दरवाज़े की ओट से …

बहुत बार ध्यान से देखा है तुम्हें
दरवाज़े  की ओट से …
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के….पर क्यों?
क्या दुःख है तुम्हें ?
अभिव्यक्ति ,प्रकृति व जीवनक्रम
के साथ अंतरद्वंद में डूबी,
जिसे तुम बाँट नहीं सकती
क्या बात है दिल में तुम्हारे,
जिसे तुम ,बतला नहीं सकती
सिसकती हैं धड़कने तुम्हारी ,
पर कभी कोई आवाज़
क्यों नहीं आती ….
इन खुली आँखों से बहते हैं अश्रु ,
बन का अविरल धारा से
पर इनका कोई निशां क्यों नहीं है ?
घूमती फिरती हो घर भर में
पर एक दम चुपचाप सी …शांत
हथेलियों से पौंछती हो खुद के आँसू ,
कोई प्रतिरोध क्यों नहीं |
साबुन की तरह हाथ से
फिसलते हैं रिश्ते ,तुम्हारे हाथों से
फिर भी ,कोई क्रोध क्यों नहीं है
चहरे पर तुम्हारे |
बहुत मजबूर हो तुम हकीकत में
जानती हूँ मैं
कि अकेली सी तिलमिलाती हो
खुद के बिछौने पर रात भर ,
उलझी हुई डगर है ,
हर कदम बहकता है ,उसका
पर कोई प्रतिकार ,क्यों नहीं इस व्यवहार पर |
तुम तिल-तिल मरती हो रोज़
पता नहीं ,कब बदलेगा तुम्हारी ये ,
मजबूरी का दौर ?

हां! देखा है मैंने तुम्हें दरवाज़े की ओट से
बार बार रोते हुए ||

-अंजु (अनु )

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