अप्राकृतिक नहीं है प्राकृतिक आपदा

shiv_murti_rishikeshरोहित जोशी बादल फटना, बाढ़ और भूस्खलन आदि अप्राकृतिक नहीं हैं, लेकिन जिस तरह इन प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी हुई है वह सामान्य बात नहीं है। विरल मानी जाने वाली बादल फटने की घटनाएं, तबाही के वीभत्स मंजर के साथ इतनी आम हो चली हैं कि वजहों की छानबीन की ही जानी चाहिए। थोड़ी ही पड़ताल बताती है कि मानावीय दखल ने इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाया है। हजारों सालों से सिर्फ बहते रहने की अभ्यस्त हिमालयी नदियों को जगह-जगह जबरन रोक कर जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जब झीलें बना दी गई हों तो यहां के भूगोल और मौसम की ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं तो स्वाभाविक ही हैं।

पिछले सालों में बरसात का मौसम उत्तराखंड के लिए तबाही का मौसम साबित हुआ है। अबके मानसून की पहली बारिश ही उत्तरकाशी, केदारनाथ, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और बागेश्वर में बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन का मंजर लेकर आई है। जबकि अभी बरसात का पूरा मौसम बाकी है। यों तो आंख मूंद कर इन आपदाओं को सिर्फ प्राकृतिक माना जा सकता है और आपदा-राहत में राशि लुटा कर जिम्मेदारियों की इतिश्री की जा सकती है, लेकिन जिस गति से पूरे प्रदेश में जलविद्युत परियोजनाएं और इनके लिए झीलें, सुरंगें और गैर-जिम्मेदारी से चौड़ी सड़कें बनाई जा रही हैं उसी गति से प्राकृतिक आपदाएं भी साल-दर-साल और भयावह होती जा रही हैं।

बरसात और बरसात के बढ़ कर ‘बादल फट जाने’ की स्थिति पैदा हो जाने को समझना रॉकेट विज्ञान की तरह जटिल नहीं है। पानी के वाष्पन से बादल बनता है और फिर बादल बरस जाता है। यही बरसात है। और पहाड़ों में बादलों का भारी मात्रा में एक जगह जमा होकर एक निश्चित इलाके में बेतहाशा बरसना बादल का फटना है। चंद मिनटों में ही दो सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है। बादल फटने की घटना पृथ्वी से तकरीबन पंद्रह किमी की ऊंचाई पर होती है। भारी नमी से लदी हवा पहाड़ियों से टकराती है इससे बादल एक क्षेत्र विशेष में घिर कर भारी मात्रा में बरस जाते हैं। यही बादल का फटना है। क्या पहाड़ में अप्रत्याशित रूप से बादल फटने की बढ़ी घटनाओं में पिछले समय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बनाई कई कृत्रिम झीलों से हुए वाष्पन और इससे पर्यावरण में आई कृत्रिम नमी का कोई योगदान नहीं समझ आता?

जिस उत्तरकाशी में इस बार और पिछली बार भी बादल फटने से भागीरथी उफान में आ गई और उसने भयंकर तबाही मचाई, वहां मनेरी भाली बांध परियोजना (फेज-1 और फेज-2) की दो झीलें हैं- एक तो बिल्कुल शहर में और दूसरी इसी नदी में शहर से कुछ ऊपर। इसी नदी के सहारे आप करीब पचीस-तीस किमी नीचे उतरें तो चिन्यालीसौड़ में ‘विकास की महान प्रतीक’, चालीस वर्ग किमी लंबी ‘टिहरी झील’ भी शुरू हो जाती है। स्थानीय लोगों के अनुसार, पिछले समय में इस पूरे इलाके में बरसात काफी बढ़ी है। और ऐसे ही अनुभव हर उस इलाके के हैं जहां विद्युत परियोजनाओं के लिए कृत्रिम झीलें बनाई गई हैं।

