मुझ जैसा जो बिखरा था,
वो मेरा ही कमरा था.
मैं तो था मज़ार जैसा,
वो भी एक मक़बरा था.
चुभने लगा किनारों को,
पानी बहुत खुरदरा था.
शहर में तो थी आगज़नी,
मैं जंगल से गुजरा था.
उस पहाड़ पर था चढ़ना,
जिस पहाड़ से उतरा था.
चेहरे देखे कब मैंने,
मैं टूटा आईना था.
जिसमे सारी उम्र कटी,
अँधा ,गूँगा,बहरा था.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी