प्रबंधन पत्रकारों को सरकार से नहीं लेने दे रहा फ्री का लैपटॉप

rajendara hadaविधानसभा चुनाव से ठीक पहले पत्रकारों को खुश करने की मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मुहिम राजस्थान पत्रिका के मालिकों को रास नहीं आ रही है। यह और बात है कि यह दोगली नीति पत्रकारों को उनके खिलाफ ही खड़ा होने के लिए उकसा रही है। दोगली कैसे यह आप आगे समझ जाएंगे। गहलोत ने पत्रकारों के लिए पेंशन, इलाज और प्लॉट के बाद लैपटॉप बांटने की नीति अपनाई है। इसकी घोषणा गहलोत पिछले बजट में कर चुके थे। पहले चरण में राज्य सरकार से अधिस्वीकृत पत्रकारों को लैपटॉप बांटना तय हुआ। सबसे पहला नंबर जयपुर का आया। अगले चरण के लिए जनसंपर्क अधिकारियों से उनके जिले के अधिस्वीकृत पत्रकारो की सूची मंगवा ली गई है।

लैपटॉप की कीमत 30 से 35 हजार रुपए है। पहली खेप में शनिवार को जयपुर के 31 पत्रकारों को लैपटॉप थमा दिए गए। राजस्थान पत्रिका प्रबंधन को जैसे ही इस सूची की जानकारी हुई, उनका पारा चढ़ गया। बड़ा गंभीर मामला था। सरकार अगर मुफत में कुछ दे रही है तो जाहिर है यह गहलोत की अखबारों को प्रभावित करने की कुचाल है। अगर पत्रकारों को लैपटॉप मिल गए तो वे चुनाव में जैसा गहलोत चाहेंगे वैसा कवरेज करेंगे। दूसरे शब्दों में ऑब्लाइज हो रहे हैं तो ऑब्लाइज भी करेंगे। गहन विचार विमर्श के बाद नीति की आड में फरमान जारी कर दिया गया। पत्रिका का कोई पत्रकार सरकार का लैपटॉप नहीं लेगा। जो लेगा उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। यह फरमान सामने आता तब तक एक पत्रकार बेचारा लैपटॉप ले आया। बेचारा इसलिए क्योंकि जैसे ही प्रबंधन को पता लगा उसे सख्त हुक्म दे दिया गया कि तुरंत वापस जमा करवाकर आओ और जमा करवाने की रसीद लाकर यहां जमा करवाओ।

आनन-फानन खबर जयपुर के पूरे पत्रकार जगत में फैल गई। मामला अभी राजस्थान पत्रिका तक ही सीमित था परंतु रविवार को दैनिक भास्कर में इसकी सबसे ज्यादा चर्चा रही। भास्कर के पत्रकारों को यह डर सता रहा है कि कहीं भास्कर प्रबंधन भी सोमवार को पत्रिका जैसा आदेश जारी नहीं कर दे। पिछले तीन महीने से फ्री लैपटॉप की आस लगाए बैठे, पत्रकारों की इच्छाओं पर यह कुठाराघात ही है। अपने बच्चों को लैपटॉप देने का वादा कर चुके हैं। अब निभाने का वक्त आया तो सेठ लोग टांग अड़ा रहे हैं। इधर अभी प्लॉट भी सभी को नहीं मिले हैं। कई लाइन में हैं। यह आशंका भी हो रही है कहीं इसी आड में अब प्लॉट के लिए भी प्रबंधन मना नहीं कर दे। कुछ दिलेर किस्म के पत्रकारों का मानना है कि प्लॉट तो लेकर रहेंगे, इसके लिए नौकरी जाती हो तो जाए। जाहिर है प्लॉट की कीमत ही इतनी होती है कि उसे बेचकर ही एक अच्छा बैंक बैलेंस खड़ा किया जा सकता है।

भास्कर-पत्रिका का शायद ही ऐसा कोई पत्रकार हो जो पत्रिका प्रबंधन के इस फैसले के हक में हो। यह और बात है कि वह दबाव में चुप रह जाए। वजह साफ है राजस्थान पत्रिका हो या दैनिक भास्कर या फिर दैनिक नवज्योति या और कोई अखबार, कोई ऐसा नहीं है जिसने राजस्थान के हर बड़े शहर में प्राइम लोकेशन पर अखबार के नाम पर सरकार से रिजर्व की रिजर्व कीमत यानि मामूली रियायत पर जमीन नहीं ली हो। भैरों सिंह शेखावत हो या वसुंधरा राजे या फिर अशोक गहलोत। सभी ने अखबारों को कई तरह से जमकर ऑब्लाइज किया है।

