“ हरसाया रे हिया फ़िर फागुन आया “

कंचन पाठक
कंचन पाठक
वातावरण में आजकल चारों ओर ऋतुराज का उज़ास है, और पवन में एक अलग सी भीनी भीनी सुगन्ध .. वसंत का महा-उत्सव यानि फ़ाग की आहट सुनकर पूरी प्रकृति एक अज़ब से रंगीन सुरूर में बौराई हुई सी है l वैसे फाग के आगमन की अनुभूति तो तब हीं हो जाती है जब मानव मन के सुमन खिलकर अनायास महकने लग जाते हैं l मुझे इस समय भरत व्यास के द्वारा लिखा एवं सुरों की मलिका बेगम अख्तर के द्वारा गाया गया एक बेहद हीं खूबसूरत ”होरी” गीत की याद आ रही है जिसमें नायिका नायक से मीठी-सी शिकायत करती है, गीत के बोल हैं ‘’कौन तरह से तुम खेलत होली रे ….’’ गीत के हर शब्द फागुन में नायक के बहके हुए मन को इंगित करता है l फागुन चढ़ते हीं न केवल मानव मन अपितु सम्पूर्ण प्रकृति, सृष्टि भी बहकी-बहकी मदमादी-सी झूमती प्रतीत होती है l होरी, होली, फगुआ, फाग या फागुन सभी रंगोत्सव के हीं नाम हैं l फाग, फगुआ या फागुन इसलिए क्यूँकि यह उत्सव फाल्गुन मास में मनाया जाता है l मदमाया सा महावसन्त यानि कि फाल्गुन … फाल्गुन यानि कि यौवन, उल्लास, रस, रंग और श्रृंगार… ! फाल्गुन यानी कि सरसों के पीले स्वर्णिम फूलों से सजी धरा, कमल पुष्पों से भरे तालाब, मादक मन्जरियों से लदे तरुवर, अमराइयों में कूकती कोकिला और अनगिनत अरमानों भरे सपने सजाता बावरा मन … फाल्गुन यानि कि पगलाए हुए फगुहारे के बहके हुए गीत … यह ऋतु का ही प्रभाव है कि सम्पूर्ण सृष्टि मानो श्रृंगार व प्रेम में उन्मत्त हो उठती है तभी तो इसे तपस्वियों के संयम के परीक्षा की ऋतु कहा गया है l शरद, शिशिर की लम्बी ठिठुरन के बाद वासंती, फागुनी नर्म गुनगुने एहसास से आत्मनियन्त्रण समाप्तप्राय होकर मर्यादाएँ शिथिलवत हो जाती हैं … भावनाओं में आये इस रंग परिवर्तन की झलक हमारे फागुनी त्यौहार होली में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है l प्रेम, स्नेह और विभिन्न भावों वाले सम्बन्ध भले-भले रंगों और अबीरों संग रंग-संवर कर और भी प्रगाढ़ साँचे में ढल जाते हैं l
हमारे यहाँ महावसंत और फ़ाग का उत्सव माघ की पंचमी तिथि को सरस्वती अवतरण से शुरू होकर पूरे मास भर तक चलता है और होली में उड़ते शोख शरारती रंगों पर जाकर समाप्त होता है l वैसे मनोमुग्धकारी वसंत और महावसंत के मस्ती-भरे रंगोत्सव में से कौन अधिक आकर्षक है ये कहना बड़ा मुश्किल है l इस ऋतु का प्रभाव ना केवल हमारे शरीर बल्कि आत्मा पर भी होता है l पञ्चतत्व से निर्मित हमारे इस शरीर में जो भीतर है वही बाहर भी है l पीले पीले अमलतास के फूलों का पीताभ वर्ण हमारे भीतर आध्यात्मिक चेतना का संचार करते हैं तो टेसू के फूलों का दहकता रक्ताभ लाल वर्ण नव जीवन के जोश से भरी नयी उर्जा का l
एक तरफ कहते हैं होली भगवान शिव द्वारा कामदेव के दहन का साक्षी त्यौहार है तो दूसरे मतानुसार हिन्दू माइथोलाजी के सबसे मोहक एवं आकर्षक नायक भगवान श्री कृष्ण ने जब दुष्टों का दर्पदलन कर राधिका संग रास रचाया तभी से होली या मदनोत्सव मनाने की शुरुआत हुई l तीसरी और प्रचलित कथानुसार हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका जब अग्नि में जलकर भस्म हो गई और रामभक्त प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ तो इसी के बाद से होलिका दहन और होली मनाने की प्रथा शुरु हुई l खैर शुरुआत चाहे जैसे भी हुई हो महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी त्यौहार की शुचिता, सन्देश, सौन्दर्य और ध्येय अपने वास्तविक रंगों के साथ अक्षुण्ण बने रहना चाहिए l किन्तु हमारे यहाँ भूमंडलीकरण के दौर में समय के साथ जो विकृतियाँ घुसपैठ कर रही हैं वे मन को बेहद आशंकित करती हैं l भगवान् शिव की तपस्या में विघ्न पड़ा तो उन्होंने कामदेव को हीं भस्म कर दिया पर आज होलिका की अग्नि में असत्य, अन्याय, अत्याचार और बेलगाम वासना को नहीं बल्कि आदर्श, सदाचरण, सत्य और संस्कृति को हीं भस्म किया जा रहा है ….

– कंचन पाठक.
कवियित्री, लेखिका
मुम्बई, महाराष्ट्र

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