आडवाणी के बिगडैल संस्करण हैं मोदी

prem singh-डॉ. प्रेम सिंह- जहाँ तक नवउदारवाद की स्वीकृति का मामला है, भारत की मुख्यधारा राजनीति में कोई विपक्ष नहीं है। नवउदारवाद के पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी काँग्रेस है और दूसरे नम्बर की भाजपा है। बाकी के दल काँग्रेस की अगुआई वाले संप्रग और भाजपा की अगुआई वाले राजग में शामिल हैं तथा मौका देख कर इन गठबंधनों के बीच आवाजाही करते रहते हैं। उनके इस चलन से काँग्रेस और भाजपा दोनों परेशानी का अनुभव करते हैं। इसीलिये मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी कहते हैं कि देश में काँग्रेस और भाजपा दो पार्टियाँ रहनी चाहिये। भाजपा प्रमुख विपक्षी पार्टी इस नाते है कि वह नवउदारवाद के पक्ष में दूसरे नम्बर की बड़ी पार्टी है और साम्प्रदायिक राजनीति में अव्वल नम्बर की। वह आगे आयेगी तो काँग्रेस को दूसरे नम्बर पर जाना होगा। संघ/ भाजपा का मानना है कि वे इस देश के बारे में बखूबी जानते हैं; खास कर उसके ‘महान’ अतीत के बारे में। वे अतीत पर इस कदर मोहित रहते हैं कि आजदी के संघर्ष में हिस्सा लेकर अपना ‘मोहभंग’ करना उन्होंने गवारा नहीं किया! अतीत के प्रेमियों को वर्तमान में ‘कैद’ नहीं होना चाहिये, इसलिये यरवदा जेल से आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस ने इन्दिरा गाँधी को चिठ्ठियाँ लिखीं कि आरएसएस से प्रतिबन्ध हटा लिया जाये और उसके स्वयंसेवकों को रिहा कर दिया जाये तो वे ‘राष्ट्रीय उत्थान’ के काम में सरकार के आदेश का पूरी तरह पालन करेंगे।

भाजपा के सक्रिय नेताओं में लालकृष्ण अडवाणी शीर्षस्थ हैं। देश के सामने जो भी समस्यायें हों, भले ही हाहाकार मचा हो, उन्हें केवल संघियों के आत्म-गौरव की फिक्र खाये जाती है। उन्होंने अभी कहा है कि भाजपा के नेता-कार्यकर्ता राम मन्दिर आन्दोलन पर गर्व अनुभव करें। जाहिर है, उस आन्दोलन की पूर्णाहुति बाबरी मस्जिद के ध्वंस और उसके बाद दंगों में मारे गये निर्दोष नागरिकों पर भी गर्व करना है। उस दौरान जो भाले-बरछे लहराये गये, मुसलमानों को गालियाँ दी गईं, वे भी सब गर्व करने की बातें हैं। आजकल उनकी नरेंद्र मोदी से रेस चल रही है। शायद वे कहना चाहते हैं कि हिन्दुत्ववादी गर्व के मामले में उनका कद/ काम मोदी से कहीं बड़ा है। उन्होंने पूरे देश में जो ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ की पुकार लगायी थी, उसके सामने एक प्रान्त का गौरव भला कहाँ ठहरता है! कहना न होगा कि जो राममन्दिर आन्दोलन पर गर्व नहीं करते, वे अडवाणी के भारत में नहीं आते। पूरा जीवन राजनीति करने के बाद 85 साल के नेता की यह समझ है! फर्जीपन का रोग इलाकाई क्षत्रपों को भी लग चुका है। मुलायम सिंह अडवाणी के नए प्रशंसक बन कर सामने आये हैं। अपने बेटे को जीते-जी मुख्यमन्त्री बना कर भी वे संन्यास लेने के मूड में नहीं हैं। खुद प्रधानमन्त्री बनना चाहते हैं और बाकी रिश्तेदारों को भी ऊँचे ओहदे दिलवाना चाहते हैं। संघ के शत्रुओं की फेहरिस्त में एक समय टॉप पर रहे मुलायम सिंह यह मान बैठे हैं कि अडवाणी प्रधानमन्त्री की रेस से बाहर हैं और उनकी कुछ मदद कर सकते हैं। उन्हें शायद जॉर्ज की तरह मुगालता है कि संघ परिवार प्रधानमन्त्री के लिये उन्हें आगे कर सकता है। वे भूलते हैं कि संघ परिवार देश के सबसे बड़े यानी ‘हिन्दू परिवार’ की राजनीति करता है, न कि मुलायम सिंह की तरह अपने परिवार की।

