खुशियों भरा जमाना

अंजू दवे
आजकल के भागते युग में अक्सर लोग वक्त के ठहराव को ढूंढते है। क्यूंकि उसे तहे दिल से जब तक महसूस नही कर लेते वह लम्हा जिया हुआ नही लगता। सही भी है क्योंकि एक-एक धागा सीकर ही कारीगरी का हुनर साधा जा सकता है, या बैठ कर उन अच्छे बुरे वक्त को दिल में फिर टटोला जा सकता है यादों के कोहरे में से। आजकल इस भागते युग में से क्या निकलेगा, फिर गालों पर बैठी हुई सिलवटों से…??
पर एक बात यह भी है जो इस दौर की सबसे बड़ी खूबसूरत बात है – वह है व्यस्त रहना और खुश रहना। इस दौर में इतना तनाव है – बढ़ती भीड़, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती दूरियां, एकांकीपन, जिम्मेदारियॉ की आदमी कम उम्र में ही कई रोग पाल लेता है या बूढ़ा होने लगता है। और तब आदमी को समझ आती है ‘‘खुशी’’ की महत्ता और उसे पाने की तरकीब।
जहाँ पुराने युग में आदमी एक दर्द को लेकर पूरी जिंदगी गुजार देता था – चाहे वह किसी के लिए इश्क हो, किसी का दिया हुआ धोका हो, बीमारी हो, मुफलिसी हो या कुछ और। किंतु आज इस बदलते युग की मांग है कि आप खुद को संभाल कर अपना ध्यान अपने व्यस्त रहने में लगाये। खुश रहे व औरो को खुशियां बाँटे।
यह भी सच है कि हर व्यक्ति के दुख का कुछ ना कुछ दुःख का कारण है। जीवन है तो सुख और दुख दोनों ही होंगे। हाँ, कही ज्यादा, कही कम। किंतु आज के युग का व्यक्ति इतना समझ चुका है कि ‘‘खुशी’’ उसके माँगने या उसके इंतजार करते रहने से नही मिलती क्युकी फिर तो ‘‘खुशी’’ सिर्फ एक घटना होगी और फिर वह चली जायेगी क्युकी आपने स्वयं ने ही उसे किसी विषय से जोड़ दिया है। आज के दौर के व्यक्ति ऐसे भी है जो थोड़े में संतुष्ट नही है, या अधिक महत्वाकाक्षी है, परंतु यह सच भी है कि एक जीत या हार उनका पूरा जीवन नही तय कर देती। वह अपना कर्म करते है, लक्ष्य निर्धारित करते है व आगे बढ़ते है। शायद इस युग की यह एक विशेष बात है कि लोगों ने क्षणभंगुरता को समझा है – सुख या दुख दोनो के क्षणभंगुर हो जाते है। ऐसे में व्यक्ति अपने दिमाग को केंद्रित कर अपना कर्म, अपनी रुचिपूर्ण कार्य या कुछ सकारात्मक या सृजनात्मक त्रिज्या में लीन होकर अपना जीवन जीते है। ऐसे मे व्यक्ति खुशियां ढूंढता नही है बल्कि उसे एक आंतरिक शांति मिलती है जिस से ‘‘खुशी’’ उसके जीवन की आदत बन जाती है।
यह भी है कि बीते युग में लोग अपना दुःख कह कर बाँट लेते जो कि अब भी है। किंतु बीते युग की तरह तिल-तिल कर उसी दुःख को बार-बार पिरोते रहना इस युग को मंजूर नही है। क्यूंकि इन युग का व्यक्ति यह जनता है कि यह दुःख अब उस इंसान की व्यासनता बन गया है। उसे खुद इसे बार-बार घोल कर पीने की लत लग चुकी है। ऐसे में इसका इलाज हल ढूंढने में है। और जो हल ना हो तो उसे मंजूर कर, जिंदगी को व्यस्त कर, इस दुःख से ध्यान बाट कर जीने में है। अगर जो व्यक्ति अपने दुखों में इतना दुखी है, इसका अर्थ है वह बहुत आत्म केंद्रित है। उसे आप से निकल कर दूसरे विषयो पर जाना आवश्यक है। नही तो वह इस युग को, इस पीढ़ी को कोसेगा। पर इस पीढ़ी और इस युग के लोग चाहे ईश्वर के करोड़ो चित्रों, बुतों या इबादतों से ना जोड़ पाये पर अपने जीवन को जरूर उस परम ऊर्जा से जोड़ पाते है। वही ऊर्जा जो उन्हें प्रेरित कर व्यस्त रखती है और ‘‘खुशी’’ को एक सकारात्मक आदत बना देती है।

लेखिका
अंजू दवे

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