श्रम को मत शर्मसार करो लोगों

मोहन थानवी
मोहन थानवी

श्रम दिवस है
श्रम को मत शर्मसार करो लोगों
श्रमिक तोड़ता है चट्टानें और घमंडी का घमंड
श्रमिकों की संवेदनाओं से मत खेलो
हथेलियों पर उभरी लकीरों से नहीं बनते मैदान
पहाड़ों को काटने वाली लकीरविहीन हथेलियों को पहचानो
जान लो क्यों है श्रमिक की ऐड़ियों में बिवाई
श्रम को मत शर्मसार करो लोगों
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नाटक और कविता:
हम सब एक नाटक के पात्र हैं।
नाटक है जीवन।
जीवन के इस नाटक में हम सभी की भूमिकाएं तय हैं।
संवाद भी लिखे जा चुके हैं।
उन दृश्यों के संवाद भी…
जिनमें सिर्फ और सिर्फ प्रकृति झूमती है।
पत्थर गीत गाते हैं।
आसमान…
रो पड़ता है।
खामोश रात के अंधेरे रंगबिरंगी किरणों के नृत्य से झूम कर गुनगुने लगते हैं।
वही कविता होती है।
खामोश संवादों की अदायगी काव्यमय होती है।
इसके लिए कविता स्वयंमेव मुस्कराती है।
कविता नहीं तो…
ये नाटक…
जीवन…
संवाद विहीन हो जाता है।
नाटक का अहम हिस्सा है…
कविता।
– mohan thanvi – bikaner

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