थर्ड फ्रंट माने “भाजपा भगाओ फ्रंट”

-अमलेन्दु उपाध्याय– भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस पर हमलावर होते-होते अचानक तीसरे मोर्चे पर हमलावर हो गए हैं। बीते मंगलवार को मोदी ने कहा ‘हर बार चुनावों में क्षेत्रीय दल तीसरे मोर्चे की बात चलाते हैं। पर चुनावों के बाद कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते हैं। इस बार भी 11 दल तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं। इनमें से नौ कांग्रेस के सहयोगी रह चुके हैं। यह थर्ड फ्रंट नहीं, कांग्रेस बचाओ फ्रंट है। अब इन लोगों को सबक सिखाने का समय आ गया है।’

अमलेन्दु उपाध्याय
अमलेन्दु उपाध्याय

तीसरे मोर्चे पर मोदी का हमला अनायास ही नहीं है, दरअसल यह मोदी की घबराहट का नतीजा है। यूँ तो तीसरा मोर्चा अभी बना भी नहीं है और चुनाव पूर्व बनने के आसार भी नहीं हैं जैसा कि माकपा नेता सीताराम येचपरी भी कह चुके हैं कि लोकसभा चुनावों से पहले कोई (तीसरा) मोर्चा नहीं होगा। ’’1977 से अब तक जब कभी गठबंधन हुआ है, चुनावों के बाद ही हुआ है, वह चाहे राजग हो या संयुक्त मोर्चा।’’ सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव भी कह चुके हैं कि आम चुनावों के बाद ही तीसरा मोर्चा बन सकता है। लेकिन मोदी का इस मोर्चे पर बिलबिलाने के निहितार्थ हैं।
दरअसल अभी तक मोदी और भाजपा स्वयं को कांग्रेस के एकमात्र विकल्प के रूप में पेश कर रहे थे और कांग्रेस भी मोदी को हवा दे रही थी और उसके पीछे दोनों दलों की सोची – समझी रणनीति थी कि देश में द्विध्रुवीय व्यवस्था का माहौल तैयार किया जाए क्योंकि यह तीसरी धारा वाले (जो कभी कांग्रेस की डाल पर जा बैठते हैं और कभी भाजपा की डाल पर) इनसे मुक्ति मिल सके। अरबों रुपया प्रचार पर फूँकने के बाद भी जब मीडिया घरानों ने प्री पोल सर्वे किए तो उनके परिणाम भी यही बता रहे थे कि यह तीसरी धारा वाले बिखरे भले ही हों पर कांग्रेस और भाजपा दोनों का खेल बिगाड़ सकते हैं। अगर 2009 के लोकसभा चुनाव की ही बात की जाए तो इस चुनाव में संप्रग और राजग को मिलाकर भी 48 फीसद से कम वोट मिले थे। वह भी तब जब कोई तीसरा मोर्चा उस चुनाव में न अस्तित्व में था और न मैदान में। पूरा चुनाव भाजपा के लौह पुरूष (अब कागज के पुतले) और उस समय ईमानदारी और विकास के मध्य वर्ग के ब्रांड एंबेसडर मनमोहन सिंह के बीच सिमटा हुआ था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर यही तीसरा फ्रंट 2009 में भी थोड़ा सा दम वाला होता तो नतीजे क्या हो सकते थे।
मोदी की समस्या तीसरे फ्रंट से यह नहीं है कि यह “थर्ड फ्रंट नहीं, कांग्रेस बचाओ फ्रंट” है। अगर यह थर्ड फ्रंट कांग्रेस बचाओ फ्रंट ही होता तो राजग का 24 दलों का भानुमती का पिटारा कैसे बनता। आज वाम मोर्चा और समाजवादी पार्टी को छोड़कर तीसरे फ्रंट के बाकी सभी दल तो एक समय में राजग की पालकी ही ढो रहे थे। तब मोदी और भाजपा को कोई परेशानी नहीं थी।
भाजपा की परेशानी का सबब यह है कि अकेले नीतीश और मुलायम ही अगर एक हो जाएं तो मोदी जी का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा तो यूपी-बिहार में ही बाँध लिया जाएगा, बाकी देश की बात तो छोड़ दीजिए। दूसरी मोदी की समस्या और विकराल है। अडवाणी जी ने तो काफी लंबे समय से बल्कि 2009 से पहले ही अपनी कट्टर हिंदुत्ववादी वाली रक्तरंजित खाल उतारने का प्रहसन शुरू कर दिया था और अटल जी की तरह उदारता का चोला ओढ़ने का प्रयास प्रारंभ कर दिया था लेकिन यही रक्तरंजित नरभक्षी चोला ही मोदी की यूएसपी है। ऐसे में अगर मई 2014 में राजग (भाजपा) अगर किसी जोड़-तोड़ से सरकार बनाने के नज़दीक पहुँचा भी (जो तमाम कॉरपोरेट घरानों के पम्प करने के बाद भी पहुँचेगा नहीं) तो मोदी के लिए 7 रेसकोर्स के दरवाजे नहीं खुलेंगे। जो मौजूदा समीकरण हैं उसमें तमाम किंतु-परंतु के बाद न तो नीतीश, न मुलायम, न ममता, न नवीन पटनायक, न जगनमोहन और चंद्र बाबू नायडू मोदी के साथ जाएंगे और लेफ्ट फ्रंट के विषय में ऐसा सोचा ही नहीं जा सकता। गैर भाजपा-गैर कांग्रेसी और क्षेत्रीय दलों में केवल मायावती और अरविंद केजरीवाल ही मोदी के साथ खड़े हो सकते हैं बाकी कोई नहीं। …और मायावती और केजरीवाल दोनों की कुल मिलाकर इतनी हैसियत बनने वाली नहीं है कि मोदी का राजतिलक करा सकें। हालाँकि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बहुत शातिराना ढंग से मोदी की मदद कर रही है इसके बावजूद मोदी से दिल्ली बहुत दूर ही रहेगी।
पूरी संभावना इस बात की है कि 2014 में त्रिशंकु संसद् ही बनेगी और अगर कांग्रेस 150 से नीचे रही (ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी) तो भी केंद्र में सरकार मोदी और राजग की नहीं बनेगी और ऐसी स्थिति में वामपंथी दल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसी स्थिति में वामदलों की धुर विरोधी ममता बनर्जी भी किसी हाल में मोदी या भाजपा के साथ नहीं जाएंगी। हाँ, अगर वे सियासी तौर पर आत्महत्या करने का इरादा कर लेंगी तो वाम विरोध में राजग के साथ जा सकती हैं अन्यथा नहीं।
यही स्थिति नीतीश, नवीन पटनायक की होगी। वे भी सियासी आत्महत्या करने से बचेंगे और बड़ी मुश्किल से दोनों के राजग से प्राण छूटे हैं, फिर किसी अंधे कुएं में गिरने से बचेंगे।
नज़र दौड़ाइए तो लोकसभा की 540 में से उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा जैसे राज्यों की लगभग 250 सीटों पर तीसरी धारा के दल ही मुख्य लड़ाई में हैं, यहां भाजपा का तो अता-पता ही नहीं है। फिर मोदी जी का मिशन 272 कहां से पूरा हो रहा है ?
उत्तर प्रदेश में भी तमाम किंतु-परंतु के बावजूद असली लड़ाई सपा और बसपा की है, भाजपा यहां प्रयास कर जरूर रही है लेकिन उसका यह प्रयास किसी परिणाम में बदलने वाला नहीं है। मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद समाजवादी पार्टी के प्रति अल्पसंख्यकों में बेशक नाराजगी है, लेकिन इस नाराजगी में अल्पसंख्यक यहां अपनी आँखें नहीं फोड़ लेंगे। यह बात भी सामने आ ही गई है कि मुजफ्फरनगर की हिंसा भाजपा द्वारा प्रायोजित थी और सपा सरकार डर-डर कर कदम उठाती रही, जिसके चलते सपा से अल्पसंख्यक नाराज़ हुआ। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वह मोदी जी की जै-जैकार करने लगेगा या उन मायावती के लिए पलक पांवड़े बिछा देगा जो मायावती आज तक मुजफ्फऱनगर जाने की जेहमत नहीं उठा सकीं और जिन्होंने खुलेआम कहा था कि उनकी पार्टी को तो मुसलमानों ने हराया है।
बिहार में भी मुख्य लड़ाई जद-यू और राजद की ही होगी। इसीलिए तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट से भी मोदी का तिलमिलाना बेसबब नहीं है। जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आएगा उनकी तिलमिलाहट में इजाफा ही होगा। यह थर्ड फ्रंट भले ही कांग्रेस बचाओ फ्रंट न हो या न हो लेकिन भाजपा भगाओ फ्रंट जरूर है। इसीलिए मोदी जी के निशाने पर यह थर्ड फ्रँट आया है क्योंकि 2014 को “मोदी मुक्त भारत” और “भाजपा मुक्त भारत” बनाने में यह मोर्चा कारगर हो सकता है।
अमलेन्दु उपाध्याय, लेखक हस्तक्षेप.कॉम के संपादक व राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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