स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, “जिसके जीवन में ध्येय नहीं वह तो खेलती -गाती, हँसती-बोलती लाश ही है। ”जब तक व्यक्ति अपने जीवन के विशिष्ट ध्येय को नहीं पहचान लेता तब तक तो उसका जीवन व्यर्थ ही है। युवको अपने जीवन में क्या करना है इसका निर्णय उन्हें ही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द परमात्मा में विश्वास से अधिक अपने आप पर विश्वास करने को अधिक महत्व देते थे। स्वामीजी कहा करते थे कि ” रुढीवादी धर्मावलम्बी कहते है कि ईश्वर में विश्वास ना करने वाला नास्तिक है किन्तु मै कहता हूँ कि जिस मनुष्य का अपने आप पर विश्वास नहीं है वो ही नास्तिक है” | स्वामीजी ने कहा कि जीवन में हमारे चारो ओर घटने वाली छोटी या बड़ी, सकारात्मक या नकारात्मक सभी घटनायें हमें अपनी असीम शक्ति को प्रगट करने का अवसर प्रदान करती है।
देखा गया है कि युग प्रवर्तक और मनीषीयों का जीवन काल साधरणतः अल्प कालीन ही होता हे, ऐसे ही युग प्रवर्तकों में शीर्ष स्थान पर स्वामी विवेकानन्द का नाम आता है जिन्होंने ने अपने उन्तालीस वर्ष की अल्पायु (12 जनवरी 1863से 4 जुलाई 1902 )में जो काम किये उसके लिये समस्त मानव हजारों साल तक याद करते रहेंगे। स्वामीजी की अनूठी भाषण शैली तथा ज्ञान को देखते हुए शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन के बाद अमेरिकन मीडिया ने स्वामीजी को साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया था । स्वामीजी के अनुसार कि अतीत की नीवं पर ही भविष्य की श्रेष्टताओं का निर्माण होता है| स्वामी विवेकानन्द मानते कि ”अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा”। स्वामीजी हमेशा अपने को ‘गरीबों का सेवक’ कहते थे। सच्चाई तो यही है कि रामक्रष्ण परम हंस के शिष्य विवेकानन्द एक बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें जाति या धर्म के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं हो। विवेकानन्दजी सन्त होने के साथ एक महान देशभक्त, श्रेष्ट वक्ता, मूलविचारक, प्रख्यात् लेखक एवं मानवतावादी भी थे। अमरिका में संगठित कार्य के चमत्कार से स्वामीजी अत्यंत प्रभावित हुए थे। उन्होंने ठान लिया था कि उन्हें भारत में भी इस संगठन कौशल को पुनर्जिवित करना विवेकानंदजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर सन्यासियों तक को संगठित कर उन्हें समायोचित उत्तम कार्य करने का प्रशिक्षण दिया था | अमेरिका से लोटने पर स्वामीजी ने भारतीयों से नवभारत के निर्माण हेतु आह्वान किया | भारत की जनता भी स्वामीजी के आह्वान पर अपने उत्थान हेतु गर्व के साथ निकल पड़ी। स्वामी के वाक्य”‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ, अपने मानव जीवन को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये |
स्वामीजी के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। दुर्भाग्य से 1884 में विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई जिससे घर का सारा भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। अत्यन्त दरिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। वे स्वयं भूखे रह कर अतिथि को भोजन कराते थे | स्वामीजी ने अपना सारा जीवन अपने गुरु रामकृष्ण परमहंसदेव को समर्पित कर दिया | विवेकानंदजी धार्मिक आडम्बरवाद, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने धर्म को मानव मात्र की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन-मनन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, रुढीवादी एवं अतार्किक मान्यताओं मानने वाला नहीं था। स्वामीजी ने उस समय क्रांतिकारी विद्रोही बयान देते हुए कहा कि “ इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये “। उनका यह आह्वान आज भी एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर उस समय सम्पूर्ण पुरोहित वर्ग की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई नामी गिरामी साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द ने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या बड़बोलापन नहीं था किन्तु एक सच्चे वेदान्ती संत की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी।
स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे, “जिसके जीवन में ध्येय नहीं वह तो खेलती -गाती, हँसती-बोलती लाश ही है। ”जब तक व्यक्ति अपने जीवन के विशिष्ट ध्येय को नहीं पहचान लेता तब तक तो उसका जीवन व्यर्थ ही है। युवको अपने जीवन में क्या करना है इसका निर्णय उन्हें ही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द परमात्मा में विश्वास से अधिक अपने आप पर विश्वास करने को अधिक महत्व देते थे। स्वामीजी कहा करते थे कि ” रुढीवादी धर्मावलम्बी कहते है कि ईश्वर में विश्वास ना करने वाला नास्तिक है किन्तु मै कहता हूँ कि जिस मनुष्य का अपने आप पर विश्वास नहीं है वो ही नास्तिक है” | स्वामीजी ने कहा कि जीवन में हमारे चारो ओर घटने वाली छोटी या बड़ी, सकारात्मक या नकारात्मक सभी घटनायें हमें अपनी असीम शक्ति को प्रगट करने का अवसर प्रदान करती है।
आज भी स्वामीजी का साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में कुछ कर गुजरने का भाव संचारित करता है। किसी ने ठीक ही कहा है – यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो व्यक्ति सहज ही सात्विक कर्म में लग कर अपने लक्ष्य पूर्ति हेतु ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। स्वामीजी की शिष्या अमेरीका की लेखक लीसा मिलर “ वी आर आल हिन्दूज नाऊ” शीर्षक के लेख में बताती है वैदऋग“ सबसे प्राचीन ग्रंथ कहता है कि सत्य एक ही है | विवेकानन्दजी के शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन यानि 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला था और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेद कर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टिकी गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरुरामकृष्ण परमहंसका सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। परम पूजनीय स्वामीजी के 154वें जन्म दिन के पावन अवसर पर उनके दूवारा बतलाये गये मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं |
प्रस्तुतिकरण एवं सकलंकर्ता—डा जे. के. गर्ग