मुलायम सिंह कहते हैं अडवाणी जी ने विभाजन के चलते बहुत सहा है। देश का विभाजन, जिसमें अडवाणी की पितृसंस्था की भी बड़ी भूमिका थी, एक ऐसी त्रासदी थी जिसकी मिसाल दुनिया में अभी तक नहीं मिलती। विभाजन के दौरान असंख्य लोग तबाह हुये। 10 लाख लोग मारे गये। मनुष्यता की सारी हदें टूट गयीं। उस दौरान अडवाणी ने भी बहुत कुछ सहा हो सकता है। इसके लिये उनके प्रति सहानुभूति भी होनी चाहिये। लेकिन सवाल है कि उन्होंने सबक क्या सीखा? एक नेता के नाते वे साम्प्रदायिकता की राजनीति को हमेशा के लिये खत्म करने की भूमिका ले सकते थे। लेकिन उन्होंने पूरा जीवन साम्प्रदायिकता बढ़ाने में लगा दिया और आज भी वही कर रहे हैं। अनेक लोगों ने आजादी के संघर्ष और आजादी के बाद भी बहुत सहा है। तभी देश को आजादी मिली, जिसे नवउदारवादियों ने खतरे में डाल दिया है। मुलायम सिंह अडवाणी के दुखों पर द्रवित होते वक्त लोहिया का ही उदाहरण सामने रख लेते, जिन्हें भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान लाहौर किले में अमानुषिक यातनाएं दी गयी थीं। आजादी के बाद वे सबसे ज्यादा बार जेल में डाले जाने वाले नेता थे। जेल जाना लोहिया के राजनीतिक संघर्ष का अविभाज्य हिस्सा था। लिहाजा, उन्होंने कभी इसकी शिकायत नहीं की। लेकिन एक बार उन्हें कहना पड़ा कि नेहरू की पुलिस ने उनके साथ बदसलूकी में अंग्रेजों की पुलिस को पीछे छोड़ दिया।

अडवाणी आजादी के आन्दोलन में हिस्सेदार नहीं थे कि उन्हें कुछ सहना पड़ता। वे सिंध इलाके से सुरक्षित और सुभीते से पाकिस्तान से भारत आये। कराची में वे पहले से आरएसएस के सदस्य थे और 1947 में आरएसएस के सचिव चुने गये थे। तभी आरएसएस की तरफ से उन्हें दंगों का जायजा लेने के लिये राजस्थान भेजा गया था। 1951 में जब जनसंघ का गठन हुआ तो वे उसके सदस्य बन गये। उन्होंने बैठे-ठाले की हिन्दुत्ववादी राजनीति की है, जिसमें अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काऊ बयान देने के अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं होती। ज्यादा कुछ करना हो तो पाकिस्तान की कड़े शब्दों में भर्त्सना कर दो। आगे हम देखेंगे कि यही अडवाणी संघ/ भाजपा के प्रधानमन्त्री पद के दावेदार हैं। भाजपा में अडवाणी के बाद अब नरेंद्र मोदी का नाम आता है। नरेंद्र मोदी की चर्चा का बाजार आजकल काफी गरम है। उनका बोलना सुनें तो रामदेव की तरह उनके पास हर मर्ज की दवा है। किसी भी सवाल के जवाब में उन्हें रामदेव की तरह ही सोचने-विचारने के लिये पल भर भी रुकना नहीं पड़ता। वे जताते हैं कि मनमोहन सिंह कुछ नहीं जानते और वे सब कुछ जानते हैं। जाहिर है, जानने से उनका मतलब बोलने से होता है। यानी मनमोहन सिंह कुछ नहीं बोलते तो कुछ नहीं जानते, नरेंद्र मोदी खूब बोलते हैं तो सब कुछ जानते हैं। लेकिन वाचालता उन्हें मनमोहन सिंह से बड़ा नहीं बना देती। मनमोहन सिंह असली फर्जी हैं, जिनके सामने नरेंद्र मोदी, कॉरपोरेट जगत की लाख अभ्यर्थना करने के बावजूद, हमेशा नकली फर्जी रहेंगे। कह सकते हैं कि अडवाणी अगर वाजपेयी के बिगड़ैल संस्करण हैं तो नरेंद्र मोदी, अडवाणी के। नरेंद्र मोदी पर कुछ विस्तार से चर्चा करते हैं। वे अडवाणी से अलग अपनी एक योग्यता – कॉरपोरेट घरानों को रिझाने की कवायद – का जम कर प्रदर्शन कर रहे हैं कि कॉरपोरेट जगत उन्हें अपना उम्मीदवार बना ले। कॉरपोरेट जगत कभी कच्ची गोली नहीं खेलता। वह पूरी गारंटी चाहेगा कि भाजपा का भविष्य का यह नेता पार्टी को छुटभैये व्यापारियों की हित-पोषक नहीं बनी रहने देगा; नवउदारवादी फैसलों को पूरी तरह और तेजी से लागू करेगा।

