काँग्रेस में शुरू हुआ टीम सोनिया बनाम टीम राहुल युद्ध

अमलेन्दु उपाध्याय
अमलेन्दु उपाध्याय

तमाम भविष्यवाणियों के बीच अब यह तय हो चुका है कि लोकसभा के चुनाव 2014 में ही होंगे और न तो काँग्रेस को चुनाव कराने की जल्दी है और न समूचे विपक्ष में दम है कि वह सरकार गिराकर समय पूर्व चुनाव करा दे। फिर ऐसे में चुनाव पूर्व की तरह बयानबाजियों और दाँव पेंचों का तात्पर्य क्या है। गौर से देखा जाये तो 2014 के बाद क्या सूरते हाल होगा और कौन 7 रेसकोर्स जायेगा और कौन आउट हो जायेगा इसकी भविष्यवाणी करना तो शायद जल्दबाजी होगी जैसी कि तमाम राजनीतिक विश्लेषक और कॉरपोरेट घराने दिखा रहे हैं। लेकिन एक बात साफ है कि 2013 को अगर देश के प्रमुख दोनों बड़े दलों में संक्रमणकाल कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। काँग्रेस और भाजपा दोनों ही आन्तरिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं और दोनों में ही सत्ता हस्तांतरण और नये युग की शुरूआत हो रही है। अन्तर सिर्फ यह है कि काँग्रेस का लम्बा राजनीतिक इतिहास है और उसके जीन में राजनीतिक संस्कार हैं इसलिये वहाँ सत्ता हस्तांतरण भी एक प्रक्रिया और वैचारिक मुलम्मा चढ़ाकर हो रहा है जबकि भाजपा में संस्कार भी कबीलाई हैं और उनका पितृ संगठन देश और धर्म को कबीलाई युग में ही ले जाना चाहता है इसलिये वहाँ सत्ता हस्तांतरण भी अश्वमेघ यज्ञ की तरह घर के बूढ़ों को बलिबेदी पर चढ़ाकर ही हो रहा है।

जो राजनीतिक विश्लेषक इस मुगालते में अब तक जीते रहे हैं कि भाजपा में फैसले लोकतान्त्रिक पद्धति से होते हैं उनकी आँखें शायद अब खुल जानी चाहियें कि वहाँ फैसले लोकतान्त्रिक पद्धति से नहीं ताकत के बल पर ही होते हैं। अगर भाजपा के लोकतान्त्रिक संस्कार होते और वहाँ कैडर का सम्मान होता तो भाजपा को भाजपा बनाने वाले लाल कृष्ण अडवाणी अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में इस तरह बेइज्जत करके किनारे नहीं धकियाए जाते। बहरहाल भाजपा अवाजो युग से मोदी-वरुण गाँधी युग में प्रवेश कर रही है और समय समय पर वह जिस उदारवाद का मुखौटा ओढ़ती रही है उसको खुद ही नोंच कर फेंकने लिये उतावली हो रही है। यह अच्छा भी है कि मुखौटों को दूसरे लोग चेहरे से नोंचकर फेंके उससे बेहतर है कि भाजपा खुद ही अपना मुखौटा नोंच फेंके।

ठीक ऐसी ही प्रक्रिया काँग्रेस में भी चल रही है। वहाँ भी कई आवरण उतार फेंकने की ओलम्पिक रेस मची हुयी है। आश्चर्य यह है कि2004 में संप्रग-एक सरकार बनने के समय से ही समूचा विपक्ष जो आरोप लगाता रहा कि केन्द्र में सत्ता के दो केन्द्र हैं और मनमोहन सिंह खढ़ाऊँ प्रधानमन्त्री हैं, संप्रग-2 की चलाचली की बेला में इन आरोपों की पुष्टि काँग्रेस आधिकारिक तौर पर कर रही है। काँग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का बयान और उसके बाद काँग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी का उससे नाइत्तेफाकी जताते हुये आया बयान न केवल विपक्ष के आरोपों की पुष्टि करता है बल्कि स्पष्ट संकेत है कि अंतःपुर में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है और सत्ता हस्तांतरण के दौर में उठापटक जोर-शोर से जारी है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इसी मंगलवार को कांग्रेस महासचिव जर्नादन द्विवेदी ने संवाददाताओं से कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमन्त्री के बीच बेहतर सामञ्जस्य हैं। दोनों के बीच जो रिश्ता है, वह पहले कभी नहीं देखा गया है। शायद भविष्य के लिये भी यह आदर्श है।’

