वह किसान है। धरती को पूजता है। धरती उसे अन्न उपजाने के आशीर्वाद देती है। वह उस अन्न को पृथ्वी जन का पेट भरने के लिए वितरित करता है। सारी दुनिया को अन्न देता है । अपनी मेहनत से उपजाया अन्न। धरती मां की आशीर्वाद से मिला अपना अन्न । धरती के पूजक को क्या मिलता है? दो वक्त की रोटी भी नहीं? उसके खेत में उसके बाड़े में बंधे पशुओं को भरपेट चारा भी नहीं । और यह सब होता है बाजारीकरण के कारण। समाज की व्यवस्था के कारण। राज की व्यवस्था के कारण। यह जो भी होता है, गलत होता है। एक और 8 घंटे कुर्सी पर बैठकर कलम चलाने वाले फाइल इधर से उधर भेजने वाले इतना कमा लेते हैं कि अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाते और अपने आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छी संपत्ति जुटा सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। और उन्हें करना भी चाहिए। इससे किसी को एतराज नहीं ।कोई विरोध नहीं । और हां सदन में बैठकर राज व्यवस्था को चलाने वाली सत्ताधारी अथवा विपक्ष में बैठने वाले जब अपनी मानदेय या अपने भत्तों को महंगाई के नाम पर बेशुमार बढ़ा लेते हैं तब वे महंगाई को किस कसौटी पर कसते हैं? गरीब जनता के लिए कोई और कसौटी और अपने लिए कोई और मानदंड? यह तो सरासर लोकतंत्र के विरोधी बात है । लेकिन धरती की पूजा करने वाले की पीड़ा को सुनने वाला भी कोई नहीं? न समाज व्यवस्था? न राज की व्यवस्था? ऐसा नहीं होना चाहिए। यह किसान ही है जिसके दम पर बाजार चलते हैं । यह किसान ही है जिसके दम पर हम सुखपूर्वक सुबह शाम दो रोटी उदर में डालकर अपने अपने काम धंधे पर निकलते हैं । और अपनी संपत्तियां खड़ी कर लेते हैं । वह किसान ही है जिसने भारत को सोने की चिड़िया का देश बनाया। वह किसान ही है जिसकी मेहनत के पसीने से खेत लहलहाते हैं और हमारा देश विकास के पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ता है। उसी की हम नहीं सुनते? यह विडंबना है! वह अपनी पीड़ा समय-समय पर व्यक्त करता है! वह अपनी मांगे समाज और समाज के संस्थाओं के सामने सरकार के आगे रखता है! बार-बार रखता है! लेकिन कोई नहीं सुनता। आखिर किसान को हल छोड़कर मुट्ठियां ताननी पड़ती है । यह विडंबना है । जब किसान आंदोलन करता है तो उसे सीख दी जाती है । लेकिन जब कोई और वर्ग आंदोलन करता है तो सरकार झुकती है। यह सत्ताधारी पार्टी झुकती है । साफ जाहिर है किसान वोट बैंक नहीं है । लेकिन वह अपना रोष एकजुट होकर प्रदर्शित कर रहा है तो सरकार के नुमाइंदे इसे भी किसी और पार्टी के शह बता रहे हैं। कभी दौर था जब हर बात के पीछे विदेशी हाथ होने की बात कही जाती थी। एक यह दौर है जब हर अप्रिय बात को सत्ताधारी दल विपक्ष की बात बता देता है । यह सरासर लोकतंत्र के कसौटी पर खरा उतरने वाला नहीं है । किसी की अच्छाई को नजरअंदाज करना किसी की बुराई को बार-बार उछालना यह सामयिक हो सकता है वह भी राजनीति में लेकिन किसी की या अपनी की हुई अच्छाई दशकों बाद तक इसलिए गिनाते रहना कि हम अच्छे काम वाले ही हैं और किसी की बुराई या बुरे किए हुए दशकों पुराने कामों को बार बार हर बार बिजली की चमकार की तरह मिसाल के तौर पर रखना साफ नीयत नहीं झलकाता। यह कहना साफगोई में कि वह तो इस से भी बढ़कर करते थे और हम ऐसा क्यों न करें? यह तो लोकतंत्र के परिधि में नहीं आना चाहिए और ना आएगा । इसी का रोष किसान प्रकट कर रहा है । किसान की बात को हर घर में भले ही सुना जाता है लेकिन अधिकृत रूप से सुनने वाले तो कान बंद कर कुछ और ही राग अलाप रहे हैं। किसान को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है और किसान को अपनी मांग पर आंदोलन करने का भी पूरा अधिकार है । जब श्रमिक या सरकारी तंत्र में कोई वर्ग हड़ताल करके आंदोलन करके उत्पादन सेवाएं बंद कर देता है तब देश का कितना नुकसान होता है? किसान तो स्वयं अपना ही नुकसान करके आंदोलन कर रहा है । अपनी रोज की कमाई के लिए पैदा होने वाला सब्जी दूध बाजार नहीं ले जा रहा । आंदोलन के तहत नुकसान किसान का ही हो रहा है । आम जन को वही चीज जो बाजार में किसान नहीं पहुंचा रहा बढ़ी कीमतों पर उन लोगों से खरीदनी पड़़ रही है जो जमाखोरी कर रहे हैं । विचारणीय और जांच का विषय है कि दूध जब बाजार में नहीं पहुंच रहा तब भी दूध कैसे मिल रहा है? 4 दिन पहले का कोल्ड स्टोर में रखा हुआ? साफ जाहिर है जमाखोर कमा रहा है और नुकसान हो रहा है किसान का । नुकसान हो रहा है जनता का। सत्ताधारी तंत्र तो यह कह कर पल्ला झाड़ रहा है कि किसान आंदोलन के पीछे विपक्ष का हाथ है। और जब यही विपक्ष सत्ता में रहा तब यह उछाला जाता था की सत्तादल के अप्रिय बातों के पीछे विदेशी हाथ है । किसी भी आंदोलन किसी भी अप्रिय बात के लिए लोकतंत्र में अपनी जिम्मेदारी को पल्ला झाड़ना और दोष विपक्ष पर मढ़ना सम्माननीय स्थिति नहीं है। राज व्यवस्था को किसान की पीड़ा सुननी चाहिए किसान की मांगे माननी चाहिए।
– ✍️ मोहन थानवी
स्वतंत्र पत्रकार /साहित्यकार
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