन्होने इस्लाम की अच्छाईयों का प्रचार प्रसार करते हुए इस धर्म का स्थापित किया। इस्लाम में गीत संगीत की मनाही के बावजूद कव्वाली प्रांरभ की और अपने उत्तराधिकारियों के माध्यम से देश के विभिन्न हिस्सों में इस्लाम का प्रचार प्रसार करवाया और चिश्तियां खानकाहें बनवाई। अजमेर में ख्वाजा मोइनुददीन चिश्ती की दरगाह , एशिया के मुस्लिमों की सबसे बडी आस्थावान दरगाह कहलाती है जहां हर वर्ग हर धर्म के करोडों लोग अपनी आस्था रखते हैं। अजमेर में ख्वाजा की प्रसिद्व दरगाह में महिलाओं को आस्ताने शरीफ तक जाने और ख्वाजा साहब के पवित्र मजार पर चादर चढाने के लिए कोई मनाही नहीं है। वहां हर धर्म व वर्ग की महिलाएं बेरोकटोक जाती हैं और दुआ, मन्नत मांगती हैं इबादत करती हैं। इतने बडे संत की दरगाह में जब महिलाओं के प्रवेश पर पांबदी नहीं तो हाजी अली की दरगाह में पहले इजाजत फिर पांबदी क्यूं? दरअसल देश भर में कुछ महान संतों की दरगाहें ऐसी हैं जहां प्रारंभ से ही महिलाओं को दरगाह के गर्भग्रह यानि आस्ताने शरीफ में जाने की इजाजत नहीं हैं। अजमेर वाले ख्वाजा गरीब नवाज के पहले उत्तराधिकारी यानि खलीफ सूफी संत हजरत ख्वाजा बख्तियार काकी रह अलेह की महरौली नई दिल्ली स्थित दरगाह में महिलांए आस्ताने शरीफ तक नहीं जातीं और बाहर जाली से ही दुआ मांगती हैं। इसी तरह दिल्ली के ही विश्वप्रसिद्व ख्वाजा निजामुददीन चिश्ती की दरगाह में भी महिलाओं को आस्ताने शरीफ में जाने की इजाजत नहीं हैं। यह कुछ उदाहरण है ऐसी अनेक सूफीयों की दरगाहें हैँ जहां महिलाएं आस्ताने शरीफ तक नहीं जातीं। यहां यह समझना भी जरुरी है कि इस्लाम में पुरुष और महिलाओं के जीवन को सीमाओं में भी बांधा हैं। दोनों वर्ग के समान अधिकार है लेकिन अपने दायरे मेेें रहकर दिए गए हैं। जैसे पुरुषों का पत्नि, बेटी, मां, बहन के अतिरिक्त पराई या अजनबी औरत के प्रति कोई लगाव या संबध नहीं रखना तो महिलाओं को भी पति, भाई, पिता व बेटे के अतिरिक्त अजनबी या पराए पुरुषों से कोई संबध नहीं रखना जिसके लिए उन्हे पर्दा दिया गया। इन्ही सिद्वांतों पर चलते हुए अनेक इस्लामी सूफी संतों ने अपने जीवनकाल में दूसरी औरतों से दूरी बनाए रखी तो अनेक संतों ने तमाम उम्र ईश्वर की इबादत कुवांरे रहकर ही बिता दी। इस्लाम के अलावा दूसरे धर्मो में भी संतों और ऋषि मुनियों ने महिलाओं से संबध नहीं रखकर ईश्वर भक्ति की है। कालान्तर में संभवत: ऐसे सूफीयों संतों की दरगाहें बनने के बाद संबधित सूफी संत की खिदमत करने वाले सेवकों ने आस्ताने शरीफ जहां सूफी दफन है, महिलाओं का जाना मना कर दिया गया। हांलाकि आज सैकडों ऐसी सूफीयों की दरगाहें हैं जिनकी जीवनी के बारे में पुख्ता जानकारी नहीं मिलती। लेकिन हिन्दुस्तान में इस्लाम की कटटरता को यहां के सहिष्णुता के माहौल में ढालने वाले महान सूफी ख्वाजा मोइनुददीन चिश्ती का दरबार ख्वाजा साहब के खिदमतगुजार खादिमों ने पुरुष और महिला दोनों के लिए खुला रखा है। पिछले आठ सौ सालों से ख्वाजा गरीब नवाज के दरबार में खादिम पुरुष व महिलाओं को बराबर जियारत करवातें हैं , चादर चढवाते हैं, उनके लिए दुआंए मागंते हैं। यहां तक कि ख्वाजा के खादिमों में श्रीमति अजीजा चिश्ती नामक महिला खादिम भी हैं जो पुरुषों व महिलाओं को आस्ताने शरीफ में जियारत करवाती हैं।यह सही है कि ईश्वर की राह मेें चले सूफी संतों की नजरों में सब बराबर है लेकिन जिनके जीवनकाल में ही महिलाओं से दूरी बनाई हो या कोई संपर्क ना रहा हो तो उनकी समाधि या मजारों पर महिलाओं का जाना कितना उचित है यह महिलांए स्वंय ही निर्णय ले सकती हैं। ऐसी दरगाहों पर दुआंए या इबादत आस्ताने शरीफ के बाहर रहकर भी मांगी या की जा सकती हैं।

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