“प्रेस स्वतंत्रता” -शोषक भी और शोषित भी

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस–वर्तमान परिप्रेक्ष्य में

अमित टंडन
अमित टंडन
अजमेर। मैं कभी कभी सोचता हूँ के “स्वतंत्रता” शब्द को भी क्यों न हम उसी तरह मानें, जैसे भारत को माँ मान कर उसे एक शक्ल दे दी गई और उसके चित्र बना कर पूजा की जाती है। यकीन मानिये के “स्वतंत्रता” का असल रूप इतना मोहक आएगा कि हर कोई रीझ जायेगा।
मगर ये हमारे भरतीय समाज की कुत्सित मानसिकता है कि हम मोहक चीजों की कद्र नहीं करते। और सुंदरता का शोषण और भक्षण करके उसे नष्ट करने पर आमादा रहते हैं।
आजादी की लड़ाई के वक़्त अनेक महान देशभक्तों ने “प्रेस” शब्द का उपयोग एक क्रांति के लिए किया था। देश के हर हलके की गतिविधयों को दूसरे क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए छोटे अख़बारों या पेम्पलेटों का सहारा लेकर आजादी की ज्वाला “लेखनी” के माध्यम से फैलाई गई। वो एक मिशन था।
मगर, मुल्क की आजादी के साथ साथ देश वालों ने प्रेस की आजादी का भी दोहन-शोषण शुरू कर दिया। “स्वतंत्रता” की इस बेकद्री ने पत्रकारिता को बाजारू बना डाला।
स्वतंत्रता के बाद जब “प्रेस स्वतंत्रता” यौवन की उम्र को पहुँची, तो मुल्क के मौकापरस्तों का आर्थिक और राजनीतिक व्यभिचार जागने लगा। प्रेस स्वतंत्रता उन्हें लूट खसोटने का सामान दिखने लगी। “मिशन” कब “विशुद्ध व्यापार” में बदल गया, पता ही नहीं चला। विडम्बना ये, कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद से तो प्रेस स्वतंत्रता का “सामूहिक दैहिक शोषण” होने लगा।
सत्ता के हाथों मीडिया बिकने लगा। बड़े व्यापार घरानों के क़दमों में प्रेस वाले बिछने लगे। सस्ते में बड़ी सामाजिक लोकप्रियता पाने के लालच में अर्ध ज्ञानी या पूर्ण अज्ञानी भी स्वयं को पत्रकार मान कर दुकानदारी करने लगे।
प्रेस मालिक तो आजादी के बाद मौके का फायदा उठा के मीडिया का रुआब दिखाते हुए अपने उल्लू सीधे करते रहे..; वहीं कई पैदाइशी रईसों को प्रेस की पॉवर का एहसास हुआ तो, अपना सिक्का सल्तनत से लेकर निज़ाम तक पर बनाए रखने के लिए स्वयं के अखबार या न्यूज़ चैनल शुरू कर दिए। खबरें भी अब “प्रोडेक्ट” बना कर बाज़ार में परोसी जाने लगीं। हो सब सफेदपोशी की आड़ में रहा है।
बिलकुल वैसे ही जैसे बड़े बड़े नेता, बाबा लोग या तथाकथित संभ्रांत लोग महिलाओं और बच्चियों पर दरिंदगी कर रहे हैं, वैसे ही ये मीडिया के भेड़िए “प्रेस स्वतंत्रता” के कपडे सरेआम उतार रहे हैं। विज्ञापन के नाम पर अखबारों के सौदे हो रहे हैं
और बेचारी “स्वतंत्रता”…! वो अपनी खूबसूरती को कोस रही है।
ऐसा भी नहीं कि अच्छी और सच्ची पत्रकारिता करने वाले बचे नहीं, या इस क्षेत्र में आ नहीं रहे। प्रेस स्वतंत्रता की लाज बचाए रखने को कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए, और आ भी रहे हैं, मगर…. सच्चाई, ईमानादारी, कर्मठता, मेहनत, लगन की अब कीमत नहीं है। कई ईमानादर पत्रकारों ने सच्चाई के लिए जान गँवाई। मगर अब प्रेस लाइन में भी भाई-भतीजावाद, चाटुकारिता, मौकापरस्ती तथा मतलबपरस्ती का बोलबाला हो गया।
*हालाँकि खबरों के चयन और स्तर में गिरावट है, लेकिन इन सब से इतर प्रेस और मीडिया के बदलते स्वरूप ने कई सकारात्मक प्रभाव भी समाज पर छोड़े हैं। खास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से युवाओं को रोजगार का एक नया क्षेत्र मिला है। हज़ारों बेरोजगार कैमरामैन या विसुअल एडिटर आदि तकनीकी कार्य करके रोज़ी चला रहे हैं
दूसरी और गाहे बगाहे आने वाली अनेक मानवीय ख़बरों या सन्देश देने वाले आलेखों के माध्यम से एक नई जागृति और चेतना जगाने का काम प्रेस कर रही है। अखबार को स्वयं में यूँ तो एक मुकम्मल विश्वविद्यालय माना जाता है, और इसका यही सकारात्मक पक्ष समाज उत्थान में सहयोगी है। माउंटेन मैन जीतराम मांझी से लेकर खेल, शिक्षा और विज्ञान जगत, या अंतरिक्ष मिशन से लेकर सेना के जवानों के हित की बात पर मीडिया ने मुखर होकर हमेशा आवाज़ उठाई और उनकी उपलब्धियाँ जहाँ समाज तक पहुंचाई, वहीं उनकी जरूरतों के लिए भी हुंकार भर कर अपना कर्तव्य निभाया। ख़ास कर बच्चे बच्चीयों या महिलाओं पर होने वाले अपराधों के खिलाफ तो जैसे पूरा प्रेस जगत एकजुट होकर एक आंदोलन सा प्रतीत होता है। गुण अवगुण साथ चलते हैं। बस प्रेस मालिक व कर्मचारी अवगुणों को पहचान कर त्यागने का संकल्प लें तो इस क्षेत्र को पुनः एक आंदोलन बनाया जा सकता है।

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