पटरियों की तरह

पहले -पहल जब
हम रोज मिला करते थे
अनकही बातों के
जबाब भी तुम मुस्कुरा कर देते थे
और
अब हम समझदार हो गए
ज्यादातर चुप रहते हैं
किसी बहाने से हाथों को
छूने के तरीके भी नहीं तलाशते
वो रंग जो
मेरे पहनने से
तुम्हारी आँखों में फबा करता था
मैं उससे कतराती हूँ
कहीं रिझाने का
कोई ढंग ना समझ लो तुम,
मेरी बेशाख्ता छूटी हँसी
जो तुम्हे पसंद थी
उस पर भी पहरे लगा लिए हैं मैने,
कहीं फाइलों से
तुम्हारा ध्यान ना भटक जाए ,
काम का हर्जा बर्दास्त नहीं है तुम्हें ,
बस
अब हम साथ-साथ चलतें हैं
पटरियों की तरह ।

रजनी मोरवाल, अहमदाबाद

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