औरत: हर रूप में महान

रीता विश्वकर्मा
औरत जो पत्नी और माँ है………. पुरूष जो पति और पिता है। दोनों में कितनी असमानताएँ हैं, जैसे जमीन और आसमान।
पुरूष निकम्मा/निठल्ला/कामचोर…………… औरत- कर्मठ गृहणी……… जिस्म के टुकड़ों को रक्त पिलाकर पाला- बड़ा किया। पति का सहयोग मात्र पत्नी को जननी बनाने तक। समय बीतने लगा- बच्चे बड़े होने लगे। पति का निठल्लापन अपने चरम पर। इस परिस्थिति में…………..।
बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सारे यत्न कर डाले। तथाकथित सभ्य समाज के झूठे वायदों/आश्वासनों के परिणाम स्वरूप निराश माँ ने अपने बच्चों को पालने के लिए कमर कस लिया, वह जिस्म बेंचने लगी- अब वह उस कमाई का सदुपयोग अपने बच्चो के लिए करती है। बच्चे अबोध- मासूम- उन्हें क्या मालूम कि माँ के इस कर्म में लिप्त होने से उसे पतिता कहने लगे हैं लोग। तथाकथित सभ्य/सुसुप्त समाज में प्रतिष्ठा का आगमन हो चुका है। अड़ोस-पड़ोस के लोगों में खुसुर-फुसुर…….. लेकिन औरत जो माँ है ने अपने कानों में रूई डाल रखा है। वह- वही सब कर रही है जिसके करने से उसका घर-परिवार संचालित हो सके।
वह जिस्म बेंचने वाली क्यों बनी-? इसे जानने के लिए समाज में प्रतिष्ठा के ठेकेदारों के पास न तो समय है और न ही समझ। किसी के बारे में उल्टा-सीधा (नकारात्मक) कहने में कुछ नहीं लगता। वह भी एक औरत को लाँछित करने के लिए- बस चारित्रिक दोष मढ़ना ही काफी है। दोष मढ़ने वालों के पास इसके अलावा कोई अन्य कार्य भी तो नहीं। समाज को भड़काने वालों की बहुलता भी है।
औरत जो एक माँ है- अपनी कोख में रखकर रक्त पिलाकर जिन भ्रूणों को संसार दिखाया अब उन्हीं की जरूरतों को पूरा करने के लिए वह इस तथाकथित प्रतिष्ठित समाज के उलाहनों/तानों से बेखबर अपने जिगर के टुकड़ों को पाल-पोष रही है। उनकी जरूरतें पूरा कर रही है। क्या बुरा कर रही है- है कोई उत्तर।
क्या पूँछू इस पुरूष प्रधान समाज के उस निठल्ले बाप से जिसने मासूमों की माँ और एक औरत जो उसकी अपनी ही धर्मपत्नी है को जिस्म बेंचने को विवश कर दिया। हे- औरत तू एक माँ के रूप में अवश्य ही महान है। हे निठल्ले बाप तुम इस पुरूष प्रधान एवं तथा कथित प्रतिष्ठित समाज में कोढ़ समान है।।

रीता विश्वकर्मा
सम्पादक- रेनबोन्यूज वेब पोर्टल
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