ताँगा

अनिमेष उपाध्याय
अनिमेष उपाध्याय
“घोड़ा था घमंडी पहुँचा सब्जी मंडी सब्जी मंडी बरफ पड़ी तो घोड़े को लग गई ठंडी “तब्बक- तब्बक” “तब्बक -तब्बक”

‘बचपन की स्वर्णिम स्मृतियों से’

खंडवा में आज से 25 साल पहले रिक्शों से ज्यादा ताँगे होते थे उन तांँगों में सवारी अपना एक अलग ही मजा था।

बचपन में रेलवे स्टेशन जाना हो या बस स्टैंड या किसी रिश्तेदारी में, मैं झट से बड़े बम से तांँगा ले आता था। मैं तो स्कूल भी तांँगे से ही जाता था। स्वभाव से मैं अति चंचल और शारीरक रूप से हृष्ट-पुष्ट था। चंचल स्वभाव के कारण मेरी जगह हमेशा आरक्षित रहती थी इकबाल चाचा (ताँगे वाले चाचा )के पास।

हम सब बच्चे इकबाल चाचा को सिर्फ चाचा के नाम से ही संबोधित करते थे हम बच्चों के लिए चाचा कहना ही काफी था।

स्कूल की शिकायत हो या कोई अन्य गतिविधियाँ चाचा ही हमारे माता- पिता तक पहुँचाते थे जिस दिन स्कूल में ज्यादा मस्ती या कोई बड़ी शरारत की हो उस दिन चाचा को बहुत प्यार से मनाते थे कि चाचा शिक्षक द्वारा की गई शिकायत घर में किसी से न बोले । चाचा थे बहुत दयालु वो बहुत कम शिकायत ही घर करते थे। चंचल स्वभाव के साथ जिद्दी करना मेरी आदत थी

चाचा से रोज जिद्दी करता था कि आज तो ताँगा मैं ही चलाऊँगा, मेरी जिद्दी के आगे चाचा भी झुक जाते थे हाथ मे चाबुक थमा देते थे और कहते थे ले चला ताँगा, मैं समझता था कि चाबुक के जोर से घोड़े को मैं नियंत्रित कर रहा हूँ, चाचा जानते थे कि इसकी चाबुक में तो इतना जोर भी नहीं है कि राजा (घोड़े का नाम) दो कदम भी बढे़, असल में चाचा राजा को रास से ही नियंत्रित करते थे मैं तो बस अपनी जिद्दी पूरी होने और दूसरे बच्चों को दिखाने में ही खुश हो जाता था। कभी गलती से तो कभी जानबूझ कर अपनी पानी की बोतल तांँगे के चक्के में डाल देता था, जब बोतल पर से चक्का निकलता तो मजा भी खूब आता था लेकिन घर पर डॉट भी उतनी पड़ती थी और चाचा का शिकंजा और बढ़ जाता था थोड़े दिन चाचा सख्ती से रहते लेकिन उनके स्वभाव में सख्त रहना कहा था फिर कोई नयी शरारत कर देता था। अब तो ऐसी हालत हो गई थी कि चाचा को अपना दोस्त मानने लग गया था दिन भर की स्कूल की मस्ती और शिक्षक की डाँट सब उन्हीं को बताया करता था कभी-कभी तो चाचा खुद ही शिक्षकों को डाँंट लगा आते थे ऐसे ही समय बीतता गया।

मुझे अच्छे से याद है मम्मी- पापा मेरा जन्म दिन बहुत धूम-धाम से मनाते थे और मैं बहुत पहले से दिन-महीने गिनने लग जाता था। उस जन्म दिन पर मैंने चाचा को भी बुलाया था घर पर किसी को पता नहीं था कि मैंने चाचा को भी बुलाया है सुबह से ही खुश था कि आज चाचा घर आयेंगे, उस दिन सारे रिश्तेदार, मुहल्ले व स्कूल के मित्र आ चुके थे लेकिन मेरा मन चाचा में ही लगा था जन्म दिन मना लेकिन मेरी नजर दरवाजे पर ही थी की चाचा आते ही होंगे अब तो सब मेहमान भी जाने लगे थे मन उदास सा हो रहा था इतने में चाचा ने आवाज लगाई घनिमेश में दौड़ कर चाचा के पास गया उन्होंने गोदी में उठा कर स्नेह के साथ शुभकामनाएँ दी और एक स्टील का गोल डब्बा दिया उस पर भी “घनिमेश को सप्रेम भेंट इकबाल चाचा की ओर से” लिखा हुआ था मैं खुश था आंँखो में नमी थी और चाचा से पूछा चाचा इतनी देर क्यों कर दी आने में मुझे लगा आप भूल गए उन्होंने कहा तुझे भूल सकता हूँ क्या पूरे महीने भर से तो बोल रहा है कि 30 को आना है ।

मैं खुश था कि चाचा घर आये और मेरे माता-पिता मुझसे ज्यादा खुश थे कि मैंने उन्हें भी बुलाया। ये मेरे जीवन की वो धुँधली यादें हैं जिन्हें मैं जीवन भर सहेज कर रखूँगा।

कुछ समय पूर्व खंडवा के घँटा घर में मुझे चाचा की झलक दिखी मुझ से रहा नहीं गया धुंँधली सी उन यादों में चाचा का चेहरा याद था मैं उनके पास गया और मैंने पूछा चाचा आपका तांँगा था, न उन्होंने कहा “हाँ” मैं बहुत खुश हो गया चाचा से बातचीत हुई और बात-बात में मैंने पूछा ताँगा कहाँ है तब उन्होंने बड़े दुखी मन से कहा “बेटा ताँगा तो बेच दिया, “यह सुन कर दुख तो मुझे भी बहुत हुआ लेकिन आज-कल तांँगे में बैठता कौन है, खंडवा में इक्के-दुक्के ही ताँगे बचे हैं। चाचा से मिल कर दिल खुश हो गया और आँखें भरआयीं चाचा ने मुझे इतने सालों बाद भी मुझे “घनिमेष” कहा, चाचा के साथ सेल्फी ली फिर मिलने का वादा किया और घर आ गया।

अनिमेष उपाध्याय
साहित्य कुटीर ब्रह्मनपुरी बड़ा बम
खंडवा (मध्यप्रदेश)
मो 9406605051

1 thought on “ताँगा”

  1. ऐसा भाईचारा और प्रेम हिन्दू मुस्लिम के बीच बना रहे ऐसी दुआ हम सब की है.

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