निर्लिप्त हूँ

उर्वशी
उर्वशी
देह की तिलिस्मी आंच में
तपकर तुम
अपने अस्तित्व की स्वीकार्यता
का उत्सव मनाते हो
पुरूष होने के
मानक तय करते हो
क्योंकि ,
तुम्हारें पुरुष होने के दंभ ने
तुम्हारा सामर्थ्य
इसी सोच तक
सीमित कर दिया हैं
और मैं!!!!!
पिघलकर उस शिलाखण्ड में
परिवर्तित हो जाती हूँ
जिसकी पाषाण देह पर
तुम मेरी महानताओं की
गाथाएँ उकेर सकते हो
फिर भी मैं विजित हूँ
अन्तस् से तुमसे आज भी
निर्लिप्त हूँ।

Dr. उर्वशी भट्ट

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