क्या राज्यपाल के अभिभाषण की परंपरा पर पुनर्विचार होना चाहिए?

राजस्थान की सोलहवीं विधानसभा में पहले सत्र में राज्यपाल का अभिभाशण संपन्न हो गया, इतिहास में दर्ज भी हो गया, चंद दिन बाद उसे लोग भूल भी जाएंगे, हद से हद वर्तमान सत्र तक चर्चा में रहेगा। मगर चंद सवाल पीछे छूट गए हैं। वो यह कि क्या अभिभाशण की परंपरा पर फिर से विचार करने की जरूरत है? असल में राजस्थान की सोलहवीं विधानसभा में पहले सत्र में राज्यपाल के अभिभाशण पर बुद्धिजीवियों में एक विमर्ष षुरू हो गया है। ऐसा इसलिए कि अभिभाशण की विशय वस्तु ही ऐसी थी। निश्पक्ष संवैधानिक पद बैठे राज्यपाल के श्रीमुख से राजनीतिक मुद्दे पढवा लिए गए। ज्ञातव्य है कि राज्यपाल जो अभिभाशण पढते हैं, उसे सरकार की ओर से तैयार किया जाता है। राज्यपाल सिर्फ पढते मात्र हैं। हालांकि वे चाहें तो उसमें तनिक संषोधन कर सकते हैं, मगर आम तौर पर ऐसा करते नहीं हैं। सवाल ये है कि क्या उन्हें अभिभाशण में संषोधन का पूरा अधिकार नहीं होना चाहिए? राज्यपाल के हाथों सत्र आरंभ करवाने के लिए क्या अभिभाशण का स्वरूप स्वागत भाशण जैसा होना चाहिए, जिसमें वे विधायकों को दिषा निर्देष दें? विचारणीय है कि क्या राज्यपाल से अभिभाशण पढवाना बहुत जरूरी है? और यदि जरूरी है तो क्या उसकी विशयवस्तु पर पुनर्विचार करने की जरूरत है? ताकि उनकी संवैधानिक गरिमा बरकरार रहे। ताजा अभिभाशण में सरकार की भावी योजना के अतिरिक्त जिस प्रकार पूर्ववर्ती सरकार पर आरोप थे, उन्हें सुन कर ऐसा विचार आया कि क्या ऐसा करवाना उचित था? अभिभाशण दिलवाने की परंपरा में कैेसी विसंगति है कि पहले उनके मुख से जिस सरकार की तारीफ करवाई जाती है, सरकार बदलने पर उसी पर आरोपों की झडी लगवाई जाती है। सुनने वालों को तो अटपटा लगा ही होगा, स्वयं राज्यपाल भी असहज महसूस करते होंगे। बेषक वे एक स्थापित परंपरा का पालन कर रहे होते हैं, मगर उनकी स्थिति कितनी विडंबनापूर्ण है। यदि उनके माध्यम से सरकार के विजन की बता कहलाई जाए तो ठीक है, मगर पिछली सरकार को पूरी तरह से नकारा कहलवाना संवैधानिक पद पर पर बैठे व्यक्ति के लिए कितना उचित है? इस तरह की विशय वस्तु मुख्यमंत्री अथवा मंत्री व विधायक प्रस्तुत करें तो समझ में आता है। उसे कोई अन्यथा भी नहीं लेता। उसे स्वाभाविक व सहज रूप में लिया जाता है, क्योंकि उन्हीं मुद्दों के आधार पर वे सत्ता में आते हैं। एक अहम सवाल यह भी उठता है कि अगर पिछली सरकार में अराजकता थी, तो उसे नियंत्रित करने के लिए दिए गए अधिकार नाकाफी हैं। मौजूदा राज्यपाल के पिछली सरकार के दौरान के अभिभाशणों को देखिए, जो कि रिकार्ड पर मौजूद हैं, उन्होंने किस प्रकार सरकार की ओर से तैयार डाफट में योजनाओं का तारीफ की है। दूसरी ओर उन्हीं राज्यपाल के मुख से पिछली सरकार योजनाओं की नाकामियां गिनवा दी गईं। बहरहाल, राज्यपाल जैसे निश्पक्ष व तटस्थ व्यक्ति को विवादास्पद बनाने से बेहतर है कि उनसे अभिभाशण पढवाया ही नहीं जाए। इसके बजाय अभिभाशण मुख्यमंत्री से पढवाया जाए। वे उसमें चाहे जितने आरोप लगाएं, किसी को अटपटा नहीं लगेगा।
कुल जमा मुद्दा यह नहीं है कि राज्यपाल ने पूर्ववर्ती सरकार की आलोचना क्यों की, मुद्दा यह है कि राज्यपाल पद की गरिमा बनाए रखने के लिए अभिभाशण की परंपरा पर क्या पुनर्विचार किया जाना चाहिए? सदेच्छा यही है कि राजनीति किसी भी दिषा में जाए, राज्यपाल की महिमा पर आंच नहीं आनी चाहिए।

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