हम बाजार में या हम में बाजार ?

फैशन के इस दौर में इतने तरह के पहनावे इजाद हो गए हैं कि हम बाजार के लिए एक प्रयोगशाला बनकर रह गए हैं। कपड़े अब सिर्फ पहनावा भर नहीं हैं बल्कि देह को सजाने का सबसे जरूरी माध्यम बन गए हैं। इस बाजार युग में बाजार कुछ भी बेच रहा है, हम कुछ भी खरीद रहे हैं। जब तक दुकानों तक जाने की जहमत थी तब तक तो कुछ गनीमत थी कि हम बाजार में थे पर जब से ऑनलाइन बाजार ने दस्तक दी है बाजार हममें आ गया है। दिन रात हम कुछ न कुछ खरीदने की सोचते हैं और बेतहाशा खरीद भी रहे हैं।
पहले खरीददारी अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर होती थी। अब बाजार तय करता है कि हम क्या पहनें, क्या खाएं, कहां जाएं? इसके लिए उसे ‘पहले आओ पहले पाओ’ या फिर कुछ डिस्काउंट का लालच भर देना होता है। कुछ ऑनलाइन दुकानें तो रात में खुलती हैं। जब सबके सोने का टाइम होता है। यह वक्त कुछ लोगों के लिए कुछ भी खरीद लेने का सुनहरा अवसर होता है। बाजार ने कुछ भी खरीद लेने की एक ऐसी बीमारी हमारे भीतर पैदा कर दी है जिसका इलाज खोज पाना फिलहाल मुश्किल है।
कई बार डिस्काउंट के चक्कर में ऐसी चीजें भी खरीद रहे हैं जो हमारे काम की है ही नहीं। धीरे धीरे हमारे घर बेकार चीजों के गोदाम बनते जा रहे हैं।
प्राय: सभी युगों में बाजार की अपनी भूमिका रही है। पहले लोग अपनी आवश्यकताएं उपलब्ध अपनी वस्तुओं को किसी अन्य को देकर उससे अपनी जरूरत का सामान लेकर पूरी किया करते थे। फिर मुद्राओं का चलन शुरू हुआ। मुद्रा देकर अपनी जरूरतें पूरी करने लगे। और आज ऑनलाइन शॉपिंग इसका अत्याधुनिक रूप है।
अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यक्ति हर युग में बाजार पर निर्भर रहा है। पर आज का बाजार युग शायद पहले से भिन्न है। हम बाजार पर सिर्फ अपनी आवश्यकताएं पूरी करने तक सीमित नहीं हैं बल्कि बाजार तय करने लगा है कि हम क्या खरीदें, क्या ना खरीदें। एक प्रकार से बाजार ने हमें मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है। ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा खपत आज के डवलपमेंट का मूल मंत्र बन गया है।
यह आज के बाजार की माया ही है कि अब वही तय कर रहा है हमें कैसे रहना चाहिए। डिस्काउंट, ऑफर और घर तक फ्री डिलेवरी ने हमारी आदत और खराब कर दी है। धीरे धीरे घर में कुछ अच्छा और स्वादिष्ट खाने-बनाने का चलन खत्म हो गया है। मेहमाननवाजी खत्म होती जा रही है। बाजार कहता है कि आप तो रोज घर का फालतू खाना खाते हैं आज हमारे रेस्टोरेंट में आइये, मेहमानों को भी लाइये स्वादिष्ट खाना सिर्फ यहां मिलता है। वक्त निकालकर अब हम स्वादिष्ट खाने वहीं जाते हैं जहां बाजार हमें बुलाता है। मेहमानवाजी का भी यही एक रास्ता बचा है कि जो मेहमान आएं उन्हें भी रेस्टोरेंट ले चलो। यह एक प्रकार का स्टेटस सिम्बल भी बन गया है कि अगर आप फैमिली के साथ होटल, रेस्टोरेंट, मॉल में ना जाएं तो आप पिछड़े हैं। और इस पिछड़ेपन के दाग से बचने के लिए होटल, रेस्टोरेंट, मॉल में दिनों दिन भीड़ बढ़ती जा रही है।
डॉ.कंवलजीत कौर
लेखिका

डॉ.कंवलजीत कौर दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और लेखिका हैं। इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पीएचडी की है। सामाजिक विषयों पर लेख लिखती हैं।

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