महात्मा गांधी मरे नही , महात्मा गांधी मरते नही

gandhi jiकुछ पैसे वाले लोग महात्मा गांधी पर बहुत से गलत इल्जाम लगाते हैं और गलत टिप्पणी करते हैं, परंतु समाज कल्याण को लेकर गांधी की विचारधारा अतुलनिय है और गरीब वर्ग को समर्थित है…अमीर वर्ग नही चाहता कि गांधी के ये विचार आम आदमी तक पहुँचे और उसमे जागृति आये…इसलिये समाज के युवा वर्ग में गांधी के खिलाफ़ जहर घोला जा रहा है, ताकि लोग भ्रमित होकर पूंजीपति और नेताओ के पीछे भागते रहे और अपना अधिकार ना माँगे…

गाँधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साधन है। यह राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करती है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाए कि आत्मनियमित हो जाऐं तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है, कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता। गाँधी ने उसे ‘‘प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति’’ कहा है। यही ‘राम राज्य’ है।टॉलस्टॉय ने इसे ‘‘पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य’’ कहा है।

गाँधी का राज्याविहीन, वर्गविहीन समाज अनेक स्व-शासित तथा आत्मनिर्भर ग्राम-समुदायों में विभक्त होगा। प्रत्येक ग्राम-समुदाय का प्रशासन पाँच व्यक्तियों कीपंचायत चलाएगी, जो ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होगी। ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त होंगी। ग्राम पंचायतों के ऊपर मंडलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिलों के ऊपर प्रान्तों की पंचायते होंगी। सबसे ऊपर सारे राष्ट्र के लिए केन्द्रीय (संघीय) पंचायत होगी। प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलम्बी होगा। सैनिक-शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर, कानूनी अदालतें, कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गाँव स्वयंसेवी रूप से संघ से सम्बद्ध होगा। गांधी ने इसे ‘वास्तविक स्वराज्य’ कहा है।

गाँधी के अनुसार सत्याग्रह व्यक्तियों, वर्गों तथा राष्ट्रों के मध्य शोषण तथा दमन का प्रतिरोध करने का प्रभावपूर्ण यंत्र है।

गाँधी का मत था कि राज्यविहीन तथा वर्गविहीन अहिंसक समाज की स्थापना का लक्ष्य सहज रूप से प्राप्त नहीं होगा। अतः राज्य को तत्काल समाप्त करना ठीक है। फलतः उनका लक्ष्य राज्य को अहिंसा के सिद्धांतो के अनुरूप ढालना है। अहिंसक राज्य में सामाजिक व्यवहार को नियमित करने हेतु एक प्रकार की सरकार तथा राजनीतिक सत्ता होगी, किन्तु वह कम से कम शासन करेगी, क्योंकि सामाजिक जीवन आत्म नियमित होगा। व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होगी। अधिकांश कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होंगे।

गाँधी का जनतांत्रिक समाज एक समाजवादीराज्य होगा। भागवत पुराण से प्रभावित होने के कारण उनका मत था कि –

‘‘सम्पत्ति धारण करने का अर्थ है, भविष्य के लिए पूर्वयोजना बनाना। एक सत्य का खोजी… कल के लिए कुछ नहीं रखता….. सम्पन्न व्यक्तियों के पास वस्तुओं का अतिरिक्त भण्डार होता है, जबकि करोड़ों व्यक्ति भरण-पोषण के अभाव में भूखों मरते हैं। यदि मनुष्य अपने पास इतना ही रखे, जितना आवश्यक है तो कोई भी अभावग्रस्त नहीं होगा तथा सभी सन्तुष्ट जीवन जी सकेंगे।’’

गाँधी निजी सम्पत्ति के समापन के पक्ष में नहीं हैं किन्तु आर्थिक समानता लाना चाहते हैं। आर्थिक समानता से तात्पर्य है-सभी के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन, आवास तथा तन ढकने के लिए खादी। वह स्वदेशी का पक्ष लेते हुए कुटीर व लघु उद्योग तथा खादी उद्योगों के विकास पर बल देते हैं।

गाँधी ने प्रौद्योगिकी प्रधान उद्योगों या मशीनों द्वारा उत्पादन का विरोध किया तथा इसके स्थान पर श्रम प्रधान उद्योगों को वरीयता दी। उनके अनुसार उत्पादन लोगों द्वारा किया जाए, फैक्ट्रियों द्वारा नहीं। गाँधी ने ‘श्रम-सिद्धांत’’ के अन्तर्गत यह शिक्षा दी कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं में योगदान देना चाहिए। चूँकि इसमें प्रत्येक प्रकार की सेवा (चाहे नाई हो या वकील) या श्रम को एक जैसा सम्मान दिया जाएगा, इसलिए श्रम की गरिमा स्थापित होगी तथा वर्गीय भेद मिट जाने से ‘वर्गविहीन’ समाज की स्थापना होगी।

