जब शर्मा साहब जोनल मजिस्ट्रेट बने

शिव शंकर गोयल
शिव शंकर गोयल

शर्माजी सरकारी नौकरी में इंजीनियर थे. ठहरिये, मैं आपको उनका पूरा नाम बताता हूं, आगे काम आएगा. वह कभी अपने आपको डीसी शर्मा तो कभी दिनेष चंद शर्मा लिखते थे. एक बार चुनाव में सरकार ने उनकी सेवाएं लेनी चाही अत: एक रोज चुनाव आयोग से एक साथ दो-दो ऑर्डर उन्हें मिले. पहला आदेश डीसी शर्मा के नाम से, जिसमें उन्हें जिलाधीश कार्यालय में ही रिजर्व-कृपया मेहरबानी करके यहां रिजर्व का मतलब कुछ और नही लगायें- रखा गया जबकि दूसरे आदेश के तहत उन्हें मुख्यालय के पास के कस्बे में जोनल मजिस्ट्रेट बनाया गया। सरकार द्वारा मजिस्ट्रेट बनाये जाने से उन्हें अच्छा तो लगा लेकिन थोड़ा अचम्भा भी हुआ क्योंकि न तो उन्होंने कभी कानून यानि एलएलबी की पढ़ाई की थी न ही कभी ज्यूडीशल सर्विस की कोई परीक्षा ही दी, लेकिन सरकारी नौकरी करने का यही तो मजा है। उन्हें याद आया जब उन्होंने सिविल इंजी. में मास्टर ऑफ इंजीनियरिंग पास की तो वे अपने हेड ऑफ दी डिपार्टमेंट श्री वर्मा साहब से मिलने गए. दुआ सलाम के बाद बड़प्पन दिखाते हुए वर्मा साहब बोले अब तुम डॉक्टरेट क्यों नहीं कर लेते, इस पर शर्माजी ने कहा, सर, उससे मुझे क्या फायदा होगा? इस पर वर्मा सर ने कहा बनिये की तरह हर चीज को नफा-नुकसान से तौलते हो. अरे, और कुछ नहीं तो तुम्हारें नाम के आगे डाक्टर ही लग जायेगा. शर्माजी ने जवाब दिया सर, रहने दीजिए. इससे उल्टे मेरी परेशानियां ही बढ़ेंगी. ज्योंही पास पड़ौस वालों को पता लगेगा कि मैं डाक्टर हो गया हूं तो रात-बिरात कोई न कोई सर्दी-जुकाम या पेट दर्द की दवा लेने चला आयेगा. मैं किस किस को समझाउंगा कि मैं वो वाला डाक्टर नही हूं, ये वाला डाक्टर हूं, क्योंकि फिर लोग पूछने लगेंगे कि ये वाला, वो वाला क्या होता है? क्या-क्या काम आता है, आदि आदि. इसलिए मैं तो इंजीनियर ही ठीक हूं, जैसे तैसे आगे की जिन्दगी में अपना काम चला लूंगा। हालांकि बाद में एक रोज उन्हें अपनी गलती महसूस हुई जब उन्होंने अपनी पत्नी को, पड़ौसन से, यह कहते हुए सुना कि क्या करूं बहन, मेरे तो भाग्य ही ऐसे हैं जो इंजीनियर के पल्ले पड़ी वर्ना मेरी एक अनपढ़ सहेली है, लेकिन जबसे उसकी शादी एक मास्टर से हुई वह मास्टरनी कहलाती है.
खैर, इधर शर्माजी के मजिस्ट्रेट बनने के आदेश आए उधर उनके रूतबे ऊंचे हो गए. वह कल्पना में जमीन से 6 इंच ऊपर चलने लगे, जैसे महाभारत में युधिष्ठर के बारे में सुनते हैं और ऐसा हो भी क्यों न, एक ही जिन्दगी में एक आम आदमी को थ्री इन वन यानि इंजीनियर, डाक्टर और मजिस्ट्रेट बनने के अवसर मिल जाएं तो और क्या चाहिए?
आदेशानुसार चुनाव कराने, उसकी व्यवस्था इत्यादि हेतु निर्धारित दिन वे ट्रेनिंग लेने भी गए. वहां ट्रेनिंग देने वाले शख्स मतदान टोलियों को मतदान के विभिन्न पहलू समझा रहे थे. ट्रेनिंग के शुरू में ही प्रशिक्षक ने एक टे्रनी से पूछा अच्छा बताओ पीठाधिकारी कौन होता है? वह क्या करता है? तो उस टने जवाब दिया कि चुनाव के दौरान बूथ पर कोई घटना हो जाए उस समय पीठ दिखा कर खिसक जाए वह पीठाधिकारी कहलाता हैं. इस पर सभी लोग मुस्कराने लगे लेकिन ट्रेनिंग देने वाले सज्जन कुछ नाराज हुए. खैर, थोडी देर बाद उन्होंने एक अन्य ट्रेनी से पूछा कि रिटर्निंग ऑफीसर कौन होता है? इसके जवाब में वह ट्रेनी बोला कि जो वोट देने आएं उनमें से किसी को भी जब चाहे तब रिटर्न-वापस, कर दे वह रिटर्निंग ऑफीसर कहलाता है। इतना ही नहीं ट्रेनी ने अपनी बात के समर्थन में एक घटना का ब्यौरा भी दिया. उसने बताया कि पिछले मतदान में जिस पॉलिंग पार्टी के साथ वह था, उस मतदान केन्द्र पर एक व्यक्ति वोट देने आया जो लिस्ट के अनुसार स्वर्ग सिधार चुका था. वह रिटर्निंग ऑफीसर के पास गया तो उन्होंने उसे मजाकिया लहजे में कहा कि आप उपर से वोट देने आए हो क्या, वहां भी कोई हवा है? इस पर उसने जवाब दिया कि सर, हवा वहां कैसे होती, वहां व्यापारिक घरानों द्वारा पोषित मीडिया जो नहीं है. यह तो गनीमत है कि समाचारों की यह हेरा-फेरी महाभारत में संजय ने नहीं की वरना अनर्थ नहीं हो जाता?
