आसान ऋण नीति से ही संभव है देश का विकास

सुकुमार भुइयां
सुकुमार भुइयां

-सुकुमार भुइयां- महंगाई गरीबी व बेरोजगारी। देश की आजादी के बाद से अब तक अमूमन हर चुनाव इन्हीं तीन मुद्दों पर लड़ा गया है। लेकिन वि़डंबना कि ये तीनों ही समस्याएं कम होने के बजाय लगातार बढ़ती ही गई है। जब कोई पार्टी विपक्ष में रहती है , तो इन समस्याओं के आमूल निस्तारण का वादा करती है। लेकिन सत्ता संभालते ही हाथ भी खड़े कर देती है। अक्सर जिम्मेदार पदों पर बैठे हमारे राजनेता यह कहते सुने जाते हैं कि गरीबी , बेरोजगारी व महंगाई दूर करने के लिए उनके पास कोई जादू की झड़ी नहीं है। कभी यह सब्जबाग दिखाया जाता है कि विदेशी धन आने से ये समस्याएं स्वतः ही खत्म हो जाएंगी। लेकिन अब तक वह दिन आया नहीं। इसकी कोई उम्मीद भी निकट भविष्य में नजर नहीं आती।  एेसे में आखिर सवाल है कि महंगाई , गरीबी व बेरोजगारी कैसे दूर हो। क्या यह संभव है कि सरकार हर नागरिक को सरकारी नौकरी दे सके। जवाब है बिल्कुल नहीं। फिर आखिर हर हाथ को रोजगार कैसे मिले। जिन देशों में बेरोजगारी कम या न के बराबर है, वहां यह आखिर किस जादू से संभव हो पा रहा है। एेसे यक्ष प्रश्नों का सीधा सा जवाब है कि बड़े उद्योगों के साथ ही लघु और मझोले स्तर के उद्योगों का विकास करके ही हम इन समस्याओं को दूर कर सकते हैं। हर हाथ को रोजगार दे सकते हैं। अपने देश में इसका सबसे बड़ा उदाहरण गुजरात हैं। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में नौकरी की चाह बहुत ही कम है। वहां के उच्च शिक्षित लोग भी नौकरी करने से बचते हैं। भले ही वे नौकरियां शानो – शौकत वाली क्यों न मानी जाती हो। गुजरात के लोग साधारणतः उद्योग – धंधों में ही हाथ आजमाते हैं। जिससे स्व विकास के साथ दूसरे लोगों को भी रोजगार मिलता है। लेकिन यह भी सच है कि उद्योग – धंधे लगाना इतना आसान काम भी नहीं। इसमें सबसे बड़ी समस्या पूंजी है। उद्योग – धंधों के लिए हमें बैंकों का मुखापेक्षी होना पड़ता है। जबकि हमारी ऋण नीति ही एेसी है कि बैंकों से ऋण हासिल करने में आवेदक के पसीने छूट जाते हैं। बैंकों  से ऋण लेने के लिए आवेदक को अपनी ओर से भी कुल निवेश का एक हिस्सा खर्च करना पड़ता है। अक्सर देखा जाता है कि आवेदक इस पर काफी धन खर्च कर बैठता है, लेकिन ऋण मिलने के बजाय बैंक हाथ खड़े कर देते हैं। जिससे आवेदक को कमाई के बजाय गांठ  की पूंजी भी स्वाहा कर देनी पड़ती है। अक्सर एक मोटी रकम खर्च करने के बाद अावेदक को पता चलता है कि बैंक उसे ऋण नहीं दे सकता, क्योंकि उसके किसी रिश्तेदार ने बैंक से लेकर उसे अदा नहीं किया। भले ही आवेदक का उक्त रिश्तेदार से कोई लेना – देना न हो। सवाल उठता है कि यदि ऋण देने में बैंक इस तरह का असहयोग पूर्ण रवैया अख्तियार करेंगे तो बेरोजगार भला किस प्रकार अात्म निर्भर बनेंगे या अपना रोजगार – धंधा करने को प्रोत्साहित होंगे। एेसे में तो लोगों का सरकारी नौकरी की ओर झुकाव बढ़ेगा ही, जबकि यह तय है कि कोई भी सरकार अपने हर नागरिक को सरकारी नौकरी नहीं दे सकती है। इसका सीधा सा जवाब है कि बैंकों को अपनी ऋण नीति को अधिक उदार, पारदर्शी और जवाबदेह बनाना होगा। लोन देने के मामले में बैंक अधिकारियों की हमेशा एक ही दलील होती है कि ऋण देने के बाद उसकी अदायगी नहीं हो पाती। इसलिए वे जोखिम पूर्ण ऋण नहीं दे सकते। सवाल उठता है कि जब काबुली वाला कहे जाने वाले ऋणदाता 6 से 10 प्रतिशत तक मासिक ब्याज पर लोन भी देकर भी उसकी अदायगी भली भांति कर लेते हैं और अपने कारोबार को लगातार चलाते रहते हैं तो यह कार्य बैंक क्यों नहीं कर सकते। बेशक सरकारी बैंक ऋण अदायगी मामले में अधिक कठोर रवैया अपना नहीं सकते। लेकिन जरा सी समझदारी , सहयोग व संतुलन के जरिए सरकारी बैंक एेसी आदर्श व्यवस्था जरूर कायम कर सकते हैं जिससे हर युवा बेरोजगार आसान किश्तों पर लोन ले कर अपना व्यवसाय शुरू करने को प्रोत्साहित हो सके। एेसी व्यवस्था के जरिए ही देश व समाज की खुशहाली संभव है।

प्रस्तुतिः तारकेश कुमार ओझा
——————————
लेखक मेदिनीपुर के वरिष्ठ अधिवक्ता है। संपर्कः 9733492367
error: Content is protected !!