गाँधी के अनुसार पूँजीपति स्वयं को सम्पत्ति का स्वामी न समझकर ट्रस्टी या न्यासी समझें। जो सम्पत्ति उनके पास है, उसे वे समाज की धरोहर समझें। उसमें से वे अपने लिए उतना ही व्यय करें, जिनकी उनकी सेवाओं के लिए उपयुक्त है, शेष समाज को लोटा दें अर्थात् निर्धनों में बाँट दें।

उत्पादन का लक्ष्य मुनाफा ने होकर सम्पूर्ण समाज का हित होना चाहिए। श्रमिकों की प्रबन्ध में भागीदारिता होनी चाहिए। यदि पूँजीपति ट्रस्टी बनना स्वीकार न करें, तो कानून द्वारा राज्य को भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों पर नियंत्रण कर लेना चाहिए।

सामान्य हित या सर्व कल्याण की दृष्टि से गाँधी ने सर्वोदय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यह सिद्धांत ऐसी नीति का समर्थन करता है, जिसका उद्देश्य जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, स्त्री-पुरूष, ऊँच-नीच आदि के भेदभाव मिटाकर समाज के सभी स्तरों पर कल्याण कार्य को बढ़ावा देना है। यह परस्पर सहयोग व सद्भावना का विकास करेगा।

गाँधी के सर्वोदय का सिद्धांत राज्य के लक्ष्य का सिद्धांत है। उपयोगितावादी चिंतक बैंथम तथा जे.एस. मिल जहाँ ‘‘अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण’’ के पक्ष में थे, वहीं जॉन रसकिन ने ‘‘सबसे अन्तिम या उपेक्षित अल्पसंख्यक’’ (अन्तयोदय) का पक्ष लिया। गाँधी ने इन दोनों सिद्धांतों के सम्मिश्रण से एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे सर्वोदय या ‘‘समाज के सभी लोगों के उत्थान या कल्याण’’ का सिद्धांत कहा जाता है। बाद में विनोबा भावे ने इसी सिद्धांत का अनुसरण किया।

गाँधी परम्परागत अर्थ में न तो राजनीतिक चिन्तक थे और न ही सिद्धांत निर्माता थे, किन्तु वह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अग्रदूत तथा श्रेष्ठ समाज सुधारक थे। एक ओर सत्य और अहिंसा के आधार पर उन्होंने असहयोग, सविनय अवज्ञा तथा भारत छोड़ो आन्दोलन का नेतृत्व किया, दूसरी ओर जातिवाद, साम्प्रदायिकता तथा छुआ-छूत के विरुद्ध अभियान चलाया। मैकयावली के विपरीत उन्होंने राजनीति व नैतिकता में सम्बन्ध स्थापित कर साधन व साध्य में सम्बन्ध स्थापित किया। पाश्चात्य उदारवादियों की तरह उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा प्रतिनिधियात्मक प्रजातंत्र में विश्वास जताया। राज्य के उद्देश्य के रूप में उनकी सर्वोदय की संकल्पना महत्त्वपूर्ण है। कर्मयोगी होने के नाते गाँधी श्रम की गरिमा मे विश्वास रखते थे।

गाँधी की वर्गहीन तथा राज्यविहीन समाज की परिकल्पना अव्यवहारिक प्रतीत होती है। स्वयं गाँधी भी इसे स्वीकार करते हैं। किन्तु उनके राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण, ग्रामीण स्वयत्तशासी व्यवस्था एवं रोजगार, स्वदेशी आदि सम्बन्धी विचारों के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनके सत्याग्रह, स्वराज तथा सर्वोदय के सिद्धांतों का राजनीतिक दर्शन में महत्त्वपूर्ण योगदान है…

आज भी आपने समाज में देखा होगा, नेता अपने जन्मदिन पर लाखो रुपए खर्च कर देते हैं, ब्लड डोनेशन केम्प लगाते हैं, परंतु जब किसी गरीब को खून की जरुरत होती है ये नेता खून दिलाने सामने नही आते और ना ही सीमा पर देश के लिये खून बहाने इनके बच्चे जाते हैं| वहाँ तो किसान का बेटा ही मरता है… नेताओ के बेटे तो राजनीति में आकर ही देशसेवा कर लेते हैं …

नेता के जन्मदिन पर अखबार में लाखों के विग्यापन, भारी भारी मालाये और लाखो रुपए के दिखावटी खर्च… इन नेताओ को किसानो के खेत नही दिखते जिनमे पानी भरा है और किसान की फ़सल चौपाट है , बेरोजगार युवा नही दिखते जो इनकी जय जयकार के नारे लगाते हैं, नहरो में पानी नही, किसान को फ़सल का सही दाम नही , पुलिस , पटवारी, शिक्षा और अस्पताल का भ्रस्टाचार भी इन नेताओ को नज़र नही आता…
इन नेताओ को क्यों नज़र आये, उनको अपनी जय जयकार से मतलब … आम आदमी मरता है पिसता है, मरता रहे, पिसता रहे…

आज फिर हमे गांधी की समानता और अन्तोदय के विचारो की जरूरत है, तभी समाज के गरीब वर्ग को राहत मिल सकती है …

हम सबमे गांधी है, हम सब गांधी हैं …

जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिये…
मनुदेव सिनसिनी
उप प्रधान डीग
9024901175

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