“कठपुतली वाला”

शनिवार का दिन था स्कूल में बड़ी चहल-पहल थी , बच्चों के चेहरों पर खुशी थी ,सभी बड़ी उत्सुकता के साथ कठपुतली वाले का इंतज़ार कर रहे थे।

ठीक 12 बजे खेल शुरू हो गया जो एक घंटे चला जिसके बीच बच्चों को खाने पीने का सामान भी दिया गया ।1.30 बजे स्कूल की छुट्टी हो गई और सभी बच्चे उछलते कूदते खुशी खुशी घर को चल दिये।

मिनी भी बहुत खुश थी , घर पहुंच कर तुतलाती भाषा मे मम्मी पापा को कठपुतली कर किस्से सुना रही थी , शाम को मम्मी के साथ गार्डन में गई तब भी सबको बड़ी हंस हंस कर , नकल उतार उतार कर कठपुतली की बातें बता रही थी।पड़ोस की मिसेज शर्मा भी अपनी बेटी को लेकर आई थीं मिनी की मम्मी उन्ही के पास जाकर बैठ गई और बतियाने लगी ” देखो आज बच्चे कितने खुश हैं भले ही स्कूल वालों ने कठपुतली के खेल के लिए 250 रु प्रति बच्चा लिए हों लेकिन अखरे नही , बच्चों की खुशी के आगे वो भी कम ही हैं , आखिर स्कूल वालों को भी तो खर्चा करना पड़ता है फिर कठपुतली वाले को भी दिए होंगे , जो भी हो बस हमारे बच्चे खुश हैं और क्या चाहिए ।”

बतियाते बतियाते अंधेरा होने लगा था मिनी ओर मम्मी दोनों घर लौट आए ।

दूसरे दिन सन्डे था ।मम्मी पापा ने योजना बनाई की दिन में क्राफ्ट मेला देखने चलेंगे वहीं कुछ खा पी भी लेंगे और खरीददारी भी कर लेंगे ।

तो योजना के अनुसार मिनी ओर उसके मम्मी पापा मेले में पहुंच गए ।

मिनी की नज़र एक बच्चे पर पड़ी जो रंग बिरंगी कठपुतलियां बेच रहा था जो उसने स्वयं ने बनाई थी बच्चा फ़टे कपड़ों में नगें पांव खड़ा था।मिनी उसी के पास रुक गई और कठपुतली खरीदने के लिए मम्मी से जिद करने करने लगी , मम्मी ने लड़के से पूछा ” एक कठपुतली का जोड़ा कितने में दे रहा है रे ? ”

लड़के ने कहा 150 रु. जोड़ी है आँटीजी ,

मम्मी बड़े ही आश्चर्य से बोली ” क्या लूट मचा रखी है तुम लोगों ने 50 रुपये की चीज के 150 रु. वसूल रहे हो , देना है तो सही सही बोल रे छोरे वरना छोड़ ।”

बेचारा लड़का 50 रु. में तैयार हो गया और मम्मी ने कठपुतली खरीदकर मिनी के हाथ में दे दी ।

मिनी खुशी से उछलती मम्मी पापा के साथ आगे चल दी ।

लड़का वहीं खड़ा बाकी की जोड़ियाँ बेचने में लगा रहा ।

रात होने लगी थी मिनी मम्मी पापा के साथ खा पी कर घर लौट गई थी लेकिन वो लड़का बैठा बैठा आज की कमाई गिन रहा था और उदास सा बैठा रहा फिर कुछ देर में उठा और वो भी घर को चल दिया । घर पहुंच कर आज की कमाई अपनी विधवा माँ को दे दी जो खुद भी घरों से काम करके लौटी थी और रूखा सूखा खाना बनाकर बेटे का इंतज़ार कर रही थी।उसने बेटे को खाना परोसा और खुद भी खाने लगी । दोनों खाना खाते जा रहे थे और सोचते जा रहे थे ।माँ के दिमाग में घर खर्च के हिसाब की उधेड़बुन चल रही थी तो बेटे के दिमाग में नई कठपुतली बनाने की वो सोच था जितने पैसे आज मिले हैं उतने का तो नई कठपुतली का सामान ही आ जायेगा ।

बस यही सोचते सोचते दोनों का भोजन भी समाप्त हो गया था और वो सोने को चल दिये थे लेकिन दोनों को ही नींद कहाँ आनी थी , दोनों ही करवटें बदल रहे थे ।

माँ को घर की और बेटे के भविष्य की चितां सता रही थी वहीं बेटे को माँ की और दूसरे दिन की ,

और शायद दोनों के पेट भी भरे नही थे , बस इसी उहा पोह में रात निकल गई ।

सूरज उग गया था और दोनों माँ बेटे फिर से अपने अपने काम को निकल चुके थे और उधर मिनी भी स्कूल जा चुकी थी ।

मीनाक्षी माथुर
जयपुर

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