मीडिया नरेंद्र मोदी का पूरा साथ दे रहा है। मीडिया की चर्चा में वही शख्स, विचार, घटना रहती है जिसकी नाल नवउदारवाद के साथ जुड़ी हो। भारत का मुख्यधारा मीडिया हर उस शख्स अथवा आन्दोलन को सिर पर उठा लेता है,जो परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर कॉरपोरेट पूँजीवादी व्यवस्था को बचाने और मजबूत बनाने का काम करते हैं। ऐसा करते वक्त भले ही वे साम्प्रदायिकता, जातिवाद, परिवारवाद-वंशवाद, क्षेत्रवाद आदि को बढ़ावा देते हों और अंधविश्वास व अपसंस्कृति फैलाते हों। नब्बे के दशक की शुरुआत, जब संविधान की अवहेलना करके देश की अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेट पूँजीवाद के शिकार के लिये खोला गया, मीडिया का यह चरित्र बनने लगा और पिछले एक दशक में परवान चढ़ चुका है। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से लेकर मोदी के अंध समर्थन तक उसकी यह भूमिका देखी जा सकती है। राजनीति फर्जी होगी तो मीडिया भी फर्जी होता जायेगा। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के एक अगुआ बाबा रामदेव ने हाल में खुल कर भाजपा नेतृत्व को सलाह दी है कि वह मोदी को प्रधानमन्त्री का उम्मीदवार बनाये। पिछले दो सालों में देश की जनता यह देख चुकी है कि रामदेव, अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का, वर्चस्व की आपसी लड़ाई के बावजूद, एक ही घराना है। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के दौरान तीनों घी-शक्कर थे और आन्दोलन की समाप्ति के उपरान्त भी तीनों के तार कई तरह से आपस में जुड़े हुये हैं। सभी ने देखा कि गुजरात का चुनाव मोदी ने तीसरी बार आसानी से जीत लिया, लेकिन इन तीनों बड़बोलों में से किसी ने उस चुनाव में मोदी के खिलाफ चुंकार तक नहीं की। स्वाभाविक है कि मीडिया को ये तीनों नरेंद्र मोदी की तरह ही प्यारे हैं।

