ईगो-स्वअहंकार(आत्म-अभिमान) मैं—मैं—मैं-की भावना?

डॉ. जुगल किशोर गर्ग
डॉ. जुगल किशोर गर्ग

ईगो एक मानसिक सोच है जिसमें मनुष्य केवल मैं मैं-मैं, मेरा-मेरा एवं मेरे लिये के संकुचित दायरे में खुद को केदी बना डालता है | ईगो हमारे व्यक्तित्व (पर्सनालिटी) का परिचायक भी बन जाता है | मैं-मैं की भावना ही इन्सान के दिल में ईगो को जन्म देती है साथ ही साथ ईगो का लालन-पालन भी करती है, मैं-मैं की भावना इन्सान के भीतर इस ईगो के पोधे को विशालकाय व्रक्ष बना देती है |
जिनके भीतर अंहकार/ ईगो की ग्रन्थी होती है उनके चारों ओर मै-मै का जाल बुना ही रहता है , उनको लगता है कि केवल वही दुनिया भर के कामों को अंजाम दे रहें हैं दुनिया में वही एकमात्र बुद्धीमान हैं |
स्वामी विवेकानंदजी ने एक चर्चा के दोरान किसी ने पूछा ‘ महात्मन इन्सान को नर्क में कौन धकेलता है’ स्वामीजी बोले कि “अगर तुम जानना चाहो तो में बता सकता हूँ कि आपको नर्क में कोन ले जाता है | “मैं”-मैं का भाव अर्थात् ईगो/अंहकार की वर्ति ही इन्सान को नर्क की तरफ धकेलती हैं | हमारे भीतर पनपने वाली ईगो/अंहकार की प्रव्रती हमारे स्वभाव को विक्रत कर देती है | जिनको मै-मै करने की आदत होती है वे जरुर अपने पिछले जन्म में “बकरें” ही रहें होगें | हमें भी हमारे भीतर “मैं” “मैं” की पर्वर्ति की जगह “हम ” की वर्ति को जीवित करना चाहिये | मैं कहने के बजाय अगर ऐसा कहें और करें कि “हमने” ऐसा किया है अथवा ”हम” ऐसा कर रहें हैं तो आप यह मान कर चलिए कि जहाँ पर ‘हम” होता है वही पर सार्वभोमिकता होती है किन्तु जहाँ “मैं” होता है वहां पर अंहकार की वर्ति ही होती है | यह सब मैने ही किया है के बजाय यह कहें कि यह काम हमारे सबके विनम्र प्रयास से ही सम्मपन हुआ है | याद रक्खें कि जहाँ ईगो/अंहकार के हथोड़े से प्रेम/स्नेह का ताला टूटता है,प्रेम-भाईचारा खत्म हो जाता है वहीं दूसरी तरफ विनम्रता प्रेममयी ताले को खोलने में चाबी का काम करती है और आपसी रिस्तों को मधुर एवं मजबूत बनाती है | अत: अहंकार में भी विनम्रता रक्खें | जीभ नरम रहती है, कोमल होती है अत: जन्म से मिलती है और म्रत्यु तक साथ रहती है वहीं दांत कठोर (अंहकार-ईगो की तरह) होते हैं जो जन्म के बाद मिलते हैं और म्रत्यु से बहुत पहले ही टूट भी जाते हैं |
मानव जीवन में “अंहकार-ईगो” के क्षीण या कम होने के साथ ही “विनम्रता” का जन्म हो जाता है एवं जीवन सुखमय, तनावमुक्त एव प्रफुल्लित भी बन जाता है | हल्के और नरम धूल के कण ही आसमान की और ऊचें उड़ते हैं वहीं कडक (ईगो-अंहकार के प्रतीक” ) पत्थर हमेशा पावों की ठोकरें ही खाते रहते हैं |
जो अकड़ा हुआ रहता है उसे सब ठुठ कहते हैं किन्तु जो फलों और नरम पत्तों से लदा होता है उसे पेड़ कहते हैं | रावण को अपनी शक्ति का ईगो/अंहकार था, उसका यही अंहकार/ईगो उसके विनाश का कारण बन गया जब व्यक्ति को बुद्धी का अंहकार-ईगो हो जाता है तब उसी क्षण से वह बुद्धीहीन हो जाता है | जब सत्ता अंहकार देने लगती है तो सत्ता विनाश का कारण बन जाती है | जब-जब सत्ताशीन लोगों ने स्वयं को प्रजा से बड़ा मान लिया तब-तब प्रजा ने उन्हें सबक जरुर सिखाया है | इसीलिए कभी भी स्वंय को बड़ा और दूसरों को तुच्छ न माने | तकदीर के खेल में कब किसका पासा पलट जाये, खबर नहीं लगती है, राजा रंक बन जाता है और रंक राजा |
जब कभी भी मन में ईगो-अंहकार की सूक्ष्म ग्रन्थी भी जगे तब उसी समय हमको जमीन और आसमान की तरफ देख कर अपने आप से कहना चाहियें कि “हम किस बात का अंहकार-ईगो रक्ख रहें हैं” एक दिन तो हम को भी इसी जमीन/मिट्टी में समा जाना है और आसमान की तरफ देख कर कहना चाहिए कि “ किस बात का ईगो-किस बात का अंहकार ,एक दिन हमें भी सबकुछ यहीं पर छोड़ कर ऊपर उठ जाना है |
अपने ईगो-अंहकार का त्याग कर विनम्र बनें, जिससे आप किसी के दिल से नहीं उतरें वरन उनके दिल में भी अपनी जगह बनायें |
डा.जे.के.गर्ग
सन्दर्भ—विकीपिडीया,विभिन्न संतों-महापुरुषों के उद्धभोंदन

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