जम्मू में जलाल के आँसू

प्रो. एस.एन. सिंह
प्रो. एस.एन. सिंह

ब्रिटिश शासन काल के दौरान नई दिल्ली के त्रि-मूर्ति भवन में भारत के ब्रिटिश सेनापति रहा करते थे। यही त्रि-मूर्ति भवन आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरू का निवास स्थान बना। प. नेहरू की 1964 में मृत्यु हो जाने के बाद से इस भवन को उनके स्मारक के रूप में संग्रहालय बना दिया गया। तदन्तर इसके विस्तृत और हरा भरे परिसर में आधुनिक भारत से सम्बंधित विषयों से जुड़े अध्ययन एवं शोध के लिए पूर्णतः वातानुकूलित पुस्तकालय भारत सरकार के द्वारा बनाया गया। सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओं से युक्त इस पुस्तकालय में प्रायः इतिहास, राजनीति विज्ञान और समाज शास्त्र के शोधार्थी, शिक्षक और कुछ वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एवं राजनेता अध्ययनरत रहते है। 1980 और बाद के कुछ वर्षों में मुझे भी यहाँ अध्ययन करने के साथ-साथ अन्य शोधार्थियों से समाज और देश के बारे में चर्चा करने का अवसर मिला था। हालाँकि उस समय के बहुत से पुराने साथी बिछड़ गये और उनमें से कुछ यदा-कदा फिर से मिले। लेकिन बहुत से साथियों का अभी तक भी ठौर-ठिकाना मालूम नहीं है। उन्हीं में से एक जलाल भाई है जो मेरी तरह ही विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पद तक ही सीमित रहे। गत 34 वर्षों में उनसे तीन-चार बार मुलाकातें हुई। एक-दो मुलाकातें त्रि-मूर्ति भवन के पुस्तकालय में और एक उनके निवास स्थान जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू में तथा एक बार मेरे निवास स्थान अजमेर में।
शोध के दौरान हम लोग चाय का रसास्वादन उस कैंटीन में जो उन दिनों पुस्तकालय के मुख्य भवन में ही स्थित थी, साथ बैठकर किया करते थे। कैंटीन भी वातानुकूलित थी अतः कुछ अधिक समय तक बैठ जाया करते थे। चाय के दौरान होने वाले इस वार्तालाप में उनके जामिया मिलिया के और मेरे जे.एन.यू. एवं पटना विश्वविद्यालय के साथी भी यदा-कदा शामिल हो जाते थे। साथियों के विचारों एवं दृष्टिकोण में भिन्न्ाता होना स्वाभाविक ही होता है अतः कुछ साम्यवादी, तो कुछ गाँधी-नहेरू, और लौहिया-जयप्रकाश के अनुयायी थे। विचार भले ही भिन्न थे लेकिन विचार मंथन साथ बैठकर किया करते थे। इसे बुद्धिवादियों की चाय वार्ता अथवा बुद्धि विलास भी कहा जा सकता है। चाय के मेज पर हम लोग अपने शोध एवं अध्ययन के विषय के अतिरिक्त देश और दुनिया की घटनाओं पर भी बातें किया करते थे। मेरे शोध का विषय आधुनिक भारत में जाति और आरक्षण था तो जलाल भाई का अध्ययन क्षेत्र मध्यकालीन भारत में भूमि सुधार। हमारे विषय रोचक थे, अतः हम इन विषयों पर अधिक चर्चा किया करते थे। चर्चा में कई बार मत-भिन्न्ाता के कारण बहस में काफी तार्किकता आ जाती थी। जाति व्यवस्था पर चर्चा के दौरान जलाल भाई सवर्ण हिन्दूओं के द्वारा दलितों के