–सिद्धार्थ शंकर गौतम– जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव की तारीख करीब आ रही है, आम आदमी पार्टी ‘आप’ की नौटंकी बढ़ती जा रही है| ‘आप’ को वन मैन शो बना चुके अरविंद केजरीवाल अब अपनी हदें तोड़ते नज़र आ रहे हैं| यहां तक कि ‘आप’ के जो कार्यकर्ता अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की टोपी पहन खुद को राजनीतिक भीड़ से अलग प्रस्तुत करते हैं; सर्वाधिक हिंसा पर उतारू हो गए हैं| केजरीवाल का दिवास्वपन कार्यकर्ताओं से उनकी हदें पार करवा रहा है| गुजरात में मोदी के खिलाफ प्रचार में उतरे केजरीवाल को आचार संहिता के उल्लंघन में गुजरात पुलिस ने रोका तो ‘आप’ ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया| यह प्रचारित किया गया कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ‘आप’ की लोकप्रियता से डर गए हैं और उनके गृहराज्य गुजरात के विकास दावों की पोल सार्वजनिक न हो अतः मोदी ने ही राज्य प्रशासन पर दवाब डलवाकर केजरीवाल का प्रचंड काफिला रुकवाया| जबकि असलियत यह है कि जब केजरीवाल रोड शो केलिये निकले तो उस वक़्त आचार संहिता लागू हो चुकी थी और कायदे से उनके काफिले में ३ वाहनों से ज्यादा नहीं नहीं होने चाहिए थे किन्तु टेलीविजन माध्यमों द्वारा पूरे देश ने केजरीवाल की कथित आदमियतता देख ली थी| जो आदमी आज से १० माह पहले तक आम आदमी की सरकार देने का वादा करते नहीं थकाता था, गुजरात में उसी के काफिले में करोड़ों की गाड़ियां दौड़ रही थीं| केजरीवाल को रोकने की कीमत देश ने दिल्ली और लखनऊ में ‘आप’ कार्यकर्ताओं के हिंसक प्रदर्शनों के रूप में देखी| चुनाव आयोग का भी मानना है कि मामले को लेकर ‘आप’ का रवैया कतई स्वीकार्य नहीं था और उसने ‘आप’ से जवाब-तलब भी किया किन्तु ‘आप’ ने उलटे भाजपा पर ही आरोप जड़ दिए| क्या ‘आप’ देश को अस्थिर करने का प्रयास कर रही है? क्या ‘आप’ लोकतांत्रिक प्रकिया में विश्वास खो चुकी है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब ‘आप’ की कार्यशैली को देखकर तो सही ही जान पड़ते हैं| दिल्ली की जनता को झूठे वादों-दावों से भरमाकर सत्तासीन हुई ‘आप’ का भ्रमजाल जब अधिक नहीं चल सका तो उसने लोकपाल मुद्दे पर शहीद होने का स्वांग रचकर देश को भरमाया और अब लोकसभा चुनाव हेतु कमर कसकर तैयार है| किन्तु भानुमति का कुनबा बन चुकी टीम केजरीवाल भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर का ऐसा स्याह पक्ष है जो राजनीति को गर्त में धकेलने के सिवा कुछ नहीं कर रही| आम आदमी की राजनीति के नाम पर जो ढोंग का मुखौटा केजरीवाल ने पहन रखा था, अब धीरे-धीरे ही सही मगर उतर रहा है| ‘आप’ के कई कार्यकर्ता केजरीवाल पर पार्टी को बंधक बनाने का आरोप लगाकर पार्टी को छोड़ चुके हैं| इनमें से कई तो पार्टी की स्थापना के समय से इसके साथ थे| सवाल उठता है कि जब केजरीवाल और उनके कुछ ख़ास पार्टी के सभी फैसले बंद कमरों में ले लेते हैं तो जनता को बरगलाने का ढोंग क्यों? केजरीवाल के झूठ लगातार उजागर हो रहे हैं और मीडिया का एक तबका उन्हें अब भी आम आदमी का नायक घोषित किए हुए है। क्या सत्ता का यही चरित्र दिखाने के लिए केजरीवाल ने आम आदमी के नाम को गाली दी? क्या कांग्रेस की बी टीम बनकर केजरीवाल एक तीर से दो निशाने नहीं साध रहे? केजरीवाल राजनीति के जिस कीचड में उतरकर उसकी सफाई करने निकले थे; खुद उसका हिस्सा बनकर आम आदमी की बेबसी पर कुटिल मुस्कान बिखेर रहे हैं|
‘आप’ की नौटंकी आखिर कौन सा स्वराज लाएगी?