ट्रेनिंग लेने के बाद एक रोज एसडीएम साहब ने शर्माजी को कहा कि शहर में धारा 144 लगी हुई है, आप राउंड लेकर आओ. वह जीप में थोड़ी देर इधर उधर घूम कर वापस आ गए और आकर कहा कि आप तो शहर में 144 धारा की बात कर रहे हैं, लेकिन मुझे तो वहां एक भी धारा दिखाई नहीं दी, सारी सड़कें सूखी पड़ी हैं. लोग बता रहे थे कि नलों में पानी आए तीन-तीन दिन हो गए हैं. जब मैंने लोगों से किसी भी तरह की लहर की बात करनी चाही तो वे बोले रेगिस्तानी इलाके में लहर की बात कर रहे हैं, कहां से आए हैं?
चुनाव के दो रोज पहले मतदान दल अपने अपने सामान के साथ निर्धारित बूथ की तरफ चल दिए. इधर शर्माजी भी एक जीप में जोनल मैजिस्ट्रेट की तख्ती लगाकर कुछ पुलिस वालों के साथ उधर ही रवाना हुए. रास्तें में एक स्थान पर जाना पहचाना ढ़ाबा देख कर पुलिस वाले खाना खाने के लिए उतर गए. शर्माजी ड्राइवर के साथ आगे बढ़ गए. इसी दौरान रास्ते में एडीएम साहब मिल गए. जीप पर चुनाव ड्यूटी का बोर्ड देख कर उन्होंने शर्माजी को रुकने का इशारा किया और पास आने पर बोले कि जाब्ता कहां है? शर्माजी को जाने क्या समझ आया, उन्होंने जवाब दिया सर, मैंने तो अभी तक कोई चीज जब्त की नहीं है और साथ के पुलिस वालों ने किसी का कुछ जब्त किया हो तो वह मेरी जानकारी में नहीं है. एडीएम साहब उम्रदराज एवं अनुभवी थे, मुस्करा कर यह कहते हुए, आगे बढ़ गए कि जैन्टलमेन सावधानी से काम करो। कुछ देर बाद शर्माजी भी कस्बे की तरफ बढ़ गए. वहां घूम घूमकर उन्होंने तसल्ली करली कि सभी मतदान दल अपने अपने स्थान पर पहुंच गए हैं या नही. वापस अपने ठहरने के स्थान पर लौटते वक्त उन्हें रास्ते में दूसरे एसडीएम मिल गए. पूछने पर शर्माजी ने उन्हें बताया कि सभी मतदान दल अपने अपने गंतव्य पर पहुंच चुके हैं. इतना सब कुछ बताने के बावजूद उन्हें लगा कि एसडीएम साहब अभी भी सन्तुष्ट नहीं हैं और वही हुआ. एसडीएम साहब ने शर्माजी को फिर पूछा कि पोलिंग पार्टियां बीच के चैकिंग पाइंट से पास हुई हैं या नहीं. शर्माजी ने फिर दोहराया कि सर, सभी मतदान दल अपने अपने डेस्टीनेशन पर पहुंच चुके हैं. मैं स्वयं चैक करके आया हूं, परन्तु लगा कि फिर भी एसडीएम साहब सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि जाते वक्त वह बड़बड़ा रहे थे कि तुम्हारी शिकायत कलक्टर साहब से करनी पड़ेगी। इस अवधि के दौरान यानि तीन रोज शर्माजी का मुख्यालय कस्बे का पुलिस थाना रहा. वह मन मार कर वहां ठहर तो गए लेकिन एक शंका उन्हें बार बार सताये जा रही थी, जो उन्होंने सरकारी नौकरी के दौरान कहीं पढ़ी थी, जिसके अनुसार कोई भी सरकारी कर्मचारी 48 घंटे से अधिक थाने में रहे तो वह ऑटोमेटिक सस्पैन्ड माना जाता है, अलग से किसी कार्यवाही की जरूरत नहीं होती. इस बात का सीधा सा मतलब हुआ कि चुनाव के बाद वापस लौटने पर उनकी खैर नहीं. आप भी देख रहे हैं न कि एक तो सरकारी ड्यूटी करो और एवज में सस्पैन्ड और होओ. कहां का न्याय है?
-ई. शिव शंकर गोयल

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