काश अबतक इलाज की अन्य पद्धतियों को भी विकसित किया गया होता !!

sangita puri
2009 की बात है , शनिवार और रविवार को बच्‍चों की छुट्टियों की वजह से नींद देर से ही खुलती है । हां , कभी कभार फोन की घंटी नींद अवश्‍य तोड दिया करती है। ऐसे ही एक शनिवार भोर की अलसायी हुई नींद के आगोश में थी कि अचानक फोन की घंटी बजी। फोन उठाकर जैसे ही मैने ‘हलो’ कहा , वैसे छोटी बहन की दर्दनाक आवाज कानों में पडी , ‘दीदी , मुझे बचा लो , ये लोग मेरी जान ले लेंगे।’ मेरे तो होश ही उड गए , विवाह के दस वर्षों तक सबकुछ सामान्‍य रहने के बाद ससुराल में इसके जीवन में कौन सा खतरा आ गया। अपने को बहुत संभालते हुए पूछा , ‘क्‍या हुआ , पूरी बात बताओ ’ तब उसने जो बताया , वह लगभग शून्‍य हुए दिमाग को काफी राहत देनेवाली थी। दरअसल गर्मी की वजह या अन्‍य किसी वजह से कई दिनों से उसके शरीर के कई जगहों पर फोडे निकल गए थे , कुछ काफी बडे भी हो गए थे। शाम को डाक्‍टर ने बडे फोडों को जल्‍द आपरेशन करा लेने की सलाह दी थी। रात में इनलोगों में लंबी बहस चली थी , बहन के पति और श्‍वसुर डाक्‍टर की सलाह मान लेने को कह रहे थे और बहन एक दो दिन इंतजार करना चाह रही थी । सुबह सुबह अपनी हार को नजदीक पाकर उसने घबडाकर मुझे फोन लगा दिया था। अपनों का कष्‍ट देखना बहुत मुश्किल होता है , उसकी समस्‍या को हल करने के लिए मैने जैसे ही अपना दिमाग खपाया , एक उपाय नजर आ ही गया।

किसी भी फोडे के लिए आयुर्वेद की एक दवा है ‘एंटीबैक्‍ट्रीन’ , मैने बहुत दिन पूर्व उसका प्रयोग किया था और उसके चार छह घंटे के अंदर उसके प्रभाव से प्रभावित होकर कई बार दूसरों को भी उसके उपयोग की सलाह दी थी , जिसमें से किसी को भी उस दवा पर संदेह नहीं रह गया था। अगर फोडा शुरूआती दौर में हो तो , यह दवा उसे दबा देती है और यदि फोडा पक चुका हो , तो यह दवा उसके मवाद को बहा देती है , यानि फोडा किसी भी हालत में हो , उसका मुंह हो या नहीं , इसका उपयोग किया जा सकता है। बाद में घाव भी इसी दवा से ठीक हो जाता है , इसलिए मैने उसके पति से एक दिन का समय मांगा और बहन को उसी दवा के प्रयोग की सलाह दी। और मेरी आशा के अनुरूप ही रात में उसकी खनकती हुई आवाज कानों में पडी। फोडा बह चुका था , पाठक कभी भी बहुत कम कीमत की इस दवा की परीक्षा ले सकते हैं। एलोपैथी की कडी दवाओं या आपरेशन से बचने के लिए इस प्रकार के बहुत उपाय आयुर्वेद में हैं , जिनके बारे में या तो लोगों को जानकारी नहीं है या फिर वे विश्‍वास नहीं कर पाते।

