मीडिया का खेल बडा खतरनाक है

mediaमीडिया को खुराक चाहिए। हर वक्त नए जायके के साथ। उसकी खुराक कम नहीं होती। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जाती है। खुराक के लिए वह हर वक्त, बदल-बदलकर वह प्रतीक गढ़ती है। हर तरफ से लुटी-पिटी मायूस आवाम को उज्जवल भविष्य के प्रतिमान दिखाकर अपने लिए दर्शक बटोरती है। उनके प्रतिमानों को पनीर की तरह निचोड़ती है फिर बचे पानी की तरह उन्हें दरवाजे के बाहर नाली में फेंक देती है। और फिर नया प्रतिमान तलाशती है, निचोड़कर फेंक देने के लिए।

यह सिलसिला उतना ही पुराना है जितना बिहार में पदस्थ उस कलेक्टर की कहानी जिसने एक समय राजनीति के आकाश के सबसे तेज चमकते सितारे लालकृष्ण आडवानी को मंच से उतारकर टाइम मैगजीन में जगह हासिल कर ली थी। मीडिया ने उन्हें रातोंरात कर्तव्य परायण अफसर के इतने कसीदे गढ़े की बेईमानों के राज से तंग हर युवा ईमानदार गौतम ही बनना चाहता था। मगर जब वही अफसर बाढ़ राहत का पैसा खाकर असमय अपनी नौकरी गंवा बैठा तो मीडिया के पास दूसरा प्रतिमान तलाशने के दूसरा रास्ता ही नहीं बचा।

या फिर दुर्गा नागपाल। शुद्ध आईएएस अफसर, जिसने कठिन परीक्षा की बैतरणी पार की और सरकार के प्रति वफादारी की सौगंध लेकर नौकरी शुरू की। उसे नायिका बनाकर जिस तरह पेश किया गया वह शायद खुद दुर्गा के लिए हैरत का सबब रहा होगा। रातोंरात बिना कुछ कहे, दुर्गा की कहानी को मीडिया दर्शकों के सामने तब तक परोसता रहा जब तक दर्शक बोर न हो गए या फिर मीडिया को ट्विस्ट के लिए कुछ नहीं मिला। आखिर में हश्र वही हुआ जो अकसर होता रहा है। दुर्गा रूपी शक्ति ने उस शख्स से माफी मांगी जो आज यूपी के इतिहास में सबसे कन्फ्यूज्ड युवा मुख्यमंत्री है। आला दर्जे का निकम्मा भी।

और अन्ना हजारे…एक सज्जन किस्म के व्यक्ति को दिल्ली में गांधी का अवतार बताकर शुरू हुआ खेल आज कहां जाकर खत्म हुआ है? एक वक्त अन्ना के सांस के उतार-चढ़ाव का हिसाब रखने वाले हमारे हम पेशेवर लोग आज उनके दिनों, हफ्तों या महीनों की भी खबर नहीं रखते। अन्ना में जब तक टीआरपी की गुंजाइश थी, निचोड़ी गई। दिल्ली में मीडिया का भविष्य तय करने वाले आला दर्जे के होनहार संपादक अन्ना के गांव में पीपली लाइव की तर्ज पर जिंदगी जी रहे थे। एक बाइट के लिए धक्का खाने से लेकर गाली खाने तक की घटनाएं उस वक्त हुर्इं। जब टीआरपी का रस खत्म हो गया तो अन्ना आज मीडिया के अनिवार्य नहीं गैर जरूरी हो चुके हैं।

अब उनकी खबरें आती हैं तो इस बात कि एयर कंडीशन नहीं होने की वजह से वे सभा छोड़कर भाग गए। आज शायद अन्ना भी यह समझ पाने में नाकाम हो चुके होंगे कि आखिर अचानक क्या हो गया है। अब वे मायूस होकर यही आरोप लगा सकते हैं कि सरकार उनकी बातों को सेंसर करा रही है। पैसे देकर उनकी खबरें रुकवाई जा रही हैं। अन्ना जी, दोष आपका नहीं है। यह खेल ही निराला है। जब अन्ना का मैजिक खत्म हो गया तो जरूरी हो गया कि नया प्रतिमान गढ़ा जाए।

बाबा रामदेव की कहानी कौन नहीं जानता। सौ प्रतिशत मतदान, कालाधन और स्वदेशी जैसे नारों के साथ मीडिया उनके पीछे तब तक दिनरात भागता रहा जब तक पुलिस ने बाबा रामदेव को गैर कानूनी तरीके से ही सही, मैदान से खदेड़ नहीं दिया। क्या अब मोदी की बारी है? भारत का भविष्य बताकर मीडिया ने नरेंद्र मोदी की खबरों को ओवर डोज देश को दे रखा है उससे यही आशंका जन्म ले रही है। एक अच्छे-खासे प्रशासक को अति प्रचार का हिस्सा बना दिया गया है। अति हर चीज की बुरी होती है। मीडिया की अति तो अति की खराब होती है।

‘खुदा न खास्ता’ अगर चुनावों के नतीजे वैसे न रहे, तो सिर पर उठाकर घूमने वाला मीडिया उनके साथ क्या हश्र करेगा यह ऊपर लिखे किस्सों से जाहिर है। मीडिया उन्हें तब लोकतंत्र का सितारा नहीं कहेगा। दंगों के दाग से हारा हुआ नेता बताएगा। उसके चंद दिनों बाद नए प्रतिमान की तलाश होगी। दर्शकों को एक बार फिर उम्मीद बंधाने के लिए।

हरिभूमि अखबार में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार ब्रह्मवीर सिंह के फेसबुक वॉल से.

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