साथ किए गए छूआछूत के व्यवहार की निन्दा करते एवं उसे अमानवीय बताते थे। उनका कहना था कि हिन्दू समाज यदि कटिबद्ध होकर बिना संकीर्णता के कार्य करें तो अपने बीच सदियों से स्थापित जातीय स्तरीयकरण (ऊँच-नीच) के भेदभाव को आधुनिक भारत में समाप्त कर सकता है। मैंने उन्हें बताया कि यदि हिन्दूओं में जातिगत भेदभाव, ऊँच-नीच का दोष और छूआछूत जैसे विकृति दूर हो जाएगी तो हिन्दू धर्माबलम्बी एक हो जायेंगे लेकिन उच्च सवर्ण हिन्दू जो अपने आपको हिन्दू समाज के ठेकेदार समझते है वे ऐसा कभी नहीं होने देंगे। यद्यपि ऐसा सम्भव नहीं है फिर भी यदि ऐसा हो जाये तो क्या हिन्दुओं के भी इस्लाम और ईसाई धर्म की तरह एक ही धार्मिक ग्रंथ और एक ही आराध्य देव होंगे। लेकिन ऐसा हिन्दूओं में कभी नहीं हो सकता है क्योंकि हिन्दू धर्म एकात्मवादी नहीं है, बहुलवादी है और उनमें हजारों देवी-देवता, अनेक धर्म ग्रंथ और भिन्न्ा-भिन्न्ा पूजा पद्धतियाँ और अनेकानेक सम्प्रदायों के धार्मिक स्थान हैं। साथ ही भारत में हिन्दुओं की जातीय बहुलता के कारण ही 1947 में धार्मिक आधार पर भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ और उसके बाद भी भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना हुआ है। भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले बुद्धिजीवी लोगों ने और केवल भारत के संविधान ने नहीं बनाया है धर्मावलम्बियों ने बना कर रखा है जो वरन् भारत के बहुसंख्यक हिन्दू धार्मिक सह-अस्तित्व की भावना रखते है। इन लोगों में सभी धर्मो को मानने वालों के प्रति प्रेम और सद्भाव की भावना तो है लेकिन अपनों से दुराव और भेदभाव की प्रवृत्ति भी आज तक विद्यमान है। अन्य धर्मों में भी जातीय स्तरीकरण शादियों में जातीय बंधन, आर्थिक स्तर पर इसी प्रवृत्ति के लोगों ने इस्लाम विभेद को सुद्दढ़ किया है। फिर भी जलाल भाई का यह तर्क था कि इबादत के लिए तो मस्जिद में सभी मुस्लिमों का समान रूप से प्रवेश है और सभी साथ-साथ इबादत करते है। लेकिन हिन्दूओं में आज भी इसका अभाव है। कई मन्दिरों में तो दलितों का प्रवेश आज भी वंजित है।
चर्चा के दौरान जलाल भाई मुगल शासक औरंगजेब के द्वारा मन्दिरों को दिए गए जमीनों के पट्टों का भी जिक्र किया करते थे। उनका तर्क था कि कुछ अपवादों को छोड़कर भारत में मुगलकाल में साम्प्रदायिक सौहार्द्र की भावना थी तथा प्रशासनिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। इसी क्रम में भूमि सुधारों की चर्चा भी होती थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को सरकार के द्वारा भारत में विलय करने के बाद भूमि सुधार यानि कृषक को भूमि का मलिकाना हक देने में अग्रणी राज्य बताया। जब मैंने इसका सामाजिक-धार्मिक स्वरूप पूछा तो उन्होंने बताया कि वहाँ के अल्पसंख्यक (हिन्दू) जमींदार थे और बहुसंख्यक (मुस्लिम) कृषक और मजदूर। जलाल भाई में भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने और जम्मू-कश्मीर राज्य का स्वयं का अलग संविधान होने की बात को भी महत्वपूर्ण बताया। साथ ही उस समय उन्होंने अनुच्छेद 370 को भारत की धर्मनिरपेक्षता के लिए और मुस्लिमों के लिए हित साधक भी बताया। अनुच्छेद 370 मेरे शोध के दायरे में भी नहीं था अतः हमने इस पर चर्चा को आगे बढ़ाना बंद कर दिया। दिल्ली के बुद्धिजीवियों की नजर में अनुच्छेद 370 पर चर्चा करना साम्प्रदायिकता माना जाता था। इस पर चर्चा करने वालों को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या भारतीय जनता पार्टी का एजेण्ट कहा जाता था। उन दिनों में मत भिन्न्ाता होने पर किसी को भी साम्प्रदायिक या सामन्ती प्रवृत्ति का बता देना बहुत प्रचलित और आम बात थी। वैसे तो आज भी बहुत सारे बुद्धिजीवी और राजनैतिक दल अपने आपको धर्मनिरपेक्ष मानते है भले ही उनकी सोच जातिवादी और संकीर्ण बुद्धि की क्यों न हो? लेकिन वे दूसरों को साम्प्रदायिक कहने में नहीं चूकते है। कई बार हम लोग ऐसे विवादित मुद्दों पर चर्चा बीच में छोड़कर अपने अध्ययन की मेज की तरफ बढ़ जाते थे। समय के अन्तराल और परिस्थितियों के कारण हम लोग अपनी-अपनी जीविका के लिए बिछड़ गए। लेकिन ऐसे अवसर भी आये जब हम लोग फिर कभी छुट्टियों में, सेमिनारों में या एक-दूसरे के विश्वविद्यालयों में कार्यवश जाने पर पुनः मिल जाते थे।
जलाल भाई से गत तीस वर्षों के लम्बे अन्तराल में दो मुलाकात काफी यादगार रही है। एक मुलाकात जम्मू विश्वविद्यालय परिसर में उनके निवास स्थान पर हुई। जब मुझे विश्वविद्यालय में जाने का अवसर मिला। उन्हें विश्वविद्यालय में काफी अच्छा बंगला मिला हुआ है। उन्होंने अपने और अपनी बेगम-बच्चों की पसन्द के मुताबिक बागवानी भी कर रखी है। मैंने उनके बंगले की तारीफ की और पूछा आप यहाँ कब से रह रहे हैं। उन्होंने बताया पदौन्न्ाति के साथ-साथ बंगला बदलता रहा। शुरू के दिन काफी खराब थे जब जम्मू शहर में किराया का मकान मिलना कठिन कार्य था और किराया भी ज्यादा देना पड़ता था। वहाँ हिन्दू परिवार अधिक है उन्हें मुस्लिम किरायेदार रखने में हिचकिचाहट और संशय बना रहता है। ज्यादातर मुस्लिम मकान मालिकों का अपना परिवार ही इतना बड़ा होता है कि किराये पर मकान देने के लिए उनके पास कमरे ही नहीं होते। खैर पाँच-छह वर्ष मंहगे किराये के घर में गुजारकर विश्वविद्यालय परिसर में आ गये। कहने लगे अब मकान किराया नहीं मिलता और ऊपर से विश्वविद्यालय मकान का किराया भी काटती है। उन्होंने बताया अब ”मियाँ इस बंगले में दोनों तरफ से हलाल हो रहा हूँ।“ इस तरह अपना मकान होता तो किराये का पैसा बचता। उनके घर हमारी मेहमानबाजी समाप्त हुई। मैंने उन्हें अजमेर में आने के लिए उसी समय आमन्त्रण दे दिया। उन्होंने कहा ”ख्वाजा ने बुलाया तो जरूर आऊँगा“ और वे इस उर्स के मुबारक मौके पर अजमेर शरीफ तशरीफ ले आये।
