उस समय मैं 4 वर्ष का रहा हूँगा जब तथा कथित धर्म के नाम पर भारत भूभाग का बंटवारा हुआ था जब हमारे बुजुर्गों ने आजादी की चाह में अंग्रेजो के विरुद्ध किसीने सत्याग्रह रूप में और किसी ने सशस्त्र विद्रोहे को अपना आक्रोश प्रकट करने का माध्यम बनाया था? सभी जन की केवल एक ही चाह थी आजादी और सिर्फ आजादी ? यूँ तो इस आजादी की मांग 90 वर्ष पहले ही पड़ गई थी 1857 की सशस्त्र क्रांति के रूप में ? परंतु संघर्ष की चिंगारी सुलगती ही रही अंतोगत्वा 15 अगस्त 1947 में हम आजाद यानि स्वतंत्र हो ही गए । लेकिन उससे पहले बंदर बाँट की कहावत चरितार्थ हो गई जब किसी बन्दर ने दो चालाक बिल्लियों के बीच जिस प्रकार रोटी का बटवारा किया था ? परंतु यहाँ तो लाखों करोड़ों हिन्दू मुस्लमान और देशी राजाओं के बीच में एक देश का बटवारा किया था चालाक अंग्रेजो ने ?
तब से अब तक 7 दसकों के करीब गंगा यमुना ही नहीं लोगों के दिलों में प्रदुषण से जीवन ही विकृत हो गया है ? धार्मिक आधार पर बंटवारे के हिमायती अपने ही भाइयों को अपने साथ नहीं रख पाये और एक और बटवारा हो गया । एक राष्ट्र बंगला देश का उदय हो गया ? पर हमारा पडोसी इस दंश को कभी भी सहन नहो कर पाया और उसी दंश की आग में झुलस कर किसी शूर्पणखा की भाँति पांच बार अपनी नाक कटवाने के बाद भी हमारे देश में चोरी छुपे आतंकवादियो की घुसपैठ करवाता रहता है ? यानि अच्छे भाइयों की तरह कभी अच्छा पडोसी नहीं बन पाया ?
लेकिन हमारे ही देश के कुछ अति बुद्धि मान धार्मिक लबादा ओढ़े हुए देवता स्वरुप अति शालीन सज्जन पुरुष इस पुरे भूभाग यानि भारतीय उपमहाद्वीप को स्वर्ग बनाना चाहते है ? जब वह कल्पना करते है की भारत बांग्लादेश और पाकिस्तान को मिला कर एक महासंघ बनाया जाय ? यानि “न नौ मन तेल होगा और न राधा जी नाचेंगी “? यानि दक्षिण पंथियों को लगता है लगता है की वह ऐसा कर पाएंगे शायद यह सबसे बड़ी आत्मश्लाघा ही होगी ? लेकिन राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी में बहुत ही अंतर होता है जैसे रात और दिन में अंतर होता है ?
इस लिए हमतो ऐसा समझते हैं कि महासंघ का आइडिया एक सोंची समझी रणनीती का हिस्सा ही हो सकता है क्योंकि यह एक खास वर्ग को भयभीत कर ध्रुवीकरण करने का फार्मूला भी हो सकता है ? वर्तमान में सत्ताधारी समूह को राजनितिक हवा अपने विरुद्ध लगती है ! और महासंघ का फार्मूला दोनों ही तरह से हिट बैठता है चल गया तो वाह! वाह!! नहीं चला तो भी वाह! वाह!! चूँकि राजसत्ता का गुण स्वभाव ठीक वैसा है जैस एक गतीब को अगर कुछ किलो सोना मिल जाय और एक भूखे आशक्त व्यक्ति भरपेट खाना दोनोहि पगला जाते हैं राजनितिक पिपासुओं का भी कुछ ऐसा ही हाल लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आजीवन राज सत्ता का सुख ही नहीं भोगना चाहते अपितु षडयंत्रो के द्वारा अपनी अगली पीढ़ी के लिए सत्तासुख का रास्ता बनाने में ही देश हित भूल जाते हैं ?
फिर चाहे ताजा घटना पठानकोट हो या IC814 कांधार कांड हो, या 1975 का आपातकाल हो मुम्बई कांड 26/11 हो कारगिल हो, या संसद पर हमला हो ? जहाँ राजनितिक संस्थाये अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं लेती! लेकिन हम अपने बचपन से लेकर प्रौढ़ अवस्था तक यही सबकुछ देख रहे है ? लोकतंत्र में शासन व्यवस्था में हिस्से दारी देश सेवा कहलाती है पर देखने में सब कुछ उल्टा लगता है जब राजनितिक हित साधन के लिए अपराधी चोर उच्चके और बलात्कारी तक संघर्ष करते हुए सत्ता शीर्ष तक पहुँच ही जाते है और तथाकथित सेवक मुहँबाये ताकते रह जाते हैं ?
एस. पी. सिंह। मेरठ