रफीक जकरिया ने तोड़ा भ्रम कि सरदार मुस्लिम विरोधी थे

adwani blogमुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि ताजा राजनीतिक इतिहास से संबन्धित मेरे ब्लॉगों से, सामान्य तौर पर कहा जाए तो मीडिया में भी बहस छिड़ी। इस वर्ष मेरे द्वारा लिखे गए देसी रियासतों के एकीकरण से सम्बन्धित ब्लॉगों जिनमें स्वाभाविक रुप से सरदार पटेल तथा वी.पी. मेनन का जिक्र था, से ज्यादा बहस छिड़ी। इनमें से कुछ ने सरदार के पण्डित नेहरु से मतभेदों की ओर सीधा ध्यान आकर्षित किया।
देश में प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी दैनिकों में से, चेन्नई के ‘दि हिन्दू‘ समूह को सामान्य तौर पर मैं विवेकी और संतुलित मानता हूं-चाहें वह समाचारों का प्रस्तुतीकरण हो या इसके सम्पादकीय और लेखों का चयन का संदर्भ हो। चाहें यह मेरी पार्टी के रुख से एकदम भिन्न हों या जिन्हें मैं भी सही नहीं मानता जितना कि इस समूह को मानता हूं। अत: इसलिए जब मैंने फ्रंटलाइन (13 दिसम्बर, 2013) का अंक देखा तो मैं आश्चर्य चकित रह गया, इसके आवरण पर पण्डित नेहरु और सरदार पटेल का फोटोग्राफ था, जिस पर टिप्पणी है: ”ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सरदार वल्लभभाई पटेल साम्प्रदायिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति और जवाहरलाल नेहरु सेक्युलर राष्ट्रवाद के प्रतीक। यही स्पष्ट करता है कि क्यों संघ परिवार एक को पूजता है और दूसरे से घृणा करता है।”
कम से कम, मैं दि हिन्दू समूह की किसी पत्रिका से कभी यह अपेक्षा नहीं करता था वे सरदार पटेल को ”एक नितांत साम्प्रदायिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति” के रुप से वर्णित करेंगे। जब मैंने पत्रिका को खोला तो मैंने पाया कि यह लेख ए.जी. नूरानी ने लिखा है। इसलिए मुझे आश्चर्य उसके लेखक को लेकर नहीं परन्तु ऐसे विकृत लेख को आवरण कथा बनाने पर हुआ।
जब दिसम्बर 1950 में सरदार पटेल का निधन हुआ तब वह न केवल उपप्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिमंण्डल में गृहमंत्री थे, अपितु वह सूचना एवं प्रसारण विभाग के भी प्रभारी थे। तब तक दूरदर्शन का जन्म नहीं हुआ था। उस समय आल इण्डिया रेडियो ही एकमात्र सरकारी संचार माध्यम था। आल इण्डिया रेडियो ने वार्षिक सरदार पटेल स्मारक भाषणमाला की शुरुआत की।
सन् 1956 में जब रफीक जकरिया से इस कड़ी में भाषण देने हेतु सम्पर्क किया गया तो विषय रखा गया ”सरदार पटेल और भारतीय मुस्लिम”। इन भाषणों पर आधारित पुस्तक की अपनी प्रस्तावना में जकरिया लिखते हैं:
”जो विषय मैंने चुना वह कुछ विवादास्पद था; सर्वप्रथम मैं इसके बारे में थोड़ा-बहुत आशंकित था। एक विद्यार्थी और भारतीय राजनीति में भाग लेने वाले के रुप में मुझे सरदार पटेल के जीवन और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों के बारे में काफी जानकारी थी। लेकिन मेरे जैसे अनेक हम-मजहबों की भांति मेरी भी यह धारणा बनी हुई थी कि वह मुस्लिमों को पसन्द नहीं करते थे; वास्तव में, मैं सोचता था कि वह घोर मुस्लिम विरोधी थे। इसलिए मुझे लगा कि क्या मुझे उनकी स्मृति में आयोजित ऐसे विषय पर भाषण देना चाहिए जो उनके प्रति आलोचनात्मक भी हो सकता है। मैंने अपने मित्र एस. रामाकृष्णन से परामर्श किया जो सरदार को घनिष्टता से जानते थे; अहमदनगर किले की कारावास से 15 जून, 1945 को रिहा होने के बाद ऐतिहासिक कैबिनेट मिशन, जिसके फलस्वरुप सत्ता का हस्तांतरण हुआ और सरदार द्वारा उप प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद और दिल्ली में रहना शुरु करने के कुछ महीनों बाद उन्होंने सरदार के निजी सचिव के रुप में काम किया था। वह के.एम. मुंशी के मूल्यवान सहयोगी थे और भारतीय विद्या भवन के संस्थापक की मृत्यु के बाद उन्होंने न केवल भारत अपितु दुनिया के विभिन्न भागों में भी इसको ठोस आधार देते हुए इसका विस्तार किया। उनका जीवन स्वयं में एक काव्य जैसा रहा, उनका जीवन राष्ट्रीय एकात्मता के लिए मूक और समर्पित ढंग से काम करने की गाथा है। उन्होंने मुझे इस विषय पर बोलने हेतु तैयार करने में निर्णायक भूमिका निभाई क्योंकि उन्हें लगा कि सत्य बताया ही जाना चाहिए, चाहे इसके परिणाम कुछ भी हों, वह आश्वस्त थे कि पटेल इसमें से बेदाग निकलेंगे।
जितना ज्यादा मैंने खोज की उतना ही ज्यादा मैं आश्वस्त हुआ कि लौह पुरुष को अनेक संदर्भों में गलत समझा गया और भारतीय मुस्लिमों के बारे में उनके रुख के बारे में जो मकड़जाल फैला हुआ है, उसे हटाए जाने की जरुरत है। मुझे खुशी है कि मैं अपने संतोष मुताबिक यह कर पाया।
भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल, फली नरीमन ने मुझे लिखा कि उन्हें मेरे भाषण को सुनकर आनन्द आया; इसी प्रकार मुंबई उच्च न्यायालय के मान्य न्यायाधीश चपलगांवकर ने भी लिखा। अन्य अनेकों ने भी महसूस किया कि भारतीय मुस्लिमों के प्रति पटेल के रवैये का निष्पक्ष विश्लेषण कर पाने में मैं सफल रहा, जोकि वर्तमान में साम्प्रदायिक विष से दूषित वर्तमान हालत को ठीक करने हेतु आवश्यक है।
भारतीय विद्या भवन ने रफीक जकरिया द्वारा सरदार पटेल स्मृति व्याख्यानमाला में दिए गए दोनों भाषणों की एक पुस्तक प्रकाशित की है। पुस्तक सन् 1996 में प्रकाशित हुई और इसका शीर्षक है: ”सरदार पटेल एण्ड इण्डियन मुस्लिमस्।”
पुस्तक में नानी पालखीवाला द्वारा लिखित प्राक्कथन भी है, इसमें पालखीवाला लिखते हैं:
”मैं डा. रफीक जकरिया को भारत सरकार द्वारा प्रायोजित सरदार पटेल स्मृति व्याख्यानमाला में दिए गए शोध आधारित उनके भाषणों के आधार पर सुव्यवस्थित ढंग से लिखी गई पुस्तक के माध्यम से सरदार वल्लभभाई पटेल की स्मृति को पुन: जीवित करने के सर्वाधिक उपयुक्त कार्य हेतु बधाई देता हूं। उन्होंने अधिकार पूर्वक उस मिथ को तोड़ दिया है जो निहित स्वार्थी तत्वों ने बना दिया था कि सरदार मुस्लिम विरोधी थे।”