उन्होंने अजमेर शरीफ, सरवाड़ और पुष्कर की यात्रा की। अजमेर का ढ़ाई दिन का झौपड़ा, तारागढ़ और अकबर का किला भी देखा। वे खुद मध्यकालीन भारत के इतिहासकार ठहरे अतः इन चीजों को बड़े मनोयोग से देखा। तारागढ़ और इसके निर्माता पृथ्वीराज चौहान के शब्दभेदी बाण और महाकवि चन्द्रवरदाई की कृति पृथ्वीराज रासो की बात की। बाद में अकबर के किले में जहाँ जहाँगीर से ब्रिटिश दूत ने भारत में तिजारत करने की अनुमति ली थी उसकी चर्चा भी की। उन्होंने बताया कि भारत में ब्रिटिश गुलामी की स्वीकृति इसी किले से हुई है। मैंने उन्हें शाम के समय अपने घर भोजन के लिए दावत दी। उन्होंने पूछा विश्वविद्यालय कैम्पस में रहते हो या अन्यत्र। मैंने उन्हें अपने खुद के घर का पता बताया जहाँ मैं गत 25 वर्षों से रहता हूँ। उनकी बेगम पूछ बैठी आप तो ”बिहार“ के रहने वाले है और यहाँ अपना घर भी बना लियो। जलाल भाई अपनी बेगम से कहा तुम इसकी चर्चा छोड़ो। बेगम साहिबा चुप हो गई, जलाल भाई बोले शाम 7 बजे मुझे लेने आ जाना।
इसके बाद मैं शाम को जलाल भाई को सपरिवार मेरे घर लेकर आया। भोजन उनकी रूचि के अनुसार बना था। जलाल भाई की बेगम और बच्चे भोजन से ज्यादा मेरे मकान में रूचि दिखा रहे थे। मकान कब बनाया, कितने में बनाया, अब कितनी कीमत है, सेवानिवृत्ति के बाद जब यहाँ से जाएगे तो कितने में बेचकर जायेंगे या यही रहेंगे? फिर उन्होंने पूछा क्या विश्वविद्यालय में सरकारी बंगला नहीं है। मेरी पत्नी ने तपाक से जवाब दिया वहाँ क्यों रहूँ, एक तो मकान-किराया नहीं मिलेगा और ऊपर से वेतन से भी पैसा कटेगा। यहाँ तो लोग मकान-किराया के मिलने वाले पैसों से लोन की किश्त भर देते है हमने भी ऐसा ही किया और अब मकान पर कोई कर्ज भी नहीं रहा है। सेवानिवृत के बाद इसमें रहूँ या इसे बेच कर कहीं भी मकान खरीद सकती हूँ। मेरी पत्नी ने उन्हें जमीन खरीदकर अपना मकान बनाने और उसके बाद आने वाली आर्थिक तंगी के बारे में भी बताया। तब बेगम साहिबा ने कहा 25 साल पहले तो जमीन कौड़ियों के भाव ली होगी मकान बनाना भी सस्ता रहा होगा। इसे बेचकर तो आप मालामाल हो जाएगी। इसकी कीमत के बराबर भाई साहब जीवन भर में बचत नहीं कर पाये होंगे। मेरे प्रोफेसर साहब कहते है कि रिटायरमेन्ट के बाद जो पैसा मिलेगा उससे दिल्ली में घर खरीद लूँगा। जम्मू में किराया ज्यादा है, वहाँ रह नहीं सकता। मैं उनसे वर्षों से लड़ती रही हूँ, की अपना घर बनाओ पर बहाना बनाते हैं कि बच्चों की तालीम पहले पूरी कर लूँ, घर तो बाद में देखा जायेगा। मुझसे रहा नहीं गया, मेरे मुँह से अनायास निकल गया भाभीजान ये आपसे झूठ बोलकर पैसे का बहाना करते है। आप लोग जम्मू कश्मीर से बाहर के है और वहाँ कोई गैर कश्मीरी व्यक्ति भले ही नौकरी करता हो और वर्षों से रह रहा हो फिर भी वहाँ पर जमीन-मकान नहीं खरीद सकता। यह कानून कश्मीर के हिन्दू और मुस्लिमों की आपसी रजामंदी से बना है।
