एक नदी …..

 

 

 

एक नदी …..
उमड़ती घुमड़ती सी
तेज़ धारा संग बहती
कलकल का शोर मचाती

आ पहुँची अचानक
एक समतल ज़मी पर
मंद हो गई चाल उसकी
ना शोर, ना कोई आवाज़
बस बहने की प्रक्रिया
निरंतर है जारी

क्या ज़मी का समतल होना
है उदासीनता का परिणाम
या फिर ये नियति थी और
यही होना था अंजाम………

इस समतल धरा पर
आते ही बहुत कुछ
छूट गया था

वो मधर संगीत,
अविरलता की ताज़गी
अपनी निर्मलता
और अपना वज़ूद

कितना मुश्किल लगता है ना
उमंग के बिना जीवन
फूलों के बिना मधुबन

अब बस इक स्थिरता
रक्त रंजित बातें
बीते हुये लम्हें और
और साथ चंद यादें ………..

..आशा गुप्ता ‘आशु’

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