इस पुस्तक में जकरिया ने के.एम. मुशी की पुस्तक एन्ड ऑफ एन इरा‘ का उपयोग करते हुए विस्तार से वर्णन किया है कि कैसे कासिम रिजवी ने निजाम की महत्वाकांक्षाओं को भड़काया और ऐसी स्थिति पैदा की कि जिसमें सरदार पटेल को अंतत हैदराबाद का भारत में विलय करने हेतु सेना का उपयोग करना पड़ा।
जकरिया लिखते हैं:
”हैदराबाद, जोकि सबसे बड़ी रियासत थी, पर महामहिम निजाम का शासन था, जिसकी लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू थी, ने सरकार के सामने जटिल समस्या खड़ी की; इसके शासक द्वारा टालमटोल करने के फलस्वरुप हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते और ज्यादा बिगड़े, विशेषकर कासिम रिजवी जैसे अहंकारी अशांति फैलाने वाले भड़काऊ भाषण और अपमानजनक गालियां बकनेवाले, जिसने अपने आप पर ”हिन्दू लूटेरों‘ के शिकंजे से निजामराज को बचाने का जिम्मा ओढ़ रखा था। अपनी जोशीली भाषण शैली से उसने मुस्लिमों पर ऐसा प्रभाव जमा रखा था कि वे उसमें लगभग एक मसीहा देखते थे। उसने पूरी रियासत में अपनी अकड़ और अहंकार तथा डींगों से ऐसा माहौल बना दिया था कि निजाम भी उससे डरता था। के.एम. मुंशी जिन्हें सरदार ने भारत सरकार की ओर से हैदराबाद में एजेंट जनरल बनाकर भेजा था, ने रिजवी की उछल-कूद, मजाक और शरारतों का शब्दश: चित्रण किया है। अपनी पुस्तक एण्ड ऑफ एन इरा‘ में मुंशी ने रिजवी का वर्णन ”एक अथक कार्यकर्ता, यद्यपि जुनूनी” के रुप में करते हुए उसे चालाक बताया है। वह मना सकता था और डरा कर काबू कर सकता था; जब जरुरी हो वह मुस्करा सकता था, परिहास या आकर्षित भी कर सकता था।”
”सत्ता के गलियारों में रिजवी अपनी क्रोधित आंखों और विशेष चाल-ढाल से निजाम को बेवकूफ बनाता रहा। उसने निजाम को अहसास कराया कि उसे भगवान ने उसको तथा उसकी रियासत को बचाने के लिए भेजा है। वह दावे के साथ कहता था: ”वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब बंगाल की खाड़ी हमारे निजाम के पांव धोएगी।” आगे कहा कि चांद तारेवाला हरा झण्डा एक बार फिर से दिल्ली के लालकिले पर फहराएगा। एक काबिल ब्रिटिश वकील, वाल्टर मांकटॉन, जो निजाम की तरफ से मांऊटबेंटन की सहायता से भारत के साथ एक सम्मानजनक समझौता कर पाने में लगभग सफल हो गए थे, रिजवी और उसकी मंत्रिपरिषद के मंत्रियों की चालबाजी से इतना परेशान हो गए कि जिन्हें उसने आतंकित किया हुआ था कि वह अपनी सलाह हताशा में देकर लंदन वापस लौट गए। निजाम परस्पर विरोधी दवाबों में फंसा था। उसके पास न तो समझ थी और न ही फैसला करने की इच्छा। वह अपना रुख बार-बार बदल रहा था। एक दिन वह लड़ाई की बात करता तो दूसरे दिन समझौते की। छतारी ने उसे पहले ही चेता दिया था कि न तो पाकिस्तान और न ही ब्रिटेन उसको बचाने के लिए आएगा। तब वह भारत के साथ समझौते के लिए तैयार हो गया। यह सुनते ही रिजवी ने ऐसा भीड़ उन्माद भड़काया कि निजाम ने आनन-फानन में अपना पक्ष वापस ले लिया। एक बार, निजाम ने रिजवी के उग्र भाषण से ऊबकर अपना आपा खो दिया। उसने अपने सलाहकारों को ”उस काले रक्षक और निकृष्ट व्यक्ति को रोकने को कहा जो पागल हो गया है। लेकिन यह अस्थायी था। जैसे ही रिजवी, जो एक भस्मासुर बन चुका था, के चिल्लाकर बोलने के चलते वह उसके सामने शांत हो गया। उसे कोई भी नियंत्रित नहीं कर सका था। उसके भाषणों में हिन्दुओं और भारत के विरुध्द विषवमन से ज्यादा कुछ नहीं था। उसे भरोसा था कि भारतीय मुस्लिम निजाम के साथ एकजुट होकर खड़े होंगे।”
रजाकरों के नाम वाले उसके अनुयायी निर्दोष हिंदुओं का सता रहे थे; उसका संगठन-इत्तेहादुल मुसलमीन का दबदबा था। 31 मार्च, 1948 को निकृष्ट व्यक्ति भारत से लड़ने के लिए शस्त्र और गोला बारुद इक्ठ्ठा करने के लिए उसने एक ”हथियार सप्ताह” आयोजित किया। लंदन के दि टाइम्स में प्रकाशित उसके भाषण में घृणा और जहर भरा था। उसने भारत के विरुध्द युध्द की घोषणा की और और उसने भारतीय मुसलमानों को अपने लिए अतिरिक्त बल के रुप में काम करने को कहा उसने उन्हें अपने अनुयायियों के उदाहरण से सबक लेने को कहा, जिनका ”अद्वितीय पराक्रम और दिलेर दृष्टि” उनका मार्गदर्शन करें। उसने कहा ”आज मैं यहां हूं, और शायद कल न भी रहूं। लेकिन मेरे भाईयों, मैं तुम्हें भरोसा दिलाना चाहता हूं कि यदि आप अपने जीवन और मृत्यु के संघर्ष के बीच में कासिम रिजवी को देखना चाहते हो तो उसे बंजारा की आलीशान इमारतों या लुभावनी चाय पार्टियों में मत देखो, यदि उसे देखना है तो लड़ाई के मैदान में देखो। ”पुलिस एक्शन;; के बाद जब भारतीय सेनाओं ने हैदराबाद में प्रवेश किया तो उन्हें किसी भी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा; उसकी गीदड़ भमकी इतनी फुस्स निकली कि उनका कोई महत्व नहीं रहा। वह पाकिस्तान भाग गया और गुमनामी में मर गया, कोई उसके लिए रोया भी नहीं। पीछे उसके जो साथी रह गए थे, उन्हें उसकी बेवकूफी का दण्ड भुगतना पड़ा”
टेलपीस (पश्च्यलेख)
इस पुस्तक में सरदार का कासिम रिज़वी के साथ निर्णायक संवाद इस प्रकार दिया गया है:
‘आप क्यों नहीं हैदराबाद को आजाद बने रहने देते‘, रिजवी ने पूछा।
‘मैं सभी संभावित सीमाओं से भी आगे गया हूं। मैंने हैदराबाद के मामले में जो माना है वह किसी और अन्य रियासत के बारे में नहीं स्वीकारा है‘- सरदार का जवाब।
‘लेकिन मैं चाहता हूं कि आप हैदराबाद की दिक्कतें समझें-रिजवी ने जोर दिया।
‘मुझे कोई कठिनाई नहीं है दिखती बशर्ते कि आप पाकिस्तान के साथ कोई समझौता नहीं करते तो‘-सरदार ने जवाब दिया।
‘यदि आप हमारी दिक्कतों को नहीं समझोगे तो हम नही झुकेंगे‘ आवेश में रिजवी ने चिल्लाकर बोला ‘हम लड़ेंगे और हैदराबाद के लिए हमारा आखिरी आदमी तक लड़ेगा।‘
‘यदि आप आत्महत्या करना ही चाहते हैं तो मैं कैसे आप को रोक सकता हूं?’ सरदार का यह शांत और दो टूक जवाब था।
लालकृष्ण आडवाणी

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