नारी तुम स्वयमसिद्धा बनो

पंख तो दे दिए उड़ने को मुझे,
गगन का भी तो विस्तार करना था,
कैसे भरूँ मैं उन्मुक्त उड़ान अपनी,
भाती नही है,बंधनों से बंधी उड़ान मुझे,
देख सकूँ सपने,हक़ तो दे दिया मुझे,
अपनी सोच को भी तो बदलना था,
क्यों चलूँ नज़रें झुकाकर मैं ही,
नज़र से नज़र मिला कर,
चलने का सलीका आता है मुझे।

निःसन्देह पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रति सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक , शैक्षणिक , वैज्ञानिक सोच में परिवर्तन आया है , महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार के नए अवसर बने हैं और जो बंद थे वे भी खुले हैं। महिलाएं गांवों से निकल कर शहरों में और शहरों से निकल कर विदेशों में अकेली जाने और रहने लगीं हैं , स्वयं का व्यवसाय कर रहीं हैं , अनेक तरीकों से महिलाओं में स्वावलंबिता और आत्मनिर्भरता आई है।

लेकिन ये सभी बदलाव अभी बहुत सीमित क्षेत्र में हुए हैं इनका विस्तार आवश्यक है। बदलते समय के साथ महिलाओं की समस्याओं ने भी आधुनिक रूप ले लिया है अब उन्हें पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ व्यवसायिक या सार्वजनिक जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ रही है जितनी तेजी से महिलाओं के लिए शैक्षणिक और रोजगार का क्षेत्र बढ़ा है उतनी ही धीमी गति से उनके प्रति सामाजिक और धार्मिक सोच बदल पाई है इसीलिए महिलाएं अभी भी शारीरिक और मानसिक रूप से शोषित हो रही हैं उनमें एकाकीपन , घरेलू हिंसा , तलाक आदि की समस्याएं बढ़ रही हैं।

कार्य स्थल पर समानता के दृष्टिकोण का दुरुपयोग करते हुए अब महिलाओं को भी देर तक ऑफिस में ड्यूटी के नाम पर रोका जाता है , रविवार को भी ड्यूटी पर आने का दबाव बनाया जाता है , दूर दराज के क्षेत्रों में नौकरी के लिए भेजा जाता है और तो और अविवाहित युवतियों से भी नौकरी से पहले बांड भरवाया जाता है कि वे 2 वर्ष तक न तो विवाह करेंगी और न ही नौकरी छोड़ सकेंगी ताकि फर्म मातृत्व लाभ देने से बच जाए।कुल मिलाकर महिलाओं में तो जागृति आई है लेकिन उनके प्रति समाज की सोच में जागृति आना अभी बाकी है।

महिलाएं प्रत्येक देश की पूरी आबादी का महत्वपूर्ण आधा हिस्सा होती हैं और महिलाओं के चहुँमुखी विकास पर ही उस देश या समाज का विकास निर्भर करता है,कहते भी तो हैं कि एक स्त्री पढ़ेगी तो पूरा समाज आगे बढ़ेगा और एक पुरुष पढ़ेगा तो केवल वो ही आगे बढ़ेगा।भारतीय संस्कृति में महिलाओं को बहुत सम्मानजनक उच्च स्थिति प्रदान की गई है लेकिन वो मात्र सतही बनकर रह गई है सच्चाई का धरातल कुछ और ही है। 21 वीं सदी में भी हम देखते हैं कि महिलाएं बचपन से बुढ़ापे तक या पालने से कब्र तक पुरुष वर्चस्व वाले समाज के अधीन है और अपनी विभिन्न अवस्थाओं में लैंगिक,मानसिक,शारीरिक,आर्थिक,भावनात्मक शोषण को सहन करती हैं जबकि देश और समाज के विकास में वे भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर रहीं हैं जितनी की पुरुष। भारतीय संस्कृति ‘ यंत्र नार्यस्तु पूजियन्ते रमन्ते तंत्र देवता ‘ के दर्शन में विश्वास करती है और ऐसे देश में भी महिलाएं बलात्कार,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज हत्या,यौन उत्पीड़न व शोषण,लैंगिक भेदभाव,घरेलू हिंसा आदि शोषण का शिकार हो रहीं हैं जो भारत के सांस्कृतिक दर्शन के विरुद्ध है।

ऐसा नही है कि केवल भारतीय महिलाएं ही शोषण और उत्पीड़न का शिकार हैं आज सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं इस भयावह परिस्थिति से गुजर रहीं हैं। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और भेदभाव उनकी विकास और अस्तित्व में सबसे बड़ी बाधा है जिसके फलस्वरूप उस देश और समाज का विकास भी बाधित होता है। महिला सशक्तिकरण अभियान सालों से चला आ रहा है फिर भी हकीकत ये है कि महिलाएं आज भी हिंसा और उपेक्षा का शिकार हैं। समय समय पर संसद में , मीडिया में ,पुलिस ,न्यायपालिका द्वारा लैंगिक हिंसा के विरुद आवाज़ तो मुखर की जाती है लेकिन ठोस कदम नही उठाये जाते , लैंगिक हिंसा से निपटने के लिए भी जो कानून बनाये गए हैं वे भी जटिल और प्रभावहीन है , आम महिला की पहुँच से बाहर है या फिर उन्हें इसका ज्ञान ही नही है।

