पिछले कुछेक दशको में समाज, राजनीती, धर्म, न्याय सरीखी सभी स्थापित सत्ताएं तेजी से पूंजी द्वारा संचालित होते हुए आभासी स्वायत्तता जी रही हैं।
देश के प्रधान का किसी उत्पाद के लिए व्यापारिक प्रचार करना लोकतांत्रिक की सर्वोच्च संस्था सरकार का पूंजी के हाथ में खुलेआम अपना रिमोट सौंपने जैसा है। व्यापार और सरकार के चरित्र में मूलभूत अंतर यही होता ही कि व्यापार निज -हित के लिए होता है और सरकार लोक -हित के लिए। कम से कम सर्वजिनिक उद्दघोष में तो यही है। किसी एक का हित या लाभ देश का समूचा प्रतिनिधत्व कैसे कर सकता है? चलो ये भी मान लेते हैं कि उक्त उत्पाद( जिओ) प्रधानमंत्री का सपना है या जनकल्याणकारी योजना का हिस्सा है तो फिर उस पर किसी व्यापारी विशेष का अधिकार क्यों? जबकि सरकार के पास उस उत्पाद को चलाने का उपक्रम ‘ (BSNL/MTNL) मौजूद है। यदि jio के कारण BSNL सरीखे सरकारी संस्थान को घाटा होता है तो उसके लिए कौन दोषी होगा..?
जब हम या हमारी चुनी हुई सरकार किसी व्यापारिक हितों से सीधा जुड़ते हैं तो दृष्टिकोण में परिवर्तन स्वाभाविक है। अर्थ के सहयोग से सरोकार हो, किन्तु उस पर निर्भरता या अपनी पहचान को संस्थान विशेष से जोड़कर देखना सम्भवतः सरकारों के लिए भी आत्मघाती कदम हो सकता है।
बहरहाल, ‘जिओ’ क्रांति की अगुवाई में हम बिछे हुए हैँ। इसके आर्थिक फलितार्थ चाहे जो हो किंतु राजनैतिक मोर्चे पर कोई अच्छी पहल नहीं है। कल लालकिले के रंग को कोई पेंटिंग-कंपनी अपना प्रोडक्ट बता सकती है। प्रधानमंत्री के कपड़ो की ब्रांडिंग टेलर मास्टर कर सकता है। सरकारी योजनाओं की आड़ में अपने उत्पाद बेचने की होड़ लोकतांत्रिक सुचिता को आहात करेगी ही, राजनैतिक विश्वसनीयता को भी कठघरे में खड़ा कर देगी ।आज जबकि देश का नेतृत्व नई ऊर्जा और लोकप्रियता से लबालब है। देश और दुनियां तेजी से करवट ले रहे हैं। भ्रष्ट तंत्र से सब त्रस्त हैं । ऐसे में हमारी संवैधानिक धरोहर चाहे वे पद के रूप में हो या वस्तु के, उनका व्यापारिक उपयोग भृष्टाचार के नए मुहावरे गढ़ सकता है।
रास बिहारी गौड़ www.ajmerlit.org/blogspot