मीडिया में मिली तेज उछाल से नरेंद्र मोदी पूरे उत्साह में है। उनका उत्साह और बढ़ जाता है जब यूरोप और अमेरिका को उनमें दूसरा मनमोहन सिंह नजर आने लगता है। वे यूरोपियन यूनियन के कारकूनों के साथ मुलाकात और खान-पान करते हैं। मीडिया सारी घटना को इस तरह परोसता है, मानो वे लोग आधिकारिक तौर पर ‘भारत के भावी प्रधानमन्त्री’ से मिलने आये हों। यह सच्चाई जनता की निगाह से छिपा ली जाती है कि वह मुलाकात मोदी और उनके हिमायती गुट द्वारा प्रायोजित थी। साम, दाम,दंड, भेद; छल, कपट, झूठ, फरेब, षड़यंत्र – आरएसएस के हिन्दुत्व में सब कुछ चलता है। कुछ बुद्धिजीवियों को यह देख कर सदमा लगता है कि दुनिया को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, कानून का शासन, सबको समान न्याय आदि का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका और यूरोपियन यूनियन भला नरेंद्र मोदी का समर्थन कैसे कर सकते हैं? पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की परंपरा में पगे ये भले लोग आज भी मानने को तैयार नहीं हैं कि यूरोप और अमेरिका की ये चिन्ताएं खोखली हैं। मुनाफा और वर्चस्व बनाए रखने के लिये वे एक से बढ़ कर एक तानाशाह और कातिल को अपना समर्थन देते रहे हैं। बस, उनके आर्थिक और सामरिक वर्चस्व को बाकी दुनिया में चुनौती नहीं मिलनी चाहिये। अगर कोई वैसी हिमाकत करता है तो उसे नेस्तनाबूद कर दिया जाता है। हम यह इसलिये कह रहे हैं कि फर्जी राजनीति और आन्दोलन को फर्जी मीडिया किस तरह से परोसता है और फर्जी नागरिक समाज किस तरह लौकता है। भारत समेत ज्यादातर तीसरी दुनिया के लोगों ने अपने हाल और मुस्तक्विल के बारे में खुद सोचना और फैसले लेना बंद कर दिया है। हमारे सारे फैसले यूरोप और अमेरिका में लिये जाते हैं। भारत में हम केवल अपना धर्म, जाति और इलाका निभाते हुये उन फैसलों के नीचे जीते-मरते हैं। भारत के कॉरपोरेट घरानों और यूरोप-अमेरिका का नरेंद्र मोदी के समर्थन का मंसूबा साफ है – भारत के सभी राज्य ‘गुजरात माॅडल’ की रोशनी में अपना विकास करें, यानी संविधान को पीछे और कॉरपोरेट घरानों और यूरोप-अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आगे रख कर चलें। उन्हें इससे एक और फायदा है। कॉरपोरेट पूँजीवाद जितना बढ़ेगा, हिंसक प्रतिरोध भी उतना ही बढ़ेगा। (क्योंकि कॉरपोरेट पूँजीवाद के उत्पाद एनजीओ और सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट वास्तवकि राजनीतिक प्रतिरोध की जमीन तैयार नहीं होने देते। उन्होंने मिल कर अब आम आदमी के नाम पर एक राजनीतिक पार्टी ही बना ली है।) हिंसक प्रतिरोध को दबाने के लिये विदेशी कंपनियों का सुरक्षा बलों व खुफिया एजेंसियों को विशेषज्ञता, तकनीक, उपकरण और हथियार बेचने का मुनाफे का सौदा तेज होगा।

