बुझता बुझता एहसास कि अरमान रह जाता
शाम की वीरानियों में तन्हा इंसान रह जाता
नाचते गाते लम्हे ले गया चुरा कर बड़ी दूर
शिद्दत से रोकता तो शायद मेहमान रह जाता
बहुत मजबूर लगा कुम्भिल, साथ रुक जाता
नज़र न चुरानी पड़ती घर में सामान रह जाता
हमने सुन कर भी कुछ न सुना उसके वास्ते
थोड़ी हिम्मत करता वो मेरा गुमान रह जाता
छुपती नहीं कि हर रोज़ उभर आती है कसक
तू दग़ा न करता और मिरा ईमान रह जाता
डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’