एक ने नाम मात्र की कीमत में जमीन दी तो दूसरे ने यह छूट दे दी कि इस जमीन का एक बड़ा हिस्सा किसी को भी कॉमर्शियल उपयोग के लिए किराए पर दिया जा सकता है। हाल यह है कि अखबार का दफतर तो थोड़ी सी जगह में है परंतु बैंक, बीमा जैसी दूसरी कंपनियों के दफतर उनमें खुल गए हैं। कुछ ने तो दुकानें बनाकर शॉपिंग कॉम्पलैक्स बना डाला है। भैरों सिंह शेखावत और राजस्थान पत्रिका का तालमेल तो राजस्थान में बेमिसाल रहा है। जयपुर की प्राइम लोकेशन पर स्थित पुरानी भव्य इमारत केसरगढ़ ही पत्रिका को दे दी गई। बाद की सरकारों ने भी कुलिश स्मृति वन, जनमंगल ट्रस्ट आदि के लिए सरकारी संसाधन, रियायतें, अनुदान दिए। पता नहीं कैसे तब अखबार सरकारों से प्रभावित नहीं हुए?

पत्रकारों की पीड़ा इसलिए भी वाजिब है कि पिछले नगर पालिका और पंचायत चुनावों में पत्रिका और भास्कर ने पेड न्यूज के लिए विज्ञापन या मार्केटिंग से ज्यादा संपादकीय विभाग का इस्तेमाल किया था। पत्रकारों को ही नेताओं से सौदा करने के लिए आगे किया गया। पत्रकारों ने ही खबरें और फोटो इस तरह छापी कि वे खबर जैसी ही लगे ना कि विज्ञापन जैसी। राजस्थान पत्रिका ने तो अपने ज्यादातर संस्करणों में संपादक नामक संस्था को खत्म ही कर दिया है। संपादक को ही प्रबंधक बनाकर विज्ञापन, मार्केटिंग और सर्क्युलेशन का जिम्मा दे दिया गया है। ना रहेगा प्रबंधक ना होगा संपादक से टकराव। एक आदमी को जब विज्ञापन और सर्क्युलेशन के टार्गेट पूरे करने है तो फिर खबरें उसकी प्राथमिकता कैसे रहेंगी ?

कुछ अखबारों ने अभी से आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपने खास पत्रकारों को इशारा कर दिया है। काम तो करना है पर इस तरह करना है कि काम भी हो जाए और नाम भी खराब ना हो। सीधा सा मतलब है नेताओं से अभी से संपर्क बनाओ। टिकट मिलते ही रकम लेनी शुरू करो और किसी को पता भी मत लगने दो। पत्रकारों को यह चुनावी नीति बता दी गई है, क्या अब यह संभव है कि जिन नेताओं से पत्रकार को मामूली रकम का लैपटॉप नहीं लेने दिया जा रहा हो उन्हीं से खुद के लिए बाद में लाखों रुपए एकत्रित करवा लिए जाएंगे।

मीडिया मालिकों को भड़ासी सलाह: ये जो नेता हैं, अफसर हैं, जज हैं और जनता में भी बहुत से हैं, ये गले तक मीडिया की हरकतों से भरे बैठे हैं। ‘मीडिया ट्रायल’, ‘ब्लैक मेलर’, ‘पेड न्यूज’ जैसे कई नए शब्द उनके जेहन में गहरी जडे़ं जमा चुके हैं। कुछ तो पीठ पीछे ‘मीडिया आतंकवाद’ शब्द भी काम में लेने लगे हैं। सब झपटने को तैयार बैठे हैं। ‘जिंदल-जी न्यूज’ धारावाहिक आप देख ही चुके हैं। ‘स्टिंग ऑपरेशन’ और ‘हिडन कैमरों’ से ये भली भांति परिचित हैं। हर ब्रेकिंग न्यूज, स्कूप, एक्सक्लुसिव तभी सामने आ पाता है जब उसके भीतर के राजदार ही उसे पत्रकारों को मुहैया करवाते हैं। इसलिए हे मीडिया मुगलों जो करो सोच समझकर करना। आपके राजदार पत्रकारों की नाराजगी कहीं आपके लिए भारी नहीं पड़ जाए ?

लेखक राजेंद्र हाड़ा वरिष्ठ वकील, पत्रकार और मीडिया विश्लेषक हैं. इनसे संपर्क 09549155160 या 09829270160 के जरिए किया जा सकता है
http://bhadas4media.com 

1 thought on “प्रबंधन पत्रकारों को सरकार से नहीं लेने दे रहा फ्री का लैपटॉप”

  1. पत्रिका खुद कमाने के चक्कर में रहती है तब उसे कुछ याद नहीं रहता ! पर बेचारे पत्रकारों को कुछ मिल जाये कैसे बर्दास्त करे ?
    जबकि सब जानते है कि पत्रिका समूह नोटों का कितना भूखा है !! आजकल पत्रिका समूह की हरकतें देख पत्रिका पर घिन्न आने लगी है !!

Comments are closed.

error: Content is protected !!