बेगम साहिबा का वही रटा रटाया सा जवाब आप बिहार से आकर राजस्थान में खुद नौकरी पर लगे और पत्नी को भी नौकरी पर लगा दिया यहाँ पर जमीन लेकर मकान मालिक हो गये, वाशिंदे भी हो गये। आज ही मैं अजमेर में ही प्रोफेसर कौल साहब के घर गई थी। 1990 में श्रीनगर से आतंकवादियों ने पंडितों को भगा दिया। उनकी नौकरी भी गई और मकान भी हड़प लिया गया। फिर अजमेर आकर यहाँ नौकरी भी की और यहाँ मकान भी खरीद रखा है। उनके बेटे-बहु भी लेक्चरार बन गये। असगर साहब श्रीनगर छोड़कर दिल्ली के निवासी हो गये और उनके कुछ बेटा-बेटी दिल्ली, मुम्बई और बैंगलौर में भी नौकरी-धन्धा करते है। वहाँ भी उनका मकान और दुकान है। फिर मेरा जम्मू में घर क्यों नहीं? मेरी पत्नी ने उन्हें समझाया जम्मू-कश्मीर के लोग भारत में कहीं ही पढ़ाई, व्यापार, नौकरी कर सकते हैं, सम्पत्ति खरीद सकते है, बेच सकते है पर भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में सम्पत्ति नहीं खरीद सकते है। जम्मू कश्मीर का संविधान और अनुच्छेद 370 आपको यह हक नहीं देता है। दोनों महिला में फिर बहस हुई। उन्होंने कहा जम्मू कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम है और मैं मुस्लिम हूँ, हिन्दू-सिख नहीं हूँ फिर भी मुझे यह हक क्यों नहीं है? आगे बेगम साहिबा ने पूछा क्या ”जम्मू-कश्मीर“ पाकिस्तान में है, भारत में नहीं? जलाल भाई ने कहा पाकिस्तान से आने वालों को वहाँ का संविधान उन्हें हक देता है लेकिन हम भारतीय इससे महरूम है भले ही मुस्लिम ही क्यों नहीं हो। बहस में बच्चों ने भाग लिया। एक ने कहा मोदी के गुजरात में 2002 में एक हजार के करीब मुसलमान मारे गए। दूसरे ने कहा 1984 में दिल्ली में भी तो तीन हजार सिख मारे गए। जम्मू कश्मीर में भी हिन्दू-मुस्लिम रोज मारे जाते हैं। उत्तर प्रदेश और असम के धर्म-निरपेक्ष सरकार में भी मुजफ्फरनगर और कोकड़ाझार में दंगे हुए और सैकडों मुस्लिम बेरहमी से मारे गये उनके घर जलाये गये और हजारों आज भी बेघर होकर कैम्पों में रह रहे है। दंगा रोकना प्रशसनिक जिम्मेदारी है धार्मिक मसला नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने 2002 के बाद तो गुजरात में दंगे नहीं होने दिया, यहाँ तक की कर्फ्यू भी नहीं लगने दिया, दूसरे जगह तो अब भी जारी है।
फिर उन्हें नरेन्द्र मोदी का बयान याद आया जिसमें उन्होंने फारूख अब्दुला की बेटी और अजमेर के सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलेट की पत्नी के लिये कहा कि क्या वह एक इंच जमीन भी अपने मायके यानि जम्मू कश्मीर में खरीदने की बात कह सकती है। इस दलील पर उन्होंने संतोष किया जब फारूख अब्दुला की बेटी वहाँ जमीन नहीं खरीद सकती तो मैं कैसे खरीद सकती हूँ? फारूख अब्दुला का पूरा वंश परम्परा भारतीय फौज की पनहा में जीते है और भारतीय सैनिकों को ही वहां से वापस भेजना चाहते है। उनकी पार्टी नेशनल कर्न्फेस अब तो सिर्फ कश्मिरियों की