अनुराग शर्मा की लघुकथा ‘गन्जा’ मेरी नज़र में

देवी नागरानी
देवी नागरानी

साहित्य के बेपनाह विस्तार में कविता, लेख, लघुकथाएं, आलोचनाएँ सब हिन्दी भाषा की धाराए है. शीर्षक ‘लघुकथा’ सिर्फ़ शीर्षक नहीं एक सूत्र भी है , वह तो सागर की गागर में एक प्रविष्ट है: “लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है लघुता ही उसकी पूर्णता है, लघुता ही उसकी प्रभुता है. लघुकथा जीवन का साक्षात्कार है, गध्य और शिल्प निजी व्यवहार है और लेखक का परिचय भी.”
लघुकथा और कहानी को एक दूजे से अलग कर पाना मुश्किल है “कथा किसी एक व्यक्ति के द्वारा कही गयी कोई घटना है या उसकी आत्मकथा है। कथा का विषय मनुष्य और परिस्थितियों को जोड़ता हुआ सामाजिक जीवन से तालमेल खाता हुआ हो, उस विषय में कथा हो जो मन को टटोले, स्पर्श करे। जिसमें कथा ना हो, वो लघुकता कैसी? जीवन के छोटे छोटे जिये जाने वाले पल लघुकथा ही तो हैं । लघुकथा तब ही जीवित होकर साँसे लेती है जब वह पाठकों तक पहुंचती है, उनके हृदय को टटोल कर उनके मनोभावों को झकझोरती है, फिर चाहे उसमें चुटकीलापन, चुलबुलापन ही क्यों न हो, बस आत्मीयता भरा अपनापन ज़रूर हो। ऐसी ही एक लघुकथा श्री अनुराग शर्मा की है- ‘गन्जा’ ।
लघुकथा की पेचकश में, जाने अनजाने किरदार के जीवन की हक़ीकत से नावाक़िफ़, उसे ‘गँजा’ कहा जाने पर उस दोस्त को फ़टकारने के पश्चात मज़ाक करते हुए पात्र कहता है “वैसे बुरा मत मानना बाल बढ़ा लो, सिर मुंडवा कर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।”
कथा अपनी लघुता में प्रवेश करके संवाद करती है, अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति का उद्देश्य ख़ुद को प्रकट कर देता है. ” कथा का अंत बेपनाह मार्मिकता दर्शा रहा है जो इस अंश से ज़ाहिर है.
“मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हंस पड़े। आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह।“
उसकी शैली, उसकी लघुता, उसकी परिभाषा बनी
अब स्वाभाविक है प्रकट, आकार बनके लघुकथा.
है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा
अंकुरित भाषा सी उपजे, शब्द बनके लघुकथा.
-देवी नागरानी

लघुकथा ‘गन्जा’ की आत्मा में उतरकर आप भी अपनी राय क़ायम कीजिये…!

गन्जा – (लघु कथा)
Anurag-G-अनुराग शर्मा- वह छठी कक्षा से मेरे साथ पढ़ता था। हमेशा प्रथम आता था। फिर भी सारा कॉलेज उसे सनकी मानता था। एक प्रोफैसर ने एक बार उसे रजिस्टर्ड पागल भी कहा था। कभी बिना मूंछों की दाढ़ी रख लेता था तो कभी मक्खी छाप मूंछें। तरह-तरह के टोप-टोपी पहनना भी उसके शौक में शुमार था।
बहुत पुराना परिचय होते हुए भी मुझे उससे कोई खास लगाव नहीं था। सच तो यह है कि उसके प्रति अपनी नापसन्दगी मैं कठिनाई से ही छिपा पाता था। पिछले कुछ दिनों से वह किस्म-किस्म की पगड़ियाँ पहने दिख रहा था। लेकिन तब तो हद ही हो गयी जब कक्षा में वह अपना सिर घुटाये हुए दिखा।
प्रशांत ने चिढ़कर कहा, “सर तो आदमी तभी घुटाता है जब जूँ पड़ जाएँ या तब जब बाप मर जाये।“ वह उठकर कक्षा से बाहर आ गया। जीवन में पहली बार वह मुझे उदास दिखा। प्रशांत की बात मुझे भी बुरी लगी थी सो उसे झिड़ककर मैं भी बाहर आया। उसकी आँख में आंसू थे। उसकी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैंने कहा, “कुछ लोगों को बात करने का सलीका ही नहीं होता है। उनकी बात पर ध्यान मत दो।“
उसने आंसू पोंछे, तो मैंने मज़ाक करते हुए कहा-“वैसे बुरा मत मानना बाल बढ़ा लो, सिर घुटाकर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।“
मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हंस पड़े। आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह।

1 thought on “अनुराग शर्मा की लघुकथा ‘गन्जा’ मेरी नज़र में”

  1. Girdhar ji, is prastuti ke liye aapka abahut bahut dhanywaad. Pravasi sahitykar is manch tak aaye yeh khushi ki baat hai

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