राहुल गांधी के विषय में सवाल किये जाने पर द्विवेदी ने कहा ‘राहुल गांधी साफ कर चुके हैं कि संगठन उनकी प्राथमिकता है। राहुल यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमन्त्री पद के लिये वह इच्छुक नहीं।’ इसके साथ ही जनार्दन द्विवेदी ने जोड़ा – अभी प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह हैं और यह सभी मानते हैं, नेतृत्व के मसले पर अगले लोकसभा चुनाव के बाद चर्चा करेंगे। दरअसल कुछ दिन पहले ही काँग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा था कि संप्रग सरकार में टू पॉवर सेंटर का प्रयोग असफल रहा है। इसलिये काँग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी को किसी दूसरे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नहीं बनने देना चाहिये। जनार्दन द्विवेदी के इस बयान को दिग्विजय के बयान की काट के तौर पर देखा जा रहा है। सही बात यह है कि यह केवल दिग्विजय के बयान और उसकी काट तक जुड़ा मसला भर नहीं है। इन दोनों बयानों में काँग्रेस की भविष्य की राजनीति के संकेत छिपे हैं। गौर से देखा जाये तो जहाँ यह राहुल की टीम द्वारा भविष्य की राजनीति का संकेत है तो वहीं सोनिया की टीम द्वारा अपना अस्तित्व बचाने की कवायद है। राजघरानों का इतिहास बताता है कि हर सत्ता परिवर्तन के बाद पुरानी सत्ता के वफादार या तो बेरहमी के साथ कुचल दिये जाते हैं या अपनी निष्ठायें बदलने के लिये मजबूर कर दिये जाते हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद जो शातिर दिमाग के लेफ्टिनेंट होते हैं वे एकाएक पलटा मारते हैं और जो वफादारी की घुट्टी पिये रहते हैं वह अधोगति को ही प्राप्त होते हैं। पण्डित नेहरू के बाद से ही काँग्रेस में इस तरह के परिवर्तन और होते रहे हैं और 2014 के बाद काँग्रेस फिर इसी तरह के एक बड़े परिवर्तन की दहलीज पर खड़ी है।

याद होगा जब इन्दिरा गांधी, पण्डित जवाहलाल नेहरू के बाद काँग्रेस की राजनीति में आयीं तो उन्होंने भी सबसे पहले नेहरू जी के उन वफादारों को मिटा ही दिया जिनके बल पर वह गूँगी गुड़िया समझकर प्रोजेक्ट की गयी थीं। बाद में भी इन्दिरा जी अपने पुत्र जिन संजय गांधी की बदौलत सत्ता से बाहर हुयीं और बेशक उनकी सत्ता में वापसी का बहुत बड़ा श्रेय भी उन्हीं संजय गांधी की जीवटता, लड़ाकूपन और गुण्डा बिग्रेड को जाता है लेकिन इन्दिरा जी ने भी संजय की मृत्यु के बाद संजय गांधी की गुण्डा वाहिनी को ठिकाने लगाने का ही काम किया और जो समझदार थे उन्होंने अपनी आस्थायें बदल दीं।

सन् 1984 के बाद एक बार फिर इसी तरह का परिवर्तन काँग्रेस में देखा गया। राजीव गांधी सत्ता में आये तो उनकी मण्डली ने चुन-चुनकर इन्दिरा जी के वफादार शंट किये। और तो और प्रणब मुखर्जी जैसे लोग भी उसी दौर में ठिकाने लगा दिये गये थे। एक से एक पुराने इंदिरा जी के प्रतिबद्ध वरिष्ठ काँग्रेसियों को राजीव गांधी की दून मण्डली ने बेइज्जत किया। यह सिलसिला पीवी नरसिंहाराव ने भी जारी रखा और उन्होंने तो न केवल राजीव गांधी की मण्डली को ही ठिकाने लगाया बल्कि काँगेस को ही ऐसे मुकाम पर लाकर छोड़ा कि आज तक वह अपने पैरों पर खड़ी न हो सकी है।

