महिला सशक्तिकरण और ड्राइविंग सीट

सीमा “मधुरिमा”
बच्चों का एग्जाम था, बड़ी देर तक उनकी वैन नहीं आयी और न ही ड्राइवर ने, न आने की कोई सुचना ही दी । स्कूल के लिए देर पर देर हुयी जा रही थी । बच्चों के तैयार हो जाने के उपरांत हमने चैन की सांस ली और अपनी चाय बनाने के लिए ज्यों ही गैस ऑन किया बच्चे जोर जोर से चिल्लाने लगे ” कोई हमलोगों को स्कूल छोड़ने चलेगा??? गेट बंद हो जाने पर अंदर नहीं लिया जाता बच्चों को। ”

अब मैं असहाय सी तुरंत उठकर आई और आँख मिचते हुए पति की तरफ बड़ी उम्मीद से देखने लगी । वो कुछ बोलती, इससे पहले ही पतिदेव चिल्ला उठे ” देखो मुझसे तो उम्मीद रखना ही मत, कितना काम हैं मुझे, आज मंगलवार हैं सुंदरकांड का पाठ भी करना है तुम ही ले जाओ इन्हें।”

अब तक बच्चों का क्रोध आसमान पर पहुंच चुका था बोले “क्या चाहती हो एग्जाम छोड़ दें” अब मै अबला नारी क्या करती तीन पुरुषों के बीच पिस रही थी । एक पतिदेव और दो मेरे मासूम, मासूम तो नहीं ही कहूँगी, खतरनाक बच्चे जो अगर चौबीस घंटे साथ बिताना हो तो अड़तालीस घंटे कर देते हैं और जिनके पुरुषवादी रवैया के कारण मैं हाई ब्लड प्रेशर की मरीज बन चुकी हूँ । किसी से भी अपना दर्द नहीं बाँट सकती ।सभी कहने लगते हैं इतने मासूम बच्चों की बुराईयाँ करते शर्म नहीं आती । अब किसी से क्या कहूँ मेरे बच्चे कितने मासूम हैं और क्या कहूँ कि बस एक हफ्ते के लिए मेरे बच्चों कि मम्मी बनकर देख लें उसी दिन से बच्चों की मासूमियत से प्रेम होना समाप्त न हो जाय तो मैं अपनी एम. ए. की तीनों डिग्री फाड़ दूँ ।

मरती क्या करती उठायी अपनी स्कूटी और चल दी दोनों को बिठाकर गंतव्य स्थल की तरफ, जो था लखनऊ का लामर्टिनियर कॉलेज । अगले बीस मिनट मे पहुंच गए लामार्टिनियर कॉलेज । वहां पहुंच कर हम तो चौक ही गए, लगा जैसे बड़ी गाड़ियों का कोई जुलुस निकल रहा हो जिसका आव्हान स्त्रियों ने किया हो । मैंने साहबजादे से पुछा इतनी गाड़ियों की भीड़ क्यों हैं वो बोले, अरे मम्मी आप तो आप ही हैं इतनी भीड़ तो रोज ही होती हैं ये सब लोग अपने अपने बच्चों को छोड़ने आयी हैं ।

बस फिर क्या था मेरा खुरापाती दिमाग अब कहाँ चैन लेने वाला था । अब मेरा दिमाग एक एक गाडी की महिला चालक का मुआयना करने लगा । ऐसा लगा जैसे किसी फैशन परेड मे मम्मियां आयी हों । एक तरफ हम जिसने उठने के बाद मुँह तक न धोया था और दूसरी तरफ वो सुंदरियाँ, जो सुबह सुबह पुरे मेकअप मे रंग बिरंगी लिपस्टिक, काजल और उस पर आधुनिक कपड़े, मुझे तो धीरे धीरे अपने पहनावा और बिन धुले मुँह पर तरस आने लगा और ये भी प्रतीत होने लगा कि जैसे उनमे से आधे से ज्यादा मॉडर्न मम्मियाँ तो शायद मुझे कोई काम वाली टाइप समझ मुहं फेर रही थी ।

सच कहूँ तो उस दिन मुझे मेरा गोरा रंग भी कोई लाभ नहीं दे पा रहा था क्योंकि उन महिलाओ के चेहरे पर लगे फाउंडेशन की चमक के आगे मेरा रंग फीका ही लग रहा था और उस दिन मुझे रंग भेद की नीति की कडुवाहट से भी लगभग सामना सा हो रहा था। ये सब उथल पुथल मन मे चल ही रही थी कि, देखा कई मम्मियों ने गाडियों को उल्टा सीधा फंसा दिया जिस कारण चार पांच ट्रैफ़िक कंट्रोलर को आना पड़ा और उन्होंने सिटी मार-मार कर एक-एक कर फंसा हुआ जाल सुलझाया । उफ्फ्फफ् मै कैसे आधे घंटे बाद उस भीड़ से निकल पायी, मै ही जानती हूँ । आज उस भीड़ से निकलने पर आभास हुआ कि स्त्री सशक्तिकरण और ड्राइविंग सीट का आपस मे गहरा तालमेल है ।

जिस घर मे भी गाडी आ गयी, पुरुष वर्ग जल्द से जल्द नारी को अभ्यस्त करवाकर एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है और फिर इस जद्दोजहद मे स्त्री को जूझने को छोड़ देता है और स्त्री बिचारी इसको बहुत जिम्मेदारी वाला काम समझ घर के कामों के साथ इसे भी जूझने के लिए अपना लेती है या फिर मजबूरन अपनाना पड़ जाता है । इसके अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं, आखिर एक माँ है और बच्चों की हर जरूरत उसे पूरा करना ही है।

सीमा “मधुरिमा”
लखनऊ ( उत्तर प्रदेश)

error: Content is protected !!