ऐसी भी क्या जल्दी थी….

महेन्द्र शेखावत
महेन्द्र शेखावत
बचपन से एक कहावत सुनता आया हूं ‘बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय, काम बिगाड़े आपणो जग में होय हंसाय…’ अगर आप समझ रहे हैं तो ठीक हैं वरना समझा देता हूं कि यह बात देश में पांच सौ एवं हजार के नोट बंद करने के संदर्भ में हैं। मैं नोटो पर रोक लगाने का स्वागत व समर्थन करता हूं लेकिन जिस तरह आनन-फानन में बिना किसी कार्ययोजना के इसे लागू किया गया और इसके जो साइड इफेक्ट्स सामने आ रहे हैं, उनकी कुछ बानगी देखिए….
-रेल के अग्रिम आरक्षण पर रोक लगाई।
-हवाई यात्रा की अग्रिम बुक पर रोक लगाई।
-राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल नाके मुफ्त किए।
-स्टेट हाइवे भी टोल से मुक्त किए।
-पुराने नोट चलाने की अवधि बढ़ाई।
-एटीएम पर नए नोट अभी नहीं निकलेंगे।
यह चंद उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि यह फैसला कितनी जल्दबाजी में लिया गया था। जल्दबाजी को लेकर तर्क दिया जा सकता है कि मौका दिया जाता तो कालेधन को सफेद कर लिया जाता। हो सकता है ऐसा हो जाता, लेकिन ठोस कार्ययोजना बना कर कुछ छूट दी जा सकती थी। यथा-
-शादी वाले परिवार को पांच-से दस लाख रुपए हाथोहाथ बदलवाने की सुविधा दी जाती।
– बीमार, बुजुर्ग, दिव्यांग आदि के लिए अलग से काउंटर बनते।
– अनपढ़ एवं पहली बार बैंक जाने वाले के लिए किसी तरह की हेल्प डेस्क बनाई जाती।
-सोना खरीदने पर भी रोक तभी लगाई जा सकती थी।
-काला धन खपाने की जितनी गलियां थीं उनको पहले बंद किया जाता।
-नया नोट बड़ा है, क्यों ना उसकी साइज उतनी ही रख ली जाती, ताकि एटीएम सुविधा में विलंब ना होता।
– सभी का समय खराब न हो इसके लिए बेहतर था कि उपभोक्ताओं को सीरिज की घोषणा कर भुगतान किया जाता। मतलब अमुक नंबर से अमुक नंबर तक का भुगतान फलां तारीख को इतने बजे होगा।
-आपात एवं तत्काल राहत वालों के लिए अलग से काउंटर होता जो कुछ औपचारिकता पूरी करने के बाद उनको राहत देता।
-स्कूलों आदि में भी नकली नोट की जांच की मशीन लगाकर नोट बदलने के काउंटर लगाए जा सकते थे।
-सौ, पचास, बीस व दस के नोट बाजार में मौजूद कुल राशि का बीस प्रतिशत भी नहीं है, जबकि पांच सौ एवं हजार के 80 फीसदी से ज्यादा हैं। ऐसे में छोटे नोटों की किल्लत स्वभाविक है। दो हजार के साथ पांच सौ एवं हजार के नोट भी जारी होते। बड़ा नोट होने से उसके भुनाने की समस्या बरकरार है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि यह निर्णय महत्वपूर्ण और देश हित में है लेकिन बेहद जल्दबाजी एवं हड़बड़ाहट में उठाया गया कदम है। निर्णय लागू होने के बाद पैदा होने वाली परिस्थितियों पर या तो ध्यान नहीं दिया गया या फिर जानबूझकर उनको नजरअंदाज किया गया है। जब सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट पर काम किया, तो लगे हाथ उसके साइड इफेक्ट्स/ समस्याओं पर भी काम होना चाहिए था। उनका हल भी खोज लेना चाहिए था। लोग तर्क दे रहे हैं जवान सीमा पर खड़े हैं, आप खड़े नहीं हो सकते क्या? देश हित में फैसला है सहयोग नहीं कर सकते क्या? इतना बड़ा काम है थोड़ी बहुत असुविधा सहन नहीं कर सकते क्या? और भी न जाने क्या-क्या? बिलकुल खड़े हो सकते हैं। सहयोग कर सकते हैं। असुविधा भी झेल सकते हैं लेकिन कब तक। कहना बड़ा आसान है लेकिन जिस पर बीत रही है वो ही जानता है…..। शिकायत फकत इतनी है कि यह सब कार्ययोजना बनाकर पूर्णत सोच विचार किया जा सकता था। भले यह सब गोपनीय ही होता। खैर….बहारों का मौसम है आनंद लीजिए।

महेन्द्र शेखावत की फेसबुक वाल से साभार

1 thought on “ऐसी भी क्या जल्दी थी….”

  1. अभी तक किसी चैनल पर चार पार्टी के राजनीतिज्ञों,सरकारी वेतन पाये अर्थशास्त्रियों,और सरकार समर्थित धार्मिक संत,कलाकार,अपना बयान दर्ज करा रहे है,मीडिया के साथियों से निवेदन है की किसी सब्जी वाले,चाट वाले,तिपहिया रिक्शा चलाने वाले,ट्रक ड्राईवर,मंदिर के बाहर माला और प्रसाद बेचने वाले को भी स्टूडियो में बुलाये वो भी मोदी जी की नॉटिकल स्ट्राइक के बारे में कुछ तारीफ के दो शब्द कहना चाहता है उसे भी कुछ कहने का मौका दीजिये,वे भी इसी भारत के नागरिक है,देखना होगा की कौन सा देशभक्त चैनल अपनी trp की परवाह न करते हुए इन्हें बुलाता है,और जनता से रूबरू कराता है,जय हिन्द..

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