अनशन का अवसान

Ras Bihari Gaur (Coordinator)सोलह वर्ष का एक लंबा संघर्ष थक कर रुक गया या उसने अपनी दिशाएं बदल दी। जो भी हो, किन्तु ये तय है कि शर्मीला इरोम के अहिंसक अनशन की आवाज ना तो सत्ता के कानों तक पहुँची, न ही समाज की चेतना को स्पर्श कर सकी। जबकि उस आंदोलन को मानवीय मूल्यों का समर्थन था। गान्धी के देश में सार्थक सरोकार का अवसान हमसे हमारे गर्वित पल छीन रहा है।
अप्सा अर्थातकि सैना को दिये गये असीमित अधिकारों का वह दस्तावेज जो समाज में भय और पलायन का भाव पैदा करते हुए राज्य को अमानवीय कृत्यों का परमिट प्रदान करता है। सरकारें चाहे जिस दल की रही हो, उनकी कार्यशैली और चरित्र लगभग एक से है। संभवतः कुछ राजनैतिक या सामाजिक मजबूरियां भी हो । परन्तु एक आवाज को जानबूझकर अनसुना करना, एक हिम्मत को बिना जाने पस्त कर देना, आंदोलन की सुचिता को अस्वीकार करना, ये सब संकेत समाज की दिशा को अराजक आंदोलनों की गोद में बिठा देते हैं। जाट, गुर्जर, पाटीदार, या फिर किसी सिविल सोसाइटी की आधारहीन मांगों को राज्य उनकी हिंसा से आतंकित होकर मांग लेता , किन्तु अहिंसा के पथ पर सत्याग्रह के सवाल को किसी कोने में दर्ज नहीं करता। जिस गांधी की दुहाई देकर सरकारें खुद को शान्ति और सदभाव का दूत बताती हैं ,वहीँ सत्ताएँ शान्ति के सच्चे दूतों को अज्ञातवास में धकेल देती हैं।
प्रसंगवश, पिछले दिनों समकालीन साहित्य में शर्मिला इरोम की कविताये पढ़ते हुए उनके कवित्व मन को जानने का अवसर मिला और पाया कि वे संवेदना के किस सघन वन में विचरण करती हैं। शायद अब उन्होंने अपने वियावान में जीवन की अनुपस्थिति देखकर स्वम को बदलने का निर्णय किया हो। वे लोकतांत्रिक प्रणाली से चुनाव लड़कर अपनी आवाज उठाएंगी। सवाल फिर वही है, अगर आवाज होगी तो सुनेगा कौन? हम तो शोर में जीने के आदि है। प्रलोभन देकर राजनीती हमे हमारा खाली कल सौप रही है।हम अपने खालीपन पर मुग्ध हैं। हम खुश है अपने- अपने वलयों में।
इसलिये डर लगता है कि शर्मीला भी कही चुनावी भूलभुलैया में आकर जीवन संघर्ष की असली कमाई गवां ना दे। वैसे भी गांधीवादी मूल्यों के समस्त उपलब्ध अवशेषों को खंडित करने की मुहीम बहुत तेज चल रही है।

रास बिहारी गौड़ [email protected]

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