कशमकश में हूँ की कहूं कैसे,
उसके लिए मैं हूँ ये समझाऊँ कैसे,
उसे भी चाहिए एक साथी जो उसे समझे,
मैं उसका जैसा हूँ ये बताऊँ कैसे?
कुछ ही फर्क है मेरी और उसकी कहानी में,
बाकि तो सारी कहानी एक जैसी हो जैसे,
जीना उसे आता है ये मालूम है मुझको,
पर न जाने क्यूँ उसकी मुझे फिक्र हो जैसे…
“पाठक” तो लिखकर अपना जी हल्का कर लेता है,
वो तन्हाई में रोज रोज आंसू बहाती हो जैसे,
मैं साथ जीने मरने के वादे तो नहीं करता,
पर दिल हल्का करने को एक साथी बन जाऊं कैसे?
ज्यादा तो नहीं पर एक वादा है मेरा उससे,
जब भी जरुरत हो वो बात कर सकती है मुझसे,
और कोई रिश्ता तो “पाठक” को अब तक रास न आया,
दोस्ती हमेशा निभाएंगे, चाँद और चांदनी के जैसे….
त्रिवेन्द्र कुमार “पाठक”