चलिए हम एक बार फिर आंख मूंद लेते हैं, और मानने की कोशिश करते हैं कि अब तक जो प्राकृतिक आपदाएं हुई हैं उनमें ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का कोई हाथ नहीं है। लेकिन क्या भविष्य में बनने वाली 558 जलविद्युत परियोजनाओं की झीलें, हमारी उपरोक्त आशंकाओं पर हमें सोचने को मजबूर नहीं करती हैं? और अगर इस आशंका पर सोचना होगा तो स्वाभाविक ही इस बात पर भी सोचना होगा कि इन खतरनाक परियोजनाओं के लिए लालायित सरकारों और बांध बनाने वाली कंपनियों के वे कौन-से स्वार्थ हैं जो पहाड़ी समाज को इन तबाहियों की ओर धकेल रहे हैं।

कुछ बरसों से अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विविध सम्मेलनों में पर्यावरणीय चिंताएं ही केंद्र में रही हैं। इन सम्मेलनों में मुख्य जोर अलग-अलग देशों द्वारा कॉर्बन-डाइ-आक्साइड समेत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए दबाव बनाने का रहा है। खासकर विकासशील देशों पर यह दबाव ज्यादा है, क्योंकि ये देश औद्योगीकरण की अपनी रफ्तार बढ़ाने के क्रम में इन गैसों का उत्सर्जन अधिक करते हैं। इन्हीं देशों में भारत भी है। भारत सबसे अधिक कॉर्बन-डाइ-आक्साइड उत्सर्जित करने वाले देशों में पांचवें स्थान पर है और कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में इसका स्थान सातवां है।

जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में माना जाता है कि इसमें कॉर्बन का उत्सर्जन कम होता है और प्राकृतिक जलचक्र के चलते पानी की बरबादी किए बगैर ही इससे ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है। वहीं कोयले या अन्य र्इंधनों से प्राप्त ऊर्जा में मूल प्राकृतिक संसाधन बरबाद हो जाता है और कॉर्बन का उत्सर्जन भी अधिक होता है। इस कारण विश्व भर में पर्यावरणविद ऊर्जा प्राप्त करने की सारी तकनीकों में जलविद्युत की वकालत करते हैं। यही कारण है कि भारत भी

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कॉर्बन-डाइ-आक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित करने के मामले में अपनी साख सुधारने के लिए जलविद्युत की ओर खासा ध्यान दे रहा है। ऊर्जा की कमी ही भारत की विकास दर को तेजी से बढ़ाने में सबसे बढ़ी रुकावट रही है। एक अनुमान के अनुसार, पिछले दो दशक में भारत की ऊर्जा की आवश्यकता साढ़े तीन सौ प्रतिशत बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि भारत को ऊर्जा उत्पादन की अपनी वर्तमान क्षमता से तीन गुना अधिक ऊर्जा पैदा करने की जरूरत है। सवाल है यह कहां से पूरी होगी? जबकि यह आवश्यकता यहीं पर स्थिर नहीं है बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है।

खैर, अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारत का जोर अभी कॉर्बन उत्सर्जन कम कर अधिकतम ऊर्जा प्राप्त कर लेने में है और इसके लिए जलविद्युत परियोजनाएं ही मुफीद हैं। यही ‘राष्ट्रहित’ में है। नीतियों के स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा ‘राष्ट्र-हित’ जनता के हित से मेल नहीं खाता जबकि कॉरपोरेट के हित ‘राष्ट्र-हितों’ से एकदम मिलते हैं। ऐसा लगता है जैसे कॉरपोरेट-हित ही राष्ट्र-हित है और इसके लिए जन-हितों की कुरबानी एक व्यवस्थागत सत्य। इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों के जबर्दस्त प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध परियोजनाएं बनाती जा रही हैं।

