रियासत की शान में सियासत की चमक

Jitendra Singh-निरंजन परिहार– चुनाव के दिन हैं। इसलिए मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान ने भले ही यह कह दिया हो कि ‘राजा – महाराजा हमेशा से अपनी ही प्रजा को लूटते आए हैं। और वे सोचते हैं राज करना उन्हीं का जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन अब इन राजा-महाराजाओं की नहीं चलेगी।‘ पर, उनकी अपनी ही पार्टी में देश में भी और प्रदेशों में भी राजा महाराजाओं की कोई कमी नहीं है। शिवराज के निशाने पर वहां के राजा दिग्विजय सिंह और महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। लेकिन बात यह है कि राजा महाराजाओं के राजनीति में आने का सिलसिला कोई आज शुरू नहीं हुआ हैं। राज पाट छिन गए, लेकिन इससे राजा महाराजाओं को कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। राजनेता चाहे किसी भी जाति या प्रजाति का हो, पद पर आने और कद के बढ़ने के बाद राजा ही हो जाता है। राजे – महाराजे इसी सूत्र को समझकर लोकतंत्र में भी सत्ता में पद पाने के लिए छा गए हैं। और इतिहास भी गवाह है कि सिर्फ पद पाने की लालसा में उनकी निष्ठा भी बदलती रही। चलिये, सबसे पहले थोड़ा घूम आते हैं राजस्थान के राजनीतिक इतिहास के उस जंगल में, जहां कई राजे रजवाड़े राजनीति के आकाश पर खूब फले फूले, तो कुछ ठिकाने लग गए।
बात, जयपुर से ही शुरू करते हैं। जयपुर राजघराने की राजकुमारी दीया सिंह के पिता जयपुर के पूर्व महाराजा भवानी सिंह एक जमाने में कांग्रेस में थे। लेकिन 1989 के चुनाव में बीजेपी के गिरधाल लाल भार्गव से वे हार गए। ब्रिगेडियर भवानी सिंह को खिलाफ भार्गव ने खुद को एक टिमटिमाता दीया बताकर उस पूरी चुनावी जंग को ‘… ये लड़ाई है दीए की अब तूफान से’ का नारा दिया और जोरदार ढंग से जीत गए। उसके बाद भवानी सिंह ने कभी टिकट तक नहीं मांगा। और गिरधारी लाल भार्गव, ‘जिसका कोई न पूछे हाल, उसके संग गिरधारीलाल’ के नारे देकर हर चुनाव जीतते हुए जब तक जिये, जयपुर से सांसद रहे। रहे। वैसे दीया सिंह की सौतेली दादी राजमाता गायत्री देवी अपने जमाने की बेहद खूबसूरत महिला थीं और चक्रवर्ती राजगोपालाचार् के आग्रह पर राजनीति में आईं और जयपुर लोकसभा सीट से स्वतंत्र पार्टी की सांसद भी रही। जयपुर में कुछ दिन पहले वसुंधरा राजे की परिवर्तन यात्रा के समापन पर आयोजित रैली हुई थी। बीजेपी की इस रैली में गुजरात के सीएम और देश में पीएम पद के एकमात्र घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी प्रमुख अतिथि थे। उसी रैली में राजकुमारी दीया ने कमल का परचम थामा। माना जा रहा है कि बीजेपी पहले उनको जयपुर में कहीं से विधानसभा का चुनाव लड़वाएंगी। फिर वहां की सीट पक्की करने के बाद जयपुर से लोकसभा के चुनाव में उतारेंगी। यह वही जयपुर लोकसभा की सीट हैं, जहां से 1989 में एक सामान्य कार्यकर्ता भार्गव से उनके पिता भवानी सिंह बुरी तरह हारे थे। नरेंद्र मोदी का करिश्मा कोई काम कर ले तो कर ले, मगर, अपने भलेपन की वजह से जनता में जबरदस्त पैठ बना चुके कांग्रेस के सांसद महेश जोशी के मुकाबले जयपुर की जनता राजनीति के अंधेरे में नई नई दीय़ा के उजाले को पसंद कर लेगी, इसकी उम्मीद बहुत कम ही है।
