राष्ट्रीय एकीकरण की राह में रोड़ा है अनुच्छेद 370

आशुतोष भटनागर- जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का वैसे ही अभिन्न अंग है जैसे कोई भी अन्य राज्य। जम्मू-कश्मीर का प्रत्येक निवासी भारतीय नागरिक है और उसे वे सभी अधिकार हासिल हैं जो भारत के किसी भी नागरिक को हैं। संविधान का कोई भी प्रावधान उसे मौलिक अधिकार प्राप्त करने से रोक नहीं सकता। अगर अनुच्छेद 370 की आड़ में ऐसा हो रहा है तो उस पर पुनर्विचार की जरूरत है।

भारत का संविधान अपने मूल स्वरूप में पंथनिरपेक्ष है। उसके किसी भी अनुच्छेद की व्याख्या जाति-पंथ-क्षेत्र के संदर्भ में किया जाना अवांछनीय है। दुर्भाग्य से अनुच्छेद 370 को एक विशिष्ट क्षेत्र और मजहब के साथ जोड़ कर देखने की राजनैतिक प्रवृत्ति ने स्थिति को जटिल बनाया है। इसके चलते अनुच्छेद 370 की विकृत व्याख्या की गयी। अनेक ऐसे प्रावधान राज्य में लागू किये गये जो भारतीय संविधान की भावना से मेल नहीं खाते। दूसरी तरफ लोकहित के अनेक कानून यहां लागू नहीं हैं जिसके कारण राज्य के निवासी उन प्रावधानों से वंचित हैं जिनका लाभ देश के सभी नागरिक उठा रहे हैं।

आशुतोष भटनागर
आशुतोष भटनागर

अनेक विशेषज्ञ यह दावा करते हैं कि जम्मू-कश्मीर के साथ भारत का रिश्ता अनुच्छेद 370 से निर्धारित होता है। सवाल यह उठता है कि बाकी राज्यों के साथ रिश्ते के निर्धारण के लिये कौन सा अनुच्छेद है? जाहिर है ऐसे कोई अनुच्छेद भारत के संविधान में नहीं जोड़े गये जो एक-एक राज्य के साथ संबंधों की परिभाषा करें। भारतीय संविधान की प्रथम अनुसूची में भारतीय संघ में शामिल सभी राज्यों की सूची है जिसमें जम्मू-कश्मीर 15वें स्थान पर है।

जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान उपरोक्त तथ्य की पुष्टि करता है। इस संविधान का अनुच्छेद 3 कहता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 4 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो 15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य की प्रभुसत्ता में था। अनुच्छेद 147 कहता है कि अनुच्छेद 3 कभी नहीं बदला जा सकता। इसके बाद भी कोई और अनुच्छेद राज्य के साथ संघ के रिश्तों का निर्धारण करे, यह बात ही बेमानी है।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 एक अस्थायी उपबंध के रूप में जोड़ा गया। इसे जोड़ने की जरूरत क्यों अनुभव की गयी, यह जानने के लिये संविधान सभा की कार्यवाही को देखना जरूरी है। गोपालस्वामी आयंगर ने जब यह अनुच्छेद प्रस्तुत किया तो अकेले हसरत मोहानी ने इसकी जरूरत पर सवाल उठाया। जवाब देते हुए आयंगर ने कहा कि राज्य में युद्ध जैसी स्थिति है, कुछ हिस्सा आक्रमणकारियों के कब्जे में है, संयुक्त राष्ट्र संघ में हम उलझे हुए हैं और वहां फैसला होना बाकी है, इसलिये यह अस्थायी प्रावधान किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि के रूप में वहां नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य मौजूद थे जो इस पर खामोश रहे। शेष किसी सदस्य ने भी इस पर चर्चा की जरूरत नहीं समझी क्योंकि प्रावधान अस्थायी था और उसके समाप्त होने की प्रक्रिया भी अनुच्छेद में ही जोड़ दी गयी थी।

6 सितम्बर 1952 के अपने पत्र में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने इसके प्रावधानों द्वारा संसद के अधिकारों के अतिक्रमण और राष्ट्रपति को दी गयी असीमित शक्तियों पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र लिखा । अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्दावली का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा कि संविधाननिर्माताओं के अभिप्राय से अलग भी इनकी व्याख्या और क्रियान्वयन संभव है। इसके निवारण के लिये उन्होंने महाधिवक्ता और विधिमंत्री की राय जानने का भी सुझाव दिया।