कर्न्फेस है और वहां वर्षों से रहने वाले लोगों को कोई भी सम्पत्ति, शिक्षा और नौकरी सम्बन्धी अधिकार राज्य ने नहीं देते है। भला उनसे उम्मीद करना बेकार है। जलाल भाई बोले अब तो और भी मुश्किल है जब भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी साहब ने ही अनुच्छेद 370 को चुनाव से पहले ही भुला दिया है यदि सरकार बनी तो प. नेहरू और वाजपेयी जी की तरह कहेंगे इस पचड़े में क्यों फंसे। लेकिन बाद में उनकी बेगम साहिबा ने कुछ उम्मीद भरी बातें कही की मैं अभी हार नहीं मानूंगी और अन्ना हजारे और शाजिया इल्मि से मिलकर जम्मू में घर खरीदने के हक और हकूक के लिए लडाई जारी करूंगी। हमें भी कश्मीर के सुन्दरवासियों में जीवन गुजारने का मौका मिले। ताकि मुझे और मेरे परिवार को पुनः दिल्ली के भीड़-भाड़ वाले जामिया नगर वापस नहीं आना पड़े। अन्त में रात अधिक हो गई थी जलाल भाई ने भोजन की तारीफ मेरी पत्नी से की और धन्यवाद भी दिया। लेकिन बाद में मुझे कहा अच्छा हुआ कि तुम्हें जम्मू में नौकरी नहीं मिली, नहीं तो तुम भी मेरे जैसे अन्य लाखों लोगों की तरह जम्मू में आँसू पीकर किरायेदार ही बने रहते। हमने जो कमाया वही गंवाया। घर ही तुम्हारी बचत है। जमीन और घर खरीदान राजनीति नहीं अर्थनीति है। इसमें धर्मनिरपेक्षा या सम्प्रदायिकता को राजनीति करने वालों ने जोर दिया है। तुमने मेरी सोई हुए ”शेरनी को जगा दिया है। वह जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने के हक के लिए मोर्चाबन्दी जरूर करेगी। वह कहेंगी हक का तो आदान-प्रदान होता है। यह तरीका सही नहीं कि जम्मू-कश्मीर वाले को पूरे देश में सम्पति खरीदने का हक हो और दूसरों को इससे महरूम रखा जाये। संविधान तो संशोधित होते है। भारत का संविधान तो सम्पति के अधिकार के लिए 1950 से लेकर अबतक अनेक बार संशोधित हुआ है तो अनुच्छेद 370 जैसा विभेदकारी प्रावधान और जम्मू कश्मीर का संविधान क्यों नहीं संशोधित हो सकता है। यह कोई पैगम्बर का पैगाम नहीं है या कुरान शरीफ कलमा नहीं है जिसमें रद्दो बदल की गुन्जाइश नहीं हो। यदि गैर-कश्मीरी कश्मीर में सम्पति नहीं खरीद सकते तो भारत के किसी अन्य भाग में कश्मीरी को यह हक क्या भारत का हिस्सा बने रहने के लिए घूस में दिया जा रहा है? क्या यह भारत के राजनेताओं की धर्म निरपेक्षता के नाम पर कोई गहरी साजिश तो नहीं है। जलाल भाई ने बड़ी हसरत से मेरे मकान को देखा आंसू भरी नजरों से रूखस्त होते हुए कहा फिर कभी त्रि-मूर्ति पुस्तकालय में मिलेंगे और नये सिरे से अनुच्छेद 370 पर बहस करेंगे। खुदा हाफिज।
प्रो. श्यामानन्द सिंह
विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान विभाग,
एवं डीन सामाजिक विज्ञान संकाय,
महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय अजमेर।
मो.09352002053, email:[email protected]

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