लेकिन कॉर्बन उत्सर्जन मामले में ये जलविद्युत परियोजनाएं चाहे पर्यावरण-पक्षधर दिखती हों, मगर अनुभव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि किस तरह इन बांध परियोजनाओं ने मानवीय त्रासदियों को तो जन्म दिया ही है, प्रकृति के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है। इससे मानव सभ्यता के इतिहास में अहम रही कई नदियों के जलागम, पर्यावरण और जैव-विविधता पर गहरा असर पड़ा है। इन नदियों के किनारे बसे इन्हीं पर निर्भर समाज अस्तित्व के संकट में घिर गए हैं। विश्व बांध आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि बांध जरूर कुछ ‘वास्तविक लाभ’ देते हैं, लेकिन समग्रता में इन बांधों के नकारात्मक प्रभाव ज्यादा हैं जो कि नदी के स्वरूप, पर्यावरण और लोगों के जीवन को बुरी प्रभावित करते हैं। इसीलिए बड़े बांधों के खिलाफ दुनिया भर में आंदोलन उभरे हैं। भारत में भी यह प्रतिरोध व्यापक है। खासकर पूरे हिमालय में जनता इन बांधों के खिलाफ आंदोलित है। प्रतिरोध की तीक्ष्णता के आधार पर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तीव्रता से दमनचक्र जारी है। फिर भी इन आंदोलनों का खात्मा करना संभव नहीं हो पाया है।

बांध परियोजनाओं को अतिशय महत्त्व मिलने की दूसरी बड़ी वजह है बेहिसाब मुनाफा। इसके लिए पहाड़ी समाज की अनदेखी कर सरकारें और कंपनियां बांधों को लेकर इतनी लालायित हैं। ऊर्जा की मांग असीम है और पूर्ति सीमित। मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुसार इसका मूल्य अधिक है। और यह स्थिति स्थायी है। ऐसा कभी नहीं होने जा रहा कि बिजली की पूर्ति ज्यादा हो जाए और मांग कम रहे। यानी बिजली उद्योग में निवेश बाजार की स्थितियों के अनुरूप, बिना किसी जोखिम के मुनाफे का सौदा है। यही वजह है कि कंपनियां इसमें निवेश को लालायित हैं और सरकारें उन्हें भरपूर मदद पहुंचा रही हैं।

विद्युत उत्पादन ही बांध परियोजनाओं का एकमात्र मकसद हो गया है। बिना सरोकारों के, सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए बन रही ये परियोजनाएं पर्यावरण संबंधी मानकों की घोर अनदेखी करती हैं, निर्माण-कार्य में गुणवत्ता की शर्तों का पालन नहीं किया जाता और सुरक्षा संबंधी तकाजों के प्रति लापरवाही बरती जाती है। इसके चलते कम जोखिम वाली मझोली और छोटे आकार की

बांध परियोजनाएं भी खतरनाक हो गई हैं। क्योंकि सरकार और विपक्ष, दोनों की ओर से इन परियोजनाओं को जैसा प्रश्रय मिला हुआ है उससे इस संदर्भ में किसी भी जांच और कार्रवाई का कोई सवाल ही नहीं उठता।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के दौरान भारत ने अपनी ऊर्जा क्षमता में एक लाख मेगावाट का अतिरिक्त इजाफा करने का लक्ष्य रखा है। यह पर्यावरण-सम्मत दृष्टि से बिल्कुल असंभव है। और एक मेगावॉट सरीखी छोटी परियोजनाएं तो इस लक्ष्य को पाने में नगण्य भूमिकाएं ही अदा करेंगी। तो सरकारों का जोर स्वाभाविक ही मझोली और बड़ी परियोजनाओं पर होना तय है। ऐसे में मझोली परियोजनाएं तो बनेंगी ही, साथ अतीत की चीज मान ली गई बड़ी बांध परियोजनाओं की फिर से भयंकर शुरुआत होगी। और अगर ऊर्जा उत्पादन के इस लक्ष्य को भारत को किसी भी कीमत पर पा लेना है तो इसका मतलब है कि पर्यावरणीय तकाजों को ताक पर रख, प्रभावित समाजों के प्रतिरोध का बर्बर दमन करते हुए ढेर सारी परियोजनाओं को मंजूरी देनी होगी, तेजी से उनका क्रियान्वयन करना होगा। भारत का विकास-रथ जिस ओर बढ़ रहा है, उसमें पर्यावरण की तबाही और बर्बर दमन अकल्पनीय नहीं है। (जनसत्ता) http://visfot.com

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