63 वर्ष बाद आज यदि किसी अनुच्छेद का मूल्यांकन करना हो तो दो बातों को आधार बनाया जाना चाहिये। पहला, जब वह अनुच्छेद संविधान में जोड़ा गया तो संविधान निर्माताओं की मंशा क्या थी। दूसरा, उक्त प्रावधान क्या अपने उद्देश्य में सफल हो सका। संविधान निर्माताओं की मंशा तो इस से ही जाहिर है कि उन्होंने उसे अस्थायी की श्रेणी में रखा। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता तत्कालीन राष्ट्रपति को लागू होने के कुछ समय बाद ही अनुभव होने लगी। स्वयं विधि मंत्री डॉ अम्बेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते समय जो कारण गिनाये, नेहरू की जम्मू-कश्मीर नीति से असहमति उनमें से एक था।

जहां तक उद्देश्य में सफलता का सवाल है, अनुच्छेद 370 के कारण राज्य की शेष देश से दूरी बढ़ने, विकास के बाधित होने, विस्थापितों और शरणार्थियों के संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित रहने जैसे बड़े सवाल सामने हैं। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछडे वर्ग, महिलाओं, तथा अल्पसंख्यकों के लिये भारतीय संविधान में किये गये संरक्षणात्मक प्रावधान तथा आरक्षण की सुविधा से भी राज्य की बड़ी जनसंख्या वंचित है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन जो शासन का विकेन्द्रीकरण कर पंचायती राज को सशक्त बनाते हैं, का रास्ता भी रुका हुआ है।

देश के 134 कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हैं। यदि वे शेष देश के नागरिकों के हितों पर चोट नहीं करते तो किसी राज्य विशेष के लिये कैसे नुकसानदेह हो सकते हैं। लेकिन अनुच्छेद 370 पर क्षेत्रीय और मजहबी पहचान का लबादा डाल कर अलगाव की राजनीति को धार दी जाती रही है।

अनुच्छेद 370 के मूल्यांकन के लिये जरूरी है कि उसे छः दशक पुरानी नेहरू–शेख, हिन्दू-मुस्लिम, भाजपा-कांग्रेस और पीडीपी-नेशनल कांफ्रेंस की परंपरागत गुत्थियों से बाहर निकाला जाय। अनुच्छेद 370 को ‘हटाओ’ और ‘नहीं हटने देंगे’ की नारेबाजी के बीच युवाओं की आकांक्षाएं, विकास की उम्मीद और राष्ट्रीय एकता के प्रयास, सभी दम तोड़ रहे हैं।

बिना किसी संदर्भ के जब प्रधानमंत्री की मौजूदगी में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला “370 हटाने के लिये हमारी लाशों पर से गुजरना होगा” जैसा बयान देते हैं तो वह जम्मू-कश्मीर की अवाम को चार दशक पीछे ले जाने की कोशिश कर रहे होते हैं। उमर अब्दुल्ला तीसरी पीढ़ी के नेता हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे आधुनिक होंगे। लेकिन वह अतीत में लौटना चाहते हैं। इंदिरा-शेख समझौते के बाद से क्षेत्रीय स्वायत्तता का सवाल धीरे-धीरे हल हो रहा है। एकीकरण का रास्ता खुला है। लेकिन उमर का बयान इस प्रक्रिया पर चोट करता है।

राज्य की राजनीति में उमर की प्रतिस्पर्धा भाजपा से नहीं बल्कि पीडीपी से है। इस लड़ाई में वे अपने-आप को ज्यादा बड़ा कट्टरपंथी साबित कर अपनी राजनैतिक हैसियत बरकरार रखना चाहते हैं। लेकिन अलगाव की यह राजनैतिक पैंतरेबाजी बहुत दूर तक साथ नहीं देगी और बहुत संभव है कि इस कोशिश में उमर हाशिये पर चले जायें।

जम्मू-कश्मीर के अलगाव और पीड़ा को संबोधित करना है तो राजनीति को परे कर ईमानदार पहल जरूरी है। राज्य को यदि विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना है तो उसके लोकतांत्रिक उपायों से मुंह मोड़ना असंभव है। जनता के हाथों पंचायती राज सौंपना होगा, केन्द्रीय मानवाधिकार आयोग, केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग, केन्द्रीय महिला आयोग, केन्द्रीय अनुसूचित जाति आयोग, केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, लोकसभा–विधानसभा हेतु परिसीमन आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय आदि के लिये दरवाजे खोलने होंगे ताकि कोई भी नागरिक अपने अधिकारों के लिये सीधे इन संस्थाओं तक पहुंच सके।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे आशुतोषजी स्‍वतंत्र पत्रकार के नाते विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर सम-सामयिक विषयों पर लिखते रहते हैं। आप हिंदुस्‍थान समाचार एजेंसी से भी जुडे रहे हैं। सांस्‍कृतिक राष्ट्रवाद को प्रखर बनाने हेतु आप इसके बौद्धिक आंदोलन आयाम को गति प्रदान करने में जुटे हुए हैं। http://www.pravakta.com

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