कहने की जरूरत नहीं कि नरेंद्र मोदी का बहुप्रचारित ‘गुजरात मॉडल’ हिन्दुत्व की प्रयोगशाला में ढल कर निकला है। ‘गुजरात मॉडल’ फैलेगा तो कट्टरपंथ भी फैलेगा। उससे निपटने के लिये भारत की सरकारों को और उपकरणों और हथियारों की जरूरत होगी। कट्टरपंथियों को भी उपकरण और हथियार चाहिये होते हैं। नवसाम्राज्यवादी निजाम वह खुशी-खुशी उपलब्ध करायेगा। कट्टरपंथियों को हथियारों की ऐसी चाट लगा दी गयी है कि वे अपने शरीरों को भी हथियार बना लेते हैं। यहपूँजीवादी निजाम दो मजबूत पहियों पर चलता है – बाजार और हथियार। नरेंद्र मोदी दोनों की गारंटी देने के लिये कॉरपोरेट घरानों और यूरोपी-अमेरिकी नेतृत्व के सामने कठपुतली की तरह नाच रहे हैं। इस कदर कि विदूषक लगने लगे हैं। मनमोहन सिंह को कॉरपोरेट पूँजीवाद का रोबो (मशीन) कहा जा सकता है तो नरेंद्र मोदी की छवि कॉरपोरेट पूँजीवाद के विदूषक की बनी  है। हमने कुछ महीने पहले लिखा था कि आरएसएस एक सोची-समझी रणनीति पर काम कर रहा हो सकता है। नरेंद्र मोदी को वह इसीलिये टिटकारी दिये हुये है कि वह संघ परिवार का भविष्य का राष्ट्रीय नेता है। पिछले 20-25 सालों का नवउदारवादी दौर आरएसएस को सबसे ज्यादा फला है। इस बीच कॉरपोरेट-सेवी युवाओं की जो फसल तैयार होकर आयी है, वह ज्यादातर अंधविश्वासी और साम्प्रदायिक है। उसका भारत के संविधान और आजादी के संघर्ष, और सह-अस्त्तिव की विरासत से कोई वास्ता नहीं है। भारत को अमेरिका बनना चाहिये, बल्कि वह जल्दी ही एक दिन बनेगा, ऐसा उसका दृढ़ (अंध)विश्वास है। नरेंद्र मोदी इसी फसल के स्वाभाविक नेता हैं। उनके अभी तक के नेता मनमोहन सिंह उन्हें थके हुये लगने लगे हैं। देश के तेज विकास और महाशक्ति बनने की हवा बाँधने वाले ये लोग अपने को ही पूरा देश मानते हैं। यानी सब कुछ उन्हें सबसे पहले अपने लिये चाहिये। नवउदारवाद के तीत बन रहे फर्जी भारत के ये फर्जी नागरिक हैं।

कहना होगा कि यह युवा बिरादरी अपने आप ऐसी नहीं बन गयी है। मनमोहन सिंह के साथ नवउदारवाद और संघ परिवार के साथ संप्रदायवाद के समर्थकों ने मिल कर जो माहौल तैयार किया, यह उसकी फसल है। आपने देखा है कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इनके हसीन सपनों को किस कदर हवा देते थे। यह सही है कि भारत की पूरी युवा आबादी के मुकाबले अभी कॉरपोरेट-सेवी युवाओं की संख्या काफी कम है। बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की है, खास कर युवतियों की, जो साम्प्रदायिक और अंधविश्वासी नहीं हैं। इसीलिये नरेंद्र मोदी, प्रधानमन्त्री बनना दूर, अभी गुजरात के बाहर सांसद का चुनाव भी नहीं जीत सकते। लेकिन आरएसएस को विश्वास है, भविष्य में उसकी विचारधारा फैलेगी; तब गठबंधन की मजबूरी नहीं रहेगी; उस समय ‘आदर्श हिदुत्ववादी’ नरेंद्र मोदी उसके प्रधानमन्त्री होंगे। बीच का समय निकालने के लिये, अटल बिहारी वाजेपयी के समय में कट्टर कहे जाने वाले, लालकृष्ण अडवाणी का सहारा लिया जायेगा। 16 साल के प्यार के बाद कहा जा सकता है कि जदयू संघी घराने का ही अविभाज्य अंग है। उसके नेताओं ने रामविलास पासवान, मायावती, ममता, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, एम करुणानिधि, जे जयललिता आदि की तरह बीच-बीच में संघ को छोड़ा नहीं है। आपने हाल में देखा कि जदयू नेताओं ने दिल्ली में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक में धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य पर अपना पाखंडी रवैया एक बार फिर बखूबी दिखाया ताकि मुसलमानों का वोट उनकी झोली से बाहर न जाये। उन्होंने  आरएसएस के स्वयंसेवक और भाजपा के शीर्षस्थ नेता रहे अटल बिहारी को पूरमपूर धर्मनिरपेक्ष बताते हुये, उनके जैसे नेता को प्रधानमन्त्री का उम्मीदवार बनाने की सलाह भाजपा को दी। यह सब जानते हैं कि संघ परिवार की साम्प्रदायिक विचारधारा के अंतर्गत कट्टरता और उदारता की लाइन चलती हैं। वाजपेयी की उदारता साम्प्रदायिक विचारधारा की उदारता है, जिसके तहत देश के संविधान के साथ छल करके सत्ता पायी जाती है।

