वसुंधरा ही भाजपा, भाजपा ही वसुंधरा, भई वाह

राजस्थान के पूर्व मंत्री राजेन्द्र सिंह राठौड़ ने पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के प्रति अपनी स्वामी भक्ति का इजहार करते हुए एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। चाटुकारिता की पराकाष्ठा को पार करते हुए उन्होंने पार्टी की सारी मर्यादा व अनुशासन को ताक पर रख कर यह कह दिया कि राजस्थान में भाजपा की राजनीति का प्रारंभ वसुंधरा राजे से होता है और उन्हीं पर समाप्त हो जाता है। यहां राजे ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा राजे।
आपको याद होगा कि कभी इसी किस्म का जुमला जब कांग्रेस वाले कहते थे कि इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा तो सभी को बड़ा बुरा लगता था। हो सकता है कि राठौड़ के इस वक्तव्य से वसुंधरा के अंध भक्त सहमत हों, मगर अनेक भाजपाइयों को ही यह गले नहीं उतर रहा। पूर्व प्रदेशाध्यक्ष गुलाब चंद कटारिया ने तो हाथों हाथ कह ही दिया कि पार्टी से बड़ा कोई नहीं है और ऐसी गलतफहमी किसी को होनी भी नहीं चाहिए।
बेशक, आज राजस्थान में वसुंधरा का अपना कद इतना बड़ा हो गया है कि उनका कोई सानी नहीं, मगर वे पार्टी से भी बड़ी हो गई हैं, इसको लेकर कार्यकर्ताओं को आपत्ति है। अनुशासन के मामले में नंबर वन मानी जाने वाली भाजपा में, जिसमें कि पार्टी को सर्वोपरि माना जाता है, जिसमें जिन्ना के बारे में एक मामूली शिष्टाचार युक्त वक्तत्व देने पर राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी को इस्तीफा देना पड़ जाता है, उसमें अगर कोई वसुंधरा को भाजपा के समकक्ष ला कर खड़ा कर देता है, तो चौंकने वाली बात ही है कि आखिर पार्टी आखिर किस ओर जा रही है। ऐसे में अगर मीडिया वाले ये कयास लगाते हैं कि वसुंधरा अलग पार्टी भी बना सकती हैं, तो उसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे में अगर संघ को वसुंधरा व उनके कट्टर समर्थकों के रंग ढंग पर आपत्ति होती है, तो वह वाजिब ही है।
बेशक, जैसा कि राठौड़ कह रहे हैं कि पार्टी को वसुंधरा राजे की माताश्री विजयराजे सिंधिया ने अपने खून-पसीने से सींचा है, पूरी तरह से सच है। जिस वक्त पार्टी ने सत्ता का स्वाद नहीं चखा था, तब पार्टी की आर्थिक स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं थी। तब विजयाराजे ही एक मात्र ऐसी नेता थीं, जिन्होंने पार्टी को आर्थिक संबल प्रदान किया। पार्टी की इस सेवा का स्वयं वसुंधरा भी भिन्न शब्दों में इजहार कर चुकी हैं। स्वयं मुख्यमंत्री रहते हुए वसुंधरा राजे ने भी पार्टी को खूब सींचा, जिसके चक्कर में उन पर भ्रष्टाचार के आरोप तक लगे, मगर इसका कत्तई अर्थ ये नहीं निकलता कि वे और भाजपा एक दूसरे के पर्याय हैं। इसे अगर दंभ की संज्ञा दी जाए तो गलत नहीं होगा। यदि यही रवैया रहा तो पार्टी की रीति-नीति और विचारधारा के लिए काम करने वाला आम कार्यकर्ता आहत होगा। और वह जिस दिन मुंह फेर लेगा, बड़े से बड़ा नेता भी कहीं का नहीं रहेगा।
-तेजवानी गिरधर

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