राहुल का अध्यादेश पर बिफरना ‘बचकाना’ नहीं

rahul_gandhi-नरेंद्र अनिकेत- कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने शुक्रवार को जिस तल्खी से अपनी ही पार्टी नीत केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार द्वारा दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अयोग्यता से बचाने के लिए हड़बड़ी में अध्यादेश लाने के फैसले की आलोचना की, उसको लेकर राजनीतिक गलियारे में प्रतिक्रिया का होना लाजिमी है। कुछ आलोचकों ने इसे राहुल की ‘बचकाना हरकत’ करार दिया है। राहुल के इस बयान को गहरे तौर पर और व्यापक अर्थो में देखने की दरकार है। एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र में यह अपेक्षा करना कि हर सरकार अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति लेकर ही नीतियों का निर्धारण करे, कुछ और नहीं पर्दे के पीछे से तानाशाही को समर्थन देना है। लोकशाही का मतलब बहुमत का शासन होता है, पार्टी नेतृत्व का अधिनायकवाद नहीं। इस लिहाज से सरकारों का काम और पार्टी का काम पृथक हो जाता है। भारत एक बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है और हमारी सरकारें अब गठबंधन के युग में प्रवेश कर चुकी है। इसलिए सरकार का काम उसमें शामिल लोगों की सामूहिक स्वीकृति और राय को प्रतिनिधित्व करता है न कि किसी एक दल की इच्छा को प्रतिध्वनित करता है। गठबंधन की अपनी मजबूरियां होती हैं और राजनीतिक दलों की अपनी निजी प्रतिबद्धताएं। ऐसे में सरकार के फैसले से यह जरूरी नहीं कि गठबंधन में शामिल हर दल का नेतृत्व सहमत ही हो। राहुल का बयान लोकतंत्र की उस बुनियादी अवधारणा को भी पुष्ट करने वाला साबित होता है जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आग्रह बहुमत की तानाशाही पर हावी रहता है। यही आग्रह लोकतंत्र की जीवनी शक्ति है। इसी आग्रह का अभाव एकदलीय शासन व्यवस्थाओं में दिखता है जहां प्रतिपक्ष को गैरजरूरी माना जाता है और विरोध करने वालों का क्या हश्र किया जाता है यह इतिहास में दर्ज है। वैसे भी यह जरूरी नहीं कि किसी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सरकार के हर जायज नाजायज फैसले पर मुहर लगाता फिरे और सिर्फ विपक्ष के आरोपों का जवाब देता रहे। नेतृत्व को अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से रखने देना लोकतंत्र की मजबूती की अनिवार्य शर्त है। दरअसल, हम अभी भी लोकतंत्र के विकास के दौर में हैं। कई सुधार हुए हैं और कई सुधार शेष हैं। हमने जो परिपाटी अभी तक देखी है वह राजशाही के कब्र पर उपजी लोकशाही के नाम पर अधिनायकवादी पारिपाटी है। इस परिपाटी का ही विद्रूप सच यह है कि दागी, अपराधी शिखर चढ़कर बोल रहे हैं और हम आलोचनाओं के निर्थक तीर ताने अंधेरे में निशाना लगाते रहते हैं। भारतीय संविधान हमें अपना मत जाहिर करने का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार बुनियादी है और यही हमारे स्वतंत्र होने की गारंटी भी। ऐसे में आलोचना सिर्फ विपक्ष का या सिर्फ कुछ मुट्ठीभर लोगों का ही दायित्व नहीं है। यदि किसी पार्टी के नेता या शीर्ष नेतृत्व को अपनी ही सरकार के किसी फैसले से असहमति हो तो उसे भी समाज में वही सम्मान हासिल होना चाहिए जो आलोचकों के बयान को दिया जाता है। यदि भारतीय समाज और लोकतंत्र इस व्यवस्था को आत्मसात करे तो निश्चित रूप से लोकतंत्र की शुरुआत करने वाले इस देश का लोकतंत्र दुनिया का सबसे मजबूत, पवित्र और अनुकरणीय लोकतंत्र बन सकेगा। http://www.kharinews.com

1 thought on “राहुल का अध्यादेश पर बिफरना ‘बचकाना’ नहीं”

  1. महोदय ,राहुल के इस बयान से न सिर्फ PM की इज्जत को तार तार किया है अपीतु यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि कान्ग्रेस में सिर्फ परिवार वाद है ।उनके आगे किसी की भी कोई औकात नही है !

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