जदयू नेताओं की नजर में अब लालकृष्ण अडवाणी धर्मनिरपेक्ष नेता हो गये हैं। अडवाणी को प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने पर गठबंधन नहीं छोड़ने की बात करने वाले ये वही नेता हैं जिन्होंने भाजपानीत केन्द्र की राजग सरकार में शामिल होते वक्त कहा था कि अगर भाजपा अडवाणी को प्रधानमन्त्री बनाती तो वे सरकार में शामिल नहीं होते। उनके लिये अब कट्टर मोदी के मुकाबले अडवाणी उदार हो गये हैं। दरअसल, भाजपा को जदयू नेताओं के मोदी सम्बंधी परोक्ष-अपरोक्ष हवालों से नाराज न होकर उनका शुक्रगुजार होना चाहिये। जदयू नेतृत्व ने कहा है कि वे मोदी का समर्थन इसलिये नहीं कर सकते क्योंकि मोदी ने गुजरात दंगों से निपटने के लिये मुस्तैदी से काम नहीं लिया। यह कह कर जदयू नेताओं ने 2002 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुये मुसलमानों के राज्य-प्रयोजित नरसंहार और उसे छिपाने के लिये किए गये षड़यन्त्रों से मोदी को बरी कर दिया है। बाबरी मस्जिद ध्वंस के रथी अडवाणी को अपना नेता स्वीकार करने के साथ जदयू नेताओं ने भाजपा के साथ अपने 16 साल पुराने प्यार का बखान भी किया है। लेकिन उन्हें यह भी कहना चाहिये कि उतने ही सालों से वे मुसलमानों के साथ फ्लर्ट कर रहे हैं। यह सारी कलाबाजी बिहार में मुसलमान वोटों को कब्जे में रखने के लिये की जा रही है। अपने को सेकुलर जताने वाले दलों और नेताओं का हर राज्य और देश के स्तर पर यही रवैया बना हुआ है। सभी ताक में रहते हैं कि चुनाव में मुसलमान उनकी झोली में गिरें। यह न केवल संविधान विरोधी रवैया है, नागरिक के तौर मुसलमानों की तौहीन है। हर सेकुलर पार्टी में सत्ता का सुख भोगने वाले चंद मुसलमान नेता भी पूरे समुदाय की यह दुदर्शा बना कर रख देने में हिस्सेदार बनते हैं। भाजपा सेकुलर दलों के इस रवैये का फायदा उठाकर हिन्दू वोट बैंक की राजनीति करती है और हमेशा मुख्य विपक्षी पार्टी बनी रहती है। हमारा मानना है कि यह दुश्चक्र तभी तोड़ा जा सकता है जब देश के मुसलमान नागरिक कम से कम एक बार आमचुनाव और एक बार सभी विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डालने का कड़ा फैसला लें। भारत की राजनीति में उससे बड़ा बदलाव हो सकता है।मुसलमानों के इस ‘सत्याग्रह’ से धर्मनिरपेक्षता के दावेदार और साम्प्रदायिकता के झंडाबरदार – दोनों संविधान की ओर लौटने के लिये मजबूर होंगे। और तब देश का संविधान साम्प्रदायिकता पर भारी पड़ेगा। हस्तक्षेप डॉट कॉम से साभार
डॉ प्रेम सिंह, लेखक जाने माने राजनीतिक समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं तथा सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं।

2 thoughts on “आडवाणी के बिगडैल संस्करण हैं मोदी”

  1. tera dimag kharab hai kya , ??? narendra modi hindusatan me kahi se bhi chunaw jeet sakte hai, headmaster hai tu hai na ? wo bhi delhi ka ? tu sabse bada murkh hai , tu kya bachhon ko padhata hoga , narendra modi hi hain bharat kla asli neta , aur lacknow se chunaw ladenge modi , aur bhari mato se jitenge, pm banne se koi nahi rok sakta hai modi ko, he is a great man of india ,

  2. lagta hai lekhak ji ke dimag men modi virodhi bhoosha bhara hua hai nahin andha bata dega ki modi ji baad men nahin 2014 ke election men pradhanmantri bankar deshdrohin ko desh se safaya karenge

Comments are closed.

error: Content is protected !!