दरअसल केजरीवाल ने तयशुदा स्क्रिप्ट के जरिए खुद को राजनीति के मैदान में उतारा है| इसमें उनका खुद ब्यूरोक्रेसी में होना और राजनेताओं के दावं-प्रपंचों से नजदीक से जानना अब उनकी मदद कर रहा है| केजरीवाल जितने भावनापूर्ण संबोधन देते हैं वे सुनने में तो अच्छे हैं किन्तु उनका यथार्थ के धरातल पर उतर पाना असम्भव ही है| मैं राजनीति में स्वच्छता का विरोधी नहीं हूं| राजनीति में साफ़-सुथरे आम आदमी का आना अब अवश्यम्भावी हो गया है किन्तु आम आदमी को भरमाकर या उसकी भावुकता को हथियार बनाकर राजनीति करना आम आदमी की राजनीति नहीं हो सकती| केजरीवाल की कथित सादगी और उसका प्रचार-प्रसार आम आदमी की राजनीति में नहीं आता| ‘आप’ के कई नेताओं की कथित सादगी सवालों के घेरे में है| एनजीओ के कई सर्वेसर्वाओं को लोकसभा का टिकट देकर यदि ‘आप’ यह सोच रही है कि उसने आम आदमी के बीच टिकट बांटे हैं तो वह गलत है| स्थापित नाम आपको एक्सपोजर दे सकते हैं किन्तु वोट नहीं दिलवा सकते| ‘आप’ को लोकसभा चुनाव मैदान में उतरने से पहले एक बार देश के राजनीतिक इतिहास की पृष्ठभूमि को खंगाल लेना चाहिए था| जिस साफगोई से केजरीवाल पार्टी सफ़ेद झूठ बोलती है उसका वर्तमान राजनीति में कोई सानी नहीं है| दिल्ली की सत्ता से देश की सत्ता पर काबिज होने का उनका सपना एक ऐसे भारत निर्माण का खाका पेश कर रहा है जहां सिर्फ और सिर्फ धोखा है| आम आदमी परेशान है लेकिन ‘आप’ को जनसमर्थन उसे दूरगामी परिणामों के रूप में सिर्फ तकलीफ ही देगा| लोकसभा चुनाव के बाद यदि ‘आप’ के चुनिंदा सांसद भाजपा या कांग्रेस में चल दें तो इस पार्टी का क्या अस्तित्व बचेगा? फिर ऐसा भी नहीं है कि ४०० लोकसभा सीटों पर लड़कर ‘आप’ केंद्र में सत्तासीन हो ले? कुल मिलाकर ‘आप’ को मिलने वाले वोट कांग्रेस-भाजपा का खेल तो बिगाड़ सकते हैं मगर उसे सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंचा सकते| और यह तथ्य देश का आम आदमी भी भली-भांति जानता है| तब एनजीओ रुपी संगठन से राजनीतिक पार्टी बनी ‘आप’ को इतना सर क्यों चढ़ाना? जब उनके पितामह अण्णा हज़ारे ने केजरीवाल एंड कंपनी पर भरोसा नहीं जताया तब आप और हम क्यों उनके झांसे में आएं? जो कॉर्पोरेट दिग्गज आज ‘आप’ से जुड़ रहे हैं उन्हें एनजीओ की कमाई नज़र आ रही है वरना कलयुग में ऐसा कौन सरफिरा होगा जो लाखों-करोड़ों की कमाई छोड़कर सिर्फ आम आदमी के लिए राजनीति में आए? आम आदमी अपनी भावुकता पर लगाम लगाए और ‘आप’ जैसे संगठनों के झांसे में आए| यदि दिल्ली में कुछ समय बाद पुनः चुनाव होते हैं तो उस प्रक्रिया में लगने वाला धन आम आदमी का होगा| ऐसे में ‘आप’ को मिश्रित जनादेश सौंपकर आम आदमी आखिर क्या साबित करना चाहता है? चूचू का मुरब्बा बन चुकी ‘आप’ में मुझे तो कोई भविष्य नज़र नहीं आता और न ही देशहित की व्यापक सोच ही लक्षित होती है| हां, ‘आप’ को कितना सर-माथे बिठाना है यह अब उस आम आदमी को तय करना है जिसकी दम पर ‘आप’ सत्तासीन होते ही उसे भूल गई| वैसे केजरीवाल जिन्हें दूसरों से सवाल पूछने का काफी शौक है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि ‘आप’ की नौटंकी आखिर देश में कौन सा स्वराज लाना चाहती है? http://www.pravakta.com