…तो अब आसमां छू लेने की कोशिश मे धरातल भूलने लगे हैं लोग

शमेन्द्र जडवाल
शमेन्द्र जडवाल
देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व. मुंशी प्रेमचंद का मानना रहा कि, —“अपनी भूल अपने ही हाथों सुधर जाए तो, यह उससे कहीं अच्छा है, कि – कोई दूसरा उसे सुधारे।”

लगता है समय बहुत तेजी से भागे चला जा रहा है।और हम उससे भी आगे, यानी उसकी रफ्तार को मात देना चाहते हैं। अब इसे तरक्की कहैं , या स्वभाव पर पड़ रही मार । इसका फैसला अभी – लिखा ही जा रहा है।
विकासशील दुनिया की चौखट पर हम इतने खो से गये है , और तो और विरासत मे मिले संस्कार भी लुप्त होते दिख रहे हैं। बात रहन सहन की करे अथवा पहनावे की सभी कुछ है जो तेजी से बदल रहा है। सोच का भी यही हाल है। भागदौड़ इतनी कि, कईयों को यह भी याद नहीं रहता ,कि, आज क्या क्या नही किया। इस लाईफस्टाइल से कई तो बहुत संतुष्ट , तो कई लाचार से दिखते हैं। मजबूरी सी लगती है – इन्हे।
ऐसे मे हमें भूलने की आदत सी होने लगी है। बहरहाल यह कोई बीमारी नहीं, किन्तु जरूरी बातों को ही भूल जाएं तब तो…..सोचने वाली बात है ना।
अभी ताजा ही सी बात है कि, देश की रक्षा करते सियाचिन सीमा पर डटे कुछेक जवान बर्फ की दीवार तले दब कर गुम हो गए। सैन्य प्रशासन ने खूब तलाश की मगर एक जवान लांस नायक – हनुमंथप्पा को जीवित निकाल लिया गया। अस्पताल मे चार दिन गहन उपचार के चलते , खूब चर्चे रहे ,देशभर मैं उस जाँबाज के लिए दुआएं की गई , पर न दुआएं ही कामयाब हुईं और ना दवा। उसे मौत के मुख से नहीं बचाया जा सका। ….यों मान लिया गया कि, उस – जाँबाज की सांसें इतने ही दिन और थीं। बस।
प्रधानमंत्री से लेकर फौज प्रशासन के आला अफसरो तक ने ,छह दिनों तक बर्फ मे दबे उस नौजवान जाँबाज को सभालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।मगर वो चला गया ….
इस लेख की मूल विषय वस्तु यह कि, उस जाँबाज का नाम सभी शुभचिन्तकों के दिलो – दिमाग पर छा गया।और उसे देशभर से खूब नमन और श्रद्धांजलियां अर्पित की गई, जिसमे एक होड़ सी लग गई, लगा जैसे कोई पीछे नही रहना चाहता था, उसकी अंत्येष्टी के बाद भी सैंकड़ों लोग वहाँ डटे रहे। लेकिन बाकी के उन जाँबाज फौजियों को लोग भूल से गये जिन्होंने इसी के साथ बर्फ मैं दबे रहते जैसे हालातों में ही अपनी गुमशुदगी दर्ज कराई।
अब देखिये ,भीड़ तन्त्र के हालात यह कि, मुश्किल से देश के दस पन्द्रह प्रतिशत लोग रहे होंगे जिन्होंने इन बाकी जाँबाज मृतकों के बारे मे भी – सोचा।और इनकोे भी श्रद्धा सुमन अर्पित करते ,याद तो कर लिया।
आज हकीकत यह है कि, अधिकांश लोग उधर ही निकल पड़ते हैं जिधर हवा का रुख होता है।
मोदी श्री के चुनाव के समय भी यही हुआ। उनके – लच्छेदार भाषणों और चर्चित 56 इंच के सीने को- देखकर प्रभावित जनता ने उन्हे सिर पर उठा लिया। और अब धरातल की आवाज सुनिये , देखिये वही लोग है जो कोसतेे भी दिख रहे है।मुद्दा वही महंगाई , भ्रष्टाचार, कालाधन ,ये नही हुआ वो नही हुआ वगैरह वगैरह ।
लोग चलते तो है आसमान देखते, और अक्सर धरातल को भूल से जाते हैं।.नई पीढी की अपनी पढाई अथवा कमाने की होड़ में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। रहन सहन का हाल यह कि, यदि किसी के पास कार है और वो दो चार साल पुरानी है और भलेही घर में रखनै की भी जगह मुश्किल से मिलती हो मगर पड़ौसी को देखकर घर के सभी नई कार ले आने की जिद पाल बैठते है।और ले भी आते हैं। अब चूँकि, सुविधा जो मिल रही है फाईनैन्स की। फिर क्यों न चलें तरक्की की नई राहों पर।
आजकल अनेक लोग कर्ज लेने को अपना जैसे सच्चा अधिकार मानते आदत में शुमार कर बैठे हैं। अब यदि धरातल की बात करे तो, हमारे ही पुरखे या बुज़ुर्गवार कर्ज लेने के प्रति कभी भी सहमत नहीं हुए। मगर जमाना बदल रहा हैजी, आप हम किस दुनिया की बात कर रहे है ? चुकाने के लिए भी उतने फिक्रमन्द हैं ही कहाँ। आखिर देना तो आप ही को पड़ेगा ?
अब यहीं.देख लीजिए, घर मे कपड़ों से आलमारियाँ भरी हैं,वे अच्छी कण्डीशन में भी हैंैं, मगर बच्चों से लेकर युवा सभी स्टाईलिश और ब्रान्डेड के फेर में जैसे पगलाए से जा रहे, मुआ यह भी जेसे कोई कम्पीटीशन.है ? मेरी नजर में ये फिजूलखर्ची बेजह.हो रही। भई ऐसा दिखावा भी किस काम का । और जो लोग आपको पहचानते रहे हैं, उन्हें कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता कि, आप कैसा और क्या पहनते हें । लैकिन.अनजानों के लिए आप बुखार पाल.बैठे है।
आखिर इसका भार किस पर पड़ना है। आप ही पर।
ऐसी ही एक मिसाल,सयुक्त परिवारों की एकल परिवार में हो रही तब्दीली है। जो मजबूरी कम और शौक या रिवाज जैसा ज्यादा नही लगता आपको ? फायदे और नुकसान को जाने दीजिए । एक बात और संसकारों का हाल यह कि, गुरुजन अथवा बड़ों के चरण छूने की याद दिलानी पड़ती है। फिर छूने का तरीका ही बदला हूआ है ,बिना पृरा झुके जैसे फ्लाइंग टच यानी दूर ही से। बस इसीसे है, ये – कहने वाली – बात….

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