दाद दीजिए सरकार को : एक पैसा और 2%

मोहन थानवी
आज तक की सरकारों द्वारा किए गए सभी मजाक बौने पड़ गए। इस मजाक के सामने कि पेट्रोल के दामों में एक पैसे की कटौती की गई। चमड़े के सिक्के भी अंतत: बाजार में चले तो थे, एक पैसे की कटौती के किस्से अनंत तक चलेंगे। एक और मजाक बैंक कर्मियों के साथ किया जा रहा है जिसमें 2% वेतन वृद्धि प्रस्तावित की गई। सरकार यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि बैंक कर्मियों की वेतन वृद्धि बैंक प्रबंधन का कार्य है । यदि ऐसा है तो सरकार के कितने ही और कार्यों में बैंक कर्मी क्यों संबंधित रहते हैं? यह सवाल अपने विरोध प्रदर्शन में बैंक कर्मियों ने भी उठाया है। चिरकाल से सरकार चलाने वाले लोगों में इस तरह की सोच जैसे बलवती हो जाती है की जो चुने गए जनप्रतिनिधि है उनके लिए सदन/सदनों में कुछ अलग तरह के नियम पैदा करके उनकी आय को बेतहाशा बढ़ा देने पर किसी को शर्म महसूस नहीं होती । जिस सदन/सदनों में जनप्रतिनिधियों को तोहफे के रुप में बेशुमार बढ़े हुए रुपयों का झोला पकड़ाया जाता है उसी सदन/सदनों में जब गरीब मेहनतकश मजदूर किसान नौकरी पेशा वर्ग कर्मचारी व्यापारी उद्यमी आमजन के हित की बात होती है तो किस तरह सदन कई भागों में बट जाता है? चंद हाथ समर्थन में उठते हैं तो कई सारे हाथ विरोध में मुट्ठी तान लेते हैं। ऐसा ही मुट्ठियां तान लेने का दृश्य सदन में मौजूद लोगों की जेब भरने के निर्णय पर नहीं दिखाई देता । इसीसे तो जनता को यह संदेश मिल ही जाता है कि सरकार मजाक करने में माहिर है । लोकलुभावने वादे करके भूल जाने की प्रवृत्ति 1947 की देन नहीं है । बल्कि ब्रिटिश काल की देन है। फर्क इतना है ब्रिटिश काल में वादा करके भूल नहीं जाते थे। बल्कि उन वादों को भुलाने के लिए सब कुछ छीन लेते थे। जबकि 1947 के बाद यह अंतर जरूर आया कि जिन वादों के पीछे कुछ लाभ संबंधित नेताओं के ठेकेदारों मित्रों को मिलने वाला हो यह नेताओं के प्रिय क्षेत्रों का लाभ होने वाला हूं उनकी क्रियान्विति पर ठप्पा लग जाता था। संभवतया तंत्र की ऐसी ही खामियों को भांपते हुए युवा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था जनता तक एक रुपए में से मात्र 15 पैसे पहुंचते हैं । सरकार ने एक पैसा कटौती पेट्रोल के दामों में करके पता नहीं यह मजाक क्यों किया? यूं यह मजाक की श्रेणी में भी नहीं माना जा सकता। मजाक का परिणाम अंततः हंसी होता है। लेकिन एक पैसे की कटौती को जनता हंसी में नहीं ले रही। ठीक उसी तरह बैंक कर्मी दो प्रतिशत वेतन वृद्धि को मजाक नहीं समझ रहे बल्कि शोषण की श्रेणी में ले रहे हैं । बैंक कर्मियों के साथ जनता खड़ी है। जनता का रुपयों के लेनदेन के मामले में बैंक कर्मियों से ही व्यवहार रहता है। जनता को यह भली प्रकार से मालूम है कि बैंक कर्मी कितनी सजगता, कर्मठता और से निष्ठा से अपने बैंक के उपभोक्ता की सेवा में तत्पर रहते हैं । मजाक तो यह है कि जिन जनप्रतिनिधियों को जनता वोट देकर सदन तक पहुंचाती है वह जनप्रतिनिधि ही जनता से दूरी बनाए रखते हैं ।जैसे ही चुनावी रण जीतने की मुनादी होती है उसी पल से जनप्रतिनिधि अपने आप को जनता से 1000 फीट की ऊंचाई पर समझने लगते हैं । और ना केवल समझने लगते हैं बल्कि यह उनके व्यवहार में भी दिखाई देने लगता है। मिसाल के तौर पर जनप्रतिनिधि जहां से गुजरते हैं वहां यातायात की विशेष व्यवस्था की जाती है। आम राहगीर को रोककर जनप्रतिनिधि के काफिले को आगे बढ़ाया जाता है । उसे निवास के लिए शानदार सरकारी आवास उपलब्ध होता है। चुनाव से पहले जो जनप्रतिनिधि खुद कच्ची बस्ती में रहकर खाट पर बैठकर स्टील की कटोरी में चाय पीता था वही सदन में पहुंचने के बाद जब किसी गरीब बस्ती में जाकर किसी घर की चौखट पर चाय पीता है तो वह अपना यह दायित्व समझता है कि उसकी इस चाय पीने वाली बात को तमाम देश अवश्य जान लें। है तो यह भी मजाक किंतु इस मजाक की श्रेणी एक पैसा कटौती और 2% वेतन वृद्धि जैसे क्रूर मजाक से बहुत नीचे है । कभी मजाक गरीबी हटाओ का उद्घोष करके भी किया गया था । सत्ता के दावेदारों को अबे यह भली-भांति जान समझ कर अपने कार्यों को क्रियान्वित करना चाहिए की जनता जागरूक थी । और अधिक जागरूक हो गई है । आने वाले चुनावों में जनता और भी अधिक जागरूकता के साथ कुर्सी तक पहुंचने के जुगाड़ करने वालों को दाद देगी।
– मोहन थानवी
स्वतंत्र पत्रकार
82 सादुल कालोनी
बीकानेर 334001

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