इसी संदर्भ में जागरूकता लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2015 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नारा दिया था – ” एक वादा , समय रहते महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का अंत।’ आज भी महिलाएं अपनी शिक्षा , नौकरी , विवाह आदि के बारे में निर्णय लेने हेतु स्वतंत्र नहीं हैं और जो स्वयं निर्णय लेने की हिम्मत करती हैं उन्हें कई प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है जैसे तेज़ाब से हमला , परिवार या समाज में बदनामी , हत्या आदि।

धार्मिक रीति-रिवाजों , संस्कारों , परम्परों के नाम पर महिलाओं के अस्तित्व को पुरुष वर्चस्व के सामने बोना कर दिया गया है। महिलाओं को सीमित दायरे में बांध दिया गया है जबकि पुरुष स्वच्छन्द जीवन जीता है। विवाह पूर्व पूरी तरह पिता व भाई के आधीन होती है और विवाह पश्चात पति , ससुर के अधीन होती है उसे क्या पहनना है ,कहाँ जाना है कहाँ नही,नौकरी करनी है या नही आदि सभी निर्णय पति करता है लैंगिक हिंसा तो पुरुष प्रधान समाज का हिस्सा ही बन चुकी है , लगभग सभी परिवारों में महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा एक आम बात है यहाँ ये जानना भी आवश्यक है कि केवल शारीरिक प्रताड़ना ही घरेलू हिंसा नही कहलाती बल्कि ऊंची आवाज़ में बोलना,गंदी भाषा मे बात करना,आर्थिक रूप से निर्भर न होने देना,अपमान करना , स्वस्थ व पोषण की उपेक्षा करना आदि सभी घरेलू हिंसा का व्यापक रूप है। यदि हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो जो पुरुष लैंगिक हिंसा में लिप्त होते हैं उन्हें यौगिक हिंसा की और बढ़ने में देर नही लगती। पूर्व महिला IPS किरण बेदी जी ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों को रोकने के लिए ” 6-P की बात कही जिसमें उन्होंने कहा कि पैरेंट्स,पुलिस,पॉलिटिशियन्स,प्रॉसिक्यूशन,पिक्चर्स और प्रिजन को मिलकर महिला अपराधों के विरुद्ध कार्य करना चाहिये। ऐसा नही है कि महिला उत्पीड़न को रोकने के लिए कानून बनाये ही नही गए हैं समय समय पर कानून तो बने हैं लेकिन उनकी पालना सुनिश्चित नही की गई साथ ही उनके साथ कई जटिलताएं जोड़ दी गई जिससे वे प्रभावशाली ढंग से कार्य नही कर पाते और पीड़िता को न्याय मिलने में देरी होती है दूसरी और दूषित सामाजिक सोच के चलते महिला को अनेक प्रकार की परेशानियां झेलनी पड़ जाती हैं।

मेरा निजी मानना है कि महिला हिंसा और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए महिला शिक्षा और स्वावलंबिता तो जरूरी है ही साथ ही सामाजिक , धार्मिक , राजनीतिक सोच में बदलाव आना भी बहुत जरूरी है और इसके लिए महिलाओं को ही आगे आना होगा और एक दूसरे का साथ देना होगा , अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी , प्रत्येक महिला को अपनी अन्तरशक्ति जगानी होगी , अपना अस्तित्व समझना होगा , निर्णय लेने की शक्ति जागृत करनी होगी , महिलाओं को एक दूसरे के प्रति सम्मान दिखाना होगा , सामाजिक और धार्मिक बेड़ियों को स्वयं तोड़ना होगा। किंतु इनसब के बीच ये भी ध्यान रहे कि महिला सशक्तिकरण का अर्थ संस्कारों व संस्कृति से दूर भागना नही है बल्कि इनके नकारात्मक पक्ष को समाप्त कर सकारात्मक पक्ष को सुंदर बनाना भी है , महिला सशक्तिकरण का अर्थ पुरुषों का विरोध नही है बल्कि उनके समान अधिकारों और सम्मान की प्राप्ति कर पुरुष की सहयोगी बनना है न की प्रतिद्वंदी।

यदि महिला सशक्तिकरण को सही अर्थों में समझते हुए महिला ही महिला का सहयोग करे तो शीघ्र ही महिला हिंसा और उत्पीड़न से भी मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।वर्तमान में महिला सशक्तिकरण की विचारधारा को भी नए रूप से परिभाषित करना आवश्यक है और इसके नकारात्मक पक्ष को दूर रखते हुए इसके सकारात्मक पक्ष को और भी मजबूत करना होगा। इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में बढ़ाये गये कदम गलत दिशा में न जायें। महिलाओ को बिना मांगे उनके हक़ की आज़ादी मिले , याचना न करनी पड़े , किंतु इस स्वतंत्रता का अर्थ कुछ भी करने की स्वच्छन्दता नही है , पुरुषों में भी स्वछंदतवादी प्रवर्ति का अंत होना चाहिये। सही मायनों में नारी को स्वयं ही ‘ स्वयंसिद्धा ‘ बनना होगा तभी महिला सशक्तिकरण सही दिशा में आगे बढ़ेगा।

मीनाक्षी माथुर
व्याख्याता(अर्थशास्त्र)

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