लेकिन सोनिया गांधी का दौर काँगेस के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। जिस तरह से सोनिया ने ठेके-पट्टे पर सरकार के दो कार्यकाल चलाये ऐसा अद्भुत संयोग कम ही देखने को मिलेगा। इसलिये अगर जनार्दन द्विवेदी कह रहे हैं कि ‘कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमन्त्री के बीच बेहतर सामञ्जस्य हैं, दोनों के बीच जो रिश्ता है, वह पहले कभी नहीं देखा गया है, शायद भविष्य के लिये भी यह आदर्श है’ तो भूतकाल के विषय में गलत नहीं बोल रहे हैं। हाँ यह बात दीगर है कि भविष्य के विषय में उनके आदर्श चकनाचूर हो सकते हैं। सोनिया काल को भी देखें तो उन्होंने भी न केवल अपनी नयी मण्डली बनायी बल्कि राजीव गांधी की दून मण्डली को तोड़ कर रख दिया। यहाँ तक कि जिन अमिताभ बच्चन से दोस्ती के चलते राजीव गांधी तबाह हो गये थे उन अमिताभ को भी सोनिया ने ऐसा ठिकाने लगाया कि आज तक बेचारे अमर सिंह, मुलायम सिंह और नरेन्द्र मोदी के बीच में चल छइयाँ- छइयाँ- छइयाँ- छइयाँ कर रहे हैं। जिन सीताराम केसरी ने नेहरू परिवार से अपनी वफादारी के चलते नरसिंहाराव को ठिकाने लगाया और एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह जैसों की घर वापसी करायी सोनिया का पहला वार उन्हीं चचा केसरी के ऊपर हुआ और केसरी का अन्त बहुत कारूणिक हुआ। और बाद में केसरी पर हमले भी सोनिया ने उन अर्जुन सिंह से ही करवाये जिन्हें केसरी वापिस लेकर आये थे। क्या ऐसा ही हश्र बाद में कुँवर अर्जुन सिंह का नहीं हुआ? शायद आने वाले कुछ सालों में तो काँग्रेसियों को केसरी का नाम भी कोई अजूबा लगेगा। याद है चचा केसरी नेआईके गुजराल की सरकार द्रमुक को सरकार से बाहर किये जाने की माँग को लेकर ही गिरा दी थी जिसके बाद सोनिया की भारतीय राजनीति में कायदे से आमद हुयी। लेकिन सोनिया ने मनमोहन सिंह की सरकार उसी द्रमुक के सहारे बनवायी और चलवायी जिसके सवाल पर गुजराल क्लीन बोल्ड हो गये थे।

कुछ ऐसा ही इस संक्रमणकाल 2013 में भी घटित होने जा रहा है। संप्रग-1 और संप्रग-2 में जनार्दन द्विवेदी और अहमद पटेलकी तूती बोलती रही है ठीक उसी तरह जैसे कभी एमएल पोतेदार, आरके धवन, वी जॉर्ज की बोला करती थी। लेकिन राहुल बावा की टीम में सोनिया के इन कुर्क अमीनों की जगह नहीं ही होगी। दिग्विजय सिंह ने जो बयान दिया है उसके निहितार्थ टीम सोनिया को समझ में आ गये हैं। अपनी जगह दिग्विजय भी गलत नहीं हैं। सोनिया और मनमोहन सिंह की साझेदारी सत्ता के बँटवारे तक तो ठीक है लेकिन याद होगा कि जब राहुल गांधी को आगे बढ़ाने के लिये काम शुरू हुआ तो वह मनमोहन सिंह जो अपना खुद का चुनाव भी नहीं जीत सके (और राज्यसभा के सदस्य भी सोनिया गांधी की बदौलत ही आसाम से चुने गये अपने गृह राज्य पंजाब से नहीं और तीसरी बार पीएम बनने का ख्वाब भी देख रहे हैं) राजनीतिक भाषा में बयान देने लगे थे कि अभी वह प्रधानमन्त्री बने रहेंगे। इसलिये अगर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि संप्रग सरकार में टू पॉवर सेंटर का प्रयोग असफल रहा है इसलिये काँग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी को किसी दूसरे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नहीं बनने देना चाहिये, तो वह भी कुछ गलत नहीं कह रहे हैं। दिग्विजय भी उन्हीं मनमोहन सिंह से ही सीख लेकर ऐसा कह रहे हैं जिन मनमोहन को जनार्दन द्विवेदी रोल मॉडल बता रहे हैं।
इसलिये दिग्विजय के बयान पर जनार्दन द्विवेदी की सफाई का मतलब यह कतई नहीं है कि कांग्रेस की हवा खराब है और राहुल को दाँव पर नहीं लगा सकते? और न दिग्विजय का तात्पर्य यह है कि सोनिया और मनमोहन सिंह एक बेमेल मेल हैं? लेकिन दोनों अपने तौर पर सही हैं। दिग्विजय, राहुल काल में सत्ता का दूसरा केन्द्र नहीं बनने देंगे और जनार्दन द्विवेदी हर हाल में सत्ता के दो केन्द्र बनाना चाहेंगे ताकि उनका भी गुजारा होता रहे। वैसे पते की बात यह है कि द्विवेदी जी और अहमद पटेल साहब बहुत जल्द ही वी जॉर्ज की गति को प्राप्त होने वाले हैं, दिग्विजय सिंह वैसे भी झूठ कम ही बोलते हैं।

लेखक अमलेन्दु उपाध्याय राजनीतिक समीक्षक हैं। http://hastakshep.com के संपादक हैं. संपर्क[email protected]

error: Content is protected !!