कई बार छोटे बच्‍चों के कब्‍ज को लेकर अभिभावक की पारेशानी को देखकर डाक्‍टर लगातार एलोपैथी की दवा चलाते हैं । मैने ऐसे कई बच्‍चों को छोटी हर्रे घिसकर पिलाने की सलाह दी है और उससे बच्‍चों को फिर एलोपैथी की दवा की जरूरत नहीं रह गयी है। तुलसी , अदरक का रस और मधु को साथ मिलाकर बच्‍चों को पिलाने से सर्दी ठीक हो जाती है , बडे भी इसका काढा पीकर सर्दी ठीक कर सकते हैं। बडे पत्‍ते वाली तुलसी , जो कि घर में नहीं लगायी जाती , वह कुछ बीमारियों में बहुत कारगर होती है। मेरी एक भांजी के पैर में घुटने के नीचे कुछ दाने हो गए , कभी कभी नोचने भी लगे , देखते ही देखते बढने भी लगे। हमने एलोपैथी के चर्मरोग विशेषज्ञ को दिखाया , उसकी कई दवाएं चली , पर कम अधिक होता रहा , जड से नहीं मिटा। हारकर हमने होम्‍योपैथी के डाक्‍टर से दिखाया। पहले सप्‍ताह की दवा से उसने बीमारी बढने की उम्‍मीद की , वह सही रहा , पर दूसरे सप्‍ताह से बीमारी में जो कमी होनी चाहिए थी , वह नहीं हुई और पहले से बडी समस्‍या देखकर हमलोग और घबडा गए। कुछ दिन बाद हमारे गांव से एक व्‍यक्ति आए , उन्‍होने देखा और अपनी दवाई सुझा दी , और उनकी दवाई से पूरा इन्‍फेक्‍शन समाप्‍त । दवाई का नाम सुनेंगे , तो आप चौंक ही जाएंगे , दवा थी , गाय के ताजे दूध का फेन। एक महीने में बीमारी समाप्‍त हो गयी। बचपन से बिल्‍कुल स्‍वस्‍थ रहे मेरे बडे बेटे को 12 वर्ष की उम्र के बाद सालोभर सर्दी खांसी रहने लगी , पांच छह वर्षों तक एलोपैथी की दवा चलाने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ , डाक्‍टर कहा करते थे कि ध्‍यान दें , इसे किस चीज से एलर्जी है , उससे दूर रखें , पर इतने दिनों तक हमें कुछ भी समझ में न आया , जितनी सावधानी बरतते , सर्दी खांसी उतनी ही अधिक परेशान करती थी। अंत में हारकर हमलोगों ने होम्‍योपैथी की दवा चलायी , और छह महीने में एलर्जी जड से दूर। हर वक्‍त टोपी , मफलर , मोजे में अपने को पैक रखने वाले और हर ठंडा खाना से वंचित रहनेवाले उसी बेटे को आज कहीं भी किसी परहेज की जरूरत नहीं होती है। ऐसी अन्‍य बहुत सारी घटनाएं हैं , जिसके कारण एलोपैथी से इतर पद्धतियों पर भी मेरा भरोसा बना हुआ है।

एलोपैथी के साइड इफेक्‍ट के कारण उत्‍पन्‍न होने वाली बहुत सी सारी शारीरिक समस्‍याओं के बावजूद भी इलाज की सर्वोत्‍तम पद्धति के रूप में अभी एलोपैथी का नाम ही लिया जा सकता है । एलोपैथी की सफलता को देखते हुए मै भी इसे स्‍वीकारती हूं , वैसे इसका सबसे बडा कारण इस मद में किया जानेवाला खर्च है , इससे इंकार नहीं किया जा सकता । पर छोटी छोटी बीमारियों के लिए ही सही , जहां पर हमारी ये देशी दवाएं कारगर है , वहां एलोपैथी का प्रयोग किया जाना क्‍या उचित है ? लोग ये जानते हैं कि सरदर्द हो , तो दर्दनिवारक गोली लेनी है , पर ये क्‍यूं नहीं जानते कि फोडा होने पर ‘एंटीबैक्‍ट्रीन’ का प्रयोग करना है। ताज्‍जुब की बात है कि यहां की इतनी सटीक देशी दवाइयों की जानकारी यहीं के ही लोगों को मालूम नहीं है। शिक्षा का मतलब अपनी सभ्‍यता, संस्‍कृति और ज्ञान को भूल जाना नहीं होता , पर आजतक ऐसा ही होता आया है , जो हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था को दोषपूर्ण तो ठहरा ही देता है। युग बदलने के साथ ही साथ हर पद्धति का विकास किया जाना अधिक आवश्‍यक है , जब तक हर क्षेत्र का समानुपातिक विकास न हो , एक क्षेत्र की अंधी दौड में हमें शामिल नहीं होना चाहिए।

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