अलवर राजघराने के राजकुमार जितेंद्र सिंह केंद्र में पद के हिसाब से खेल राज्य मंत्री हैं। लेकिन एक प्रशासनिक चूक को अपने फायदे में तब्दील की राजनीतिक सूझबूझ से वे रक्षा राज्यमंत्री भी हैं। हुआ यूं था कि मंत्रिमंडल में फेरबदल के वक्त जयपुर ग्रामीण के सांसद लालचंद कटारिया को भी केंद्र में राज्य मंत्री बनाया गया। प्रशासनिक गलती से कटारिया और जितेंद्र सिंह एक ही राज्य के दोनों सांसदों को रक्षा मंत्रालय का राज्यमंत्री बना दिया गया। जितेंद्र सिंह भागे और रक्षा मंत्रालय का पदभार पहले संभाल लिया। कटारिया लटक गए। सांसद बनने के पहले जितेंद्र सिंह राजस्थान में विधायक थे। राहुल गांधी के खास हैं और कुंवर होने के बावजूद लोगों में भंवर जितेंद्र सिंह के नाम से ही जाने जाते हैं। दरअसल, राजाशाही परंपरा में दादा जीवित हो, तो पोता भंवर और उसके पिता को कुंवर का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन जिंतेंद्र सिंह के दादाजी के स्वर्गवास को करीब तीन साल बीत गए, फिर भी लोग उनको लाड़, प्यार और सम्मान से अब भी भंवर साहब के नाम से ही बुलाते हैं। वैसे, उनकी मां महारानी महेंद्र कुमारी बीजेपी से जुड़ी रहीं। इंदिरा गांधी के राज में 1977 में इमरजेंसी में उन्हें 19 महीने तक जेल में ठूंस दिया गया था। इसके वे जनता पार्टी से अलवर में लोकसभा की सांसद भी बनी। लेकिन राजनीति में पद के प्रभावों का रंग ही कुछ ऐसा होता हैं कि अपनी मां को जेल में डालनेवाली पार्टी के पाप को भुलाकर बेटा कांग्रेस के साथ हो जाता है।
मध्य प्रदेश में ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की बेटी वसुंधरा राजे राजस्थान की बहू हैं। वे धौलपुर की महारानी हैं और केंद्र में मंत्री से लेकर प्रदेश की सीएम रही हैं। दूसरी बार प्रदेश बीजेपी की अध्यक्ष बनने के बाद वे दूसरी बार सीएम बनने की कोशिश में हैं। वसुंधरा राजे को आमतौर पर प्रदेश में महारानी साहिबा के नाम से जाना जाता है। क्योंकि उनके व्यवहार में विरासत की विभा और आभा दोनों साफ झलकती है। महारानी साहिबा के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़ से दूसरी बार सांसद हैं। लेकिन दो दो बार सांसद रहने के बाद भी राजनीति उनको कितनी आती है, यह कोई नहीं जानता। क्योंकि बीते साढ़े नौ सालों के उनके संसदीय काल में संसद से लेकर सड़क तक स्वतंत्र रूप से काम करके दिखाने और अपने होने को साबित करने के मामले वे अब तक तो कुछ भी नहीं कर पाए हैं।
जोधपुर राजघराने की बेटी चंद्रेश कुमारी भी केंद्र में मंत्री हैं। वे कांग्रेस में हैं, लेकिन उनके भाई और सबसे सम्मानित राजघराने जोधपुर के पूर्व महाराजा गजसिंह हमेशा बीजेपी के साथ रहे हैं। बात तो उन्हीं के लोकसभा चुनाव लड़ने की थी। लेकिन राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत हिमाचल की महारानी चंद्रेश कुमारी को उनके ससुराल से पीहर जोधपुर लाकर कांग्रेस के टिकट पर खड़ा कर गए तो महाराजा गजसिंह ने बहन के सम्मान में अपने पांव वापस कर लिए। राजनीति में यह सम्मान बहुत कम देखने को मिलता है।
राजनीति में पद और कद के लिए इतिहास भुलाने की पुनरावृत्ति होती रही हैं। यहां के राजघराने की कहानी भी कुछ कुछ अलवर जैसी ही है। कोटा के राजकुमार इज्येराज सिंह कांग्रेस से लोकसभा के सांसद हैं। जी हां, वही कांग्रेस, जिसके राज में इमरजेंसी में इज्येराज के पिता कोटा के महाराजा बृजराज सिंह को जेल में डाल दिया गया था। बृजराज सिंह स्थापना के साथ ही जनसंघ से ड़े थे। लेकिन जेल से निकलने के बाद उन्होंने आस्था बदल दी, कांग्रेस में शामिल हो गए। राजनीति में लोग अकसर अपने साथ हुए का बदला लेते हैं, लेकिन महाराजा बृजराज सिंह बदल गए, तो प्रजा ने उनसे बदला लिया। इमरजेंसी के बाद बृजराज सिंह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन उनके अपने ही साम्राज्य कोटा की प्रजा ने उनको बुरी तरह चित कर दिया।
अलवर के पास के ही भरतपुर राजघराने के कुंवर नटवर सिंह लंबे समय तक विदेश मंत्री रहे। वे लोकसभा में रहे, राज्यसभा में भी रहे। वहां के महाराजा विश्वेंद्र सिंह इस समय कांग्रेस में हैं। वे पहले बीजेपी थे। उनकी पत्नी महारानी दिव्या सिंह भी भरतपुर से बीजेपी की सांसद रही। वहीं पास के ही डीग के महाराजा मानसिंह विधायक रहे। उन्होंने गुस्से में 1985 में सीएम शिवचरण माथुर के हेलीकॉप्टर पर अपनी जीप चढ़ा दी। पुलिस ने फायरिंग की और वे वहीं मारे गए। उनकी बेटी दीपा भी विधायक रहीं। डूंगरपुर के शासक महारावल लक्ष्मण सिंह सेवतंत्र पार्टी की नेता महारानी गायत्री देवी को कोशिश से राजनीति में आए, राज्यसभा के सांसद रहे और बाद में जनता पार्टी से राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष बने। बीकानेर राजघराने के महाराजा कर्णी सिंह 1952 से 1977 तक सांसद रहे। वे कांग्रेस में थे। अब उनकी पोती राजकुमारी सिद्धि कुमारी बीकानेर से बीजेपी की विधायक हैं। उदयपुर के महाराणा भगवत सिंह भी विश्व हिंदु परिषद के जरिये राजनीति किया करते थे। अब उदयपुर राजघराने में बहू के रूप में आनेवाली बोलांगीर की राजकुमारी राजनीतिक परिवार की निवृत्ति कुमारी के मेवाड़ आने से पहले ही वहां दीये जलने लगे हैं। वे बीजेपी में हैं।

निरंजन परिहार
निरंजन परिहार

राजस्थान सहित देश की राजनीति में राजपरिवारों का आना कोई नई बात नहीं हैं। इन सिद्ध और प्रसिद्ध और राजघरानों के अलावा भी कई छोटे मोटे राजा महाराजा भी राजनीति में थोक के भाव आते रहे हैं। वक्त के हिसाब से छाते रहे हैं और प्रदेश से लेकर देश की सत्ता तक में पद भी पाते रहे हैं। पद के बारे में तो यूं भी अकसर कहा ही जाता रहा है कि वह तो बेचारा पैदाइशी रूप से राजपरिवारों का गुलाम रहा है। पदों की परंपरा की शुरूआत ही राजपरिवारों से होती रही है। इसीलिए राजे रजवाड़े खत्म हो गए, तो पद पाने की लालसा राजघरानों को राजनीति में लाती रही है। राजनीति में प्रभावशाली पद, उन पदों पर राजघराने के लोग और उन लोगों की राजनीति के रंग राजस्थान के रजवाड़ों को अपनी तरफ खींचते रहे हैं, राजनीति को भी हमेशा से सुहाते रहे है, जनता को भी वे भाते रहे हैं और राजपरिवारों से आए लोग पद पाते भी रहे हैं। राजशाही चली गई, पर पद की लालसा में राजनीति के प्रति रजवाड़ों का मोह वक्त के साथ और मजबूत हुआ है, यह साफ है।

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