आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है! तो इसी बहाने प्रेस की आज़ादी पर थोड़ी सी चर्चा क्यों न कर ली जाय? रिवाज भी पूरा हो जाय और फैशन तो आजकल ये है ही !
आज़ादी एक बहु आयामी शब्द है, लेकिन कुल मिला कर आज़ादी तो आज़ादी ही है और इसका कोई विकल्प नहीं होता!
इसी तरह ये भी समझ लेना जरूरी है कि आज़ादी दी नहीं जा सकती, हमेशा उसे लेना ही पड़ता है, बना कर रखना पड़ता है ! जहाँ तक प्रेस का सवाल है,तो अगर आप प्रेस के मालिक हैं,तो अलग चीज हैं, अगर मालिक नहीं हैं तो आपको भी अपनी आज़ादी लेनी पड़ेगी. मालिक आज़ादी दे ही नहीं सकता. आज़ादी ही देनी हो तो काहे का मालिक !
पाठक और पत्रकार, यही प्रेस की आज़ादी के पहलू हैं और ये खुद को आज़ाद कर लें तो फिर सभी मालिक बेचारे ही हो जाएँ. मालिक की अपनी आज़ादी बनी रहे, इसके लिए वह पाठक और पत्रकार के बीच तमाम तरह की दुरभिसंधियां करता रहता है. सरकारें भी मालिक ही होती हैं, और मालिक, मालिक का साथ देगा ही ! लेकिन इसके उलट प्राय: पत्रकार और पाठक का साथ बन नहीं पाता. और यही प्रेस की आज़ादी का वास्तविक संकट है !
पाठक जब तक पत्रकार की आज़ादी की रक्षा करता रहेगा, पत्रकार भी स्वाभाविक रूप से उसकी रक्षा करता रहेगा. लेकिन इसके लिए जागरूक पाठक होना जरूरी है, पाठकों को जागरूक करने के प्रयास चलते ही रहने चाहिए. और यही प्रेस की आज़ादी की वास्तविक चौकीदारी है ! इसमें अगर गफ़लत हुई तो कभी कुछ और भी सोचना पड़ सकता है ………
इस शे’र के साथ अपनी बात पूरी करना चाहूँगा– ” वो धूप ही अच्छी थी इस छांव सुहानी से , वह जिस्म जलाती थी, यह रूह जलाती है !